व्यक्ति जिस तरह पहाड़ों को समतल करने का प्रयास कर रहा है। जंगल काटता जा रहा है, यहाँ तक कि धरती माता को संपदाविहीन बना रहा है, प्राकृतिक स्रोतों के जल-प्रवाहों को प्रतिबंधित करते हुए उन्हें अपनी पसंद एवं निर्मिति के अनुरूप प्रवाहित होने के लिए बाध्य कर रहा है, वह सब सृष्टि के प्रति उसके अत्यल्प सम्मान को बतानेवाला है। अति आत्मतुष्टि व स्वकेंद्रित दर्प से युक्त होकर वह अति विशाल प्रकल्पों को हाथ में ले रहा है, मानो वह त्रिकालदर्शी एवं सर्वशक्तिमान हो, अथवा प्रकृति की उत्पत्ति व लय में सक्षम द्वितीय विधाता बन गया है। वह अपनी हठधर्मिता के कारण विशाल उद्यमों के प्रभावों को देखने को तैयार नहीं है।*
*प्रकृति जब तक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती, तब तक उसके साथ खिलवाड़ करना सरल है, किंतु जब वह पलटकर वार करेगी (अनिवार्य रूप से करेगी ही), तब मनुष्य को कौन बचाएगा?…*
*….ऐसे समूह विज्ञान की सहायता से प्राकृतिक शक्तियों को खोजकर और उनपर नियंत्रण कर, अपने स्वार्थी उद्देश्यों की पूर्ति करने में जुटे हुए हैं। इसी का परिणाम है कि वर्तमान में विश्व विनाश की आशंका से भयकंपित है, उसकी कृष्णछाया में जीने के लिए विवश है। एक ओर तो मनुष्य को सुखी बनाने के लिए योजनाएँ बनाई जा रही हैं तो दूसरी ओर प्रकृति की गूढ़ शक्तियों को नियंत्रण में लाकर सृष्टि पर विजय प्राप्त कर स्वामी बनने के अनधिकार प्रयास कर आत्मविनाश को निमंत्रण दिया जा रहा है।”*
–श्रीगुरुजी के द्वारा ऑर्गनायजर, १४ नवंबर १९५५ में लिखे एक आलेख का अंश।