जब राजनैतिक व्यवस्था सुस्त और लचर बनी रहेगी तो ज्यूडिशियरी को हस्तक्षेप करना पड़ेगा

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दिल्ली । भारत की सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरेदार माना जाता है। महिलाओं के अधिकार, LGBTQ बराबरी और पर्यावरण सुरक्षा जैसे ऐतिहासिक फ़ैसलों ने अदालत की साख मज़बूत की है। लेकिन हाल के बरसों में कई फ़ैसलों ने यह बहस छेड़ दी है कि अदालतें अपने दायरे से बाहर निकलकर नीति और प्रशासन का काम करने लगी हैं। न्यायिक सक्रियता पर एक बहस 1993 में भी हुई थी जब जस्टिस कुलदीप सिंह बेंच ने MC मेहता के PIL पर ताज ट्रिपेजियम जोन में प्रदूषणकारी उद्योगों पर तमाम बंदिशें लगा दी थीं। उस वक्त Presumptive justice का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था।

आजकल आवारा कुत्तों की समस्या को लेकर न्यायिक दखल पर फिर से आधे अधूरे सवाल उठ रहे हैं। पिछले कुछ सालों में न्यायिक सक्रियता को लेकर राजनैतिक सर्कल्स में असहजता देखी गई है। कुछ लोग ज्यूडिशियरी को parallel government के रूप में देखने लगे हैं! लेकिन ज्यूडिशियरी अपनी रिस्पांसिबिलिटी के प्रति जागरूक है और अपनी हदों से वाकिफ है। वो राष्ट्र का conscience है, जनता की आखिरी उम्मीद है।

हाल के वर्षों में कुछ केसेस में न्यायिक सक्रियता को लेकर, राज नेताओं ने कन्फ्यूजन फैलाया और ये भी कहा कि नेताओं की आजादी पर बेवजह अंकुश लगाया गया। जैसे, फ़रवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स योजना को रद्द कर दिया। चुनाव से कुछ ही हफ़्ते पहले आए इस फ़ैसले ने राजनीतिक उथल पुथल पैदा कर दी थी। आलोचकों का कहना था कि अदालत ने पार्लियामेंट की पॉलिसी को बिना ज़रूरी बहस पलट दिया।

इसी साल अदालत ने गवर्नरों और राष्ट्रपति को लंबित बिलों पर तय वक़्त में कार्रवाई का आदेश दिया। इतना ही नहीं, आर्टिकल 142 के तहत कुछ बिलों को “अपने आप क़ानून” मान लिया गया। क़ानूनविदों का कहना है कि यह आर्टिकल 200 की रूह से टकराता है और केंद्र व सूबों के ताल्लुक़ात पर असर डाल सकता है।
तक़नीकी और सामाजिक मामलों में भी अदालत ने दख़ल दिया। 2017 में हाईवे किनारे शराब दुकानों पर पाबंदी से लाखों लोगों की रोज़ी पर असर पड़ा, बाद में यह पाबंदी ढीली करनी पड़ी। पटाखों पर “ग्रीन क्रैकर्स” का फ़ैसला भी आया, जिसकी नीयत नेक थी मगर सवाल यह उठा कि क्या अदालतें वैज्ञानिक और सांस्कृतिक मसलों पर नीति तय करेंगी।

2018 में अदालत ने भारत को 2020 तक BS-6 उत्सर्जन मानकों पर ला दिया। उद्योग और ग्राहकों पर बड़ा बोझ पड़ा, और यह बहस उठी कि क्या ऐसे मसले अदालत के बजाय पॉलिसी-निर्माताओं के लिए नहीं छोड़े जाने चाहिए।
2025 में अदालत ने आवारा कुत्तों पर सुओ मोटू नोटिस लेकर आठ हफ़्तों में उन्हें शेल्टर भेजने का हुक्म दिया। मगर दिल्ली की हक़ीक़त यह है कि वहाँ मुश्किल से ढाई हज़ार कुत्तों की जगह है, जबकि आबादी आठ-दस लाख है। यह डायरेक्टिव Animal Birth Control Rules, 2023 से भी टकराता दिखा, हालांकि अभी फाइनल ऑर्डर आना बाकी है।

इन मिसालों ने न्यायिक सक्रियता को पॉलिसी बनाने की हद तक पहुँचा दिया है। अदालत की भूमिका हक़ की हिफ़ाज़त करना है, लेकिन जब वही हुकूमत या पार्लियामेंट का काम करने लगे, तो नाज़ुक संतुलन बिगड़ भी सकता है।

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता केसी जैन कहते हैं, “अदालतें आमतौर पर शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान करती हैं और लक्ष्मण रेखा पार करने से बचती हैं। लेकिन जब नीतिगत गतिरोध या कानूनी शून्यता होती है, जो मौलिक अधिकारों को सीधे प्रभावित करती है और समाज को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाती है, तो न्यायपालिका मूक दर्शक बनी नहीं रह सकती। ऐसे मामलों में, विधायिका या कार्यपालिका द्वारा कदम बढ़ाने तक नागरिकों की सुरक्षा के लिए अंतरिम निर्देश आवश्यक हो जाते हैं। अगर कोई राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक बैठा रहे, तो यह कब तक चल सकता है? संविधान का अनुच्छेद 200 स्पष्ट करता है — राज्यपाल का उद्देश्य विधायी प्रक्रिया को अनिश्चित समय तक रोकना नहीं है। अंततः, निर्वाचित सरकार की इच्छा ही प्रभावी होनी चाहिए।”

सार्वजनिक टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी न्यायिक सक्रियता का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं, “एक गतिशील समाज में न्याय को बनाए रखने और अधिकारों की रक्षा करने में न्यायिक सक्रियता एक महत्वपूर्ण शक्ति है। यह अदालतों को कानूनों को लचीले ढंग से व्याख्यायित करने का अधिकार देती है, ताकि कठोर विधान या अन्य अंगों की निष्क्रियता से पैदा हुए अंतराल को भरा जा सके। जब विधायिका नागरिक अधिकारों, पर्यावरणीय संकटों या प्रणालीगत असमानताओं जैसे जरूरी मुद्दों से निपटने में विफल होती है, तो सक्रिय न्यायाधीश हस्तक्षेप करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि संविधान एक जीवित दस्तावेज बना रहे, जो आधुनिक चुनौतियों के अनुकूल हो। अन्यायपूर्ण कानूनों या नीतियों को साहसपूर्वक रद्द करके, अदालतें हाशिए के समुदायों की सुरक्षा करती हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाए रखती हैं। न्यायिक सक्रियता अतिक्रमण नहीं है; यह सत्ता पर एक आवश्यक अंकुश है, जो अन्य संस्थाओं के विफल होने पर निष्पक्षता और प्रगति को बढ़ावा देती है।”
भारत का लोकतंत्र अदालत की निगहबानी से ही मज़बूत होता है। लेकिन अदालत अगर पॉलिसी बनाने लगे तो बैलेंस बिगड़ने का ख़तरा भी बना रहेगा। बेहतर होगा संसद और हमारी पॉलिटिकल पार्टीज, समय रहते सचेत हो जाएं, और फटाफट नीतिगत फैसले लेने की पहल करें। जागो, सोने वालो।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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