इंस्टाग्राम कॉन्फेशन्स पेज ने बंगलुरू स्कूल में मचाई खलबली

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दिल्ली । साउथ के एक नामी स्कूल में 16 साल की एक लड़की से शिक्षकों द्वारा की गई सामान्य पूछताछ ने डिजिटल युग का एक डरावना सच सामने ला दिया, जिससे छात्रों के सोशल मीडिया इस्तेमाल की अंधेरी दुनिया उजागर हो गई।

शिक्षकों और प्रिंसिपल द्वारा ऑनलाइन गतिविधियों को लेकर पूछे गए सवालों ने एक “पिटारा खोल दिया”—जिसमें दर्जनों छात्रों से जुड़ी शिकायतें, अश्लील बातचीत और इंस्टाग्राम के एक “कन्फेशन्स पेज” में शामिल होने के आरोप सामने आए।
तनाव तब और बढ़ गया जब एक फोटो पोस्ट के कारण एक जोड़े का ब्रेकअप हो गया, और फिर कुछ लड़कों ने उस लड़की को धमकियां दीं जिसने तस्वीरें डाली थीं। मामला तेजी से बिगड़ता गया—पैरेंट्स को बुलाया गया, शिक्षक खुद को असहाय महसूस करने लगे, और काउंसलर्स ने चेतावनी दी कि अगर स्थिति नहीं संभाली गई, तो पुलिस और साइबर क्राइम विभाग को शामिल करना पड़ सकता है।
हालांकि, बढ़ते विवाद के बाद भी पैरेंट्स ने शिकायतें वापस ले लीं, क्योंकि वे लंबी कानूनी लड़ाई और बदनामी से डर गए थे। एक अभिभावक ने कहा, “सब बेकार लगा। हमें लगा कि हार मान लेना ही एकमात्र विकल्प है।”
लेकिन यह घटना एक डरावना सबक छोड़ गई है। शिक्षकों ने इसे “आंखें खोल देने वाली घटना” बताया, जबकि काउंसलर्स ने सख्त हस्तक्षेप की जरूरत पर जोर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि पैरेंट्स और स्टाफ एकमत हो गए—अब उनकी मांग है कि स्कूली बच्चों को सोशल मीडिया के खतरों से बचाने के लिए एक **राष्ट्रीय डिजिटल उपयोग नीति बनाई जाए।
सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो ‘लाइक्स’ को असली रिश्तों से ज्यादा अहमियत देती है। अगर जल्द ही कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनी, तो नुकसान और बढ़ जाएगा।”
क्या हो सकता है समाधान? स्क्रीन टाइम की लिमिट तय करना, डिजिटल लिटरेसी प्रोग्राम चलाना, साइबर सुरक्षा की शिक्षा देना, गलत जानकारी रोकने के अभियान चलाना ।
मानसिक असर: ज़्यादा स्क्रीन टाइम से बेचैनी, नींद की दिक़्क़त, ध्यान की कमी और पढ़ाई में गिरावट।
सोशल मीडिया का जाल: तुलना और वैलिडेशन की दौड़ से बच्चों में डिप्रेशन, बॉडी-इमेज की समस्या और साइबर बुलिंग।
पढ़ाई पर असर: बग़ैर निगरानी डिजिटल टूल्स नकल, ध्यान भटकाने और AI पर ज़्यादा निर्भरता का सबब।
हिंसक गेम्स और एडल्ट कंटेंट: नाबालिग़ बच्चों में वक़्त से पहले परिपक्वता और इंसानी रिश्तों से दूरी।
असमानता: शहरी बच्चों पर डिजिटल ओवरलोड और ग़रीब या देहाती बच्चों पर रिसोर्स की कमी।
ध्यान की कमजोरी: लगातार स्क्रॉलिंग से याददाश्त और फ़ोकस पर नकारात्मक असर।
डेटा का शोषण: टेक्नोलॉजी कंपनियाँ बच्चों का डेटा मुनाफ़े के लिए बेच रही हैं।
ऑनलाइन ख़तरे: स्कैम, फ़िशिंग और Predatory Grooming से बच्चे आसानी से शिकार बनते हैं।
सांस्कृतिक असर: एल्गोरिदम उपभोक्तावाद और एकरूप ग्लोबल कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे स्थानीय तहज़ीब कमज़ोर हो रही है।
कौशल की कमी: सिर्फ़ स्क्रॉलिंग करने वाले बच्चे डिजिटल इकॉनमी में पिछड़ सकते हैं।
अगर अब भी राष्ट्रीय डिजिटल वेलबीइंग पॉलिसी नहीं बनी तो टेक्नोलॉजी कंपनियाँ बच्चों का बचपन, तालीम और आने वाली शहरी-देहाती ज़िंदगी को अपनी मर्ज़ी से ढालेंगी।
यह सिर्फ़ स्क्रीन टाइम का मामला नहीं—यह पूरी नस्ल की सेहत, मानसिक हालत और पहचान को बचाने का सवाल है।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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