जैसलमेर का अर्धसाका : विश्वासघात और वीरता की वेदना

images-4.jpeg

प्रणय विक्रम सिंह

राजस्थान का इतिहास केवल रणभूमि का राग नहीं, बल्कि मित्रता और विश्वास के मर्म का भी महाकाव्य है। उसी महाकाव्य का एक हृदयविदारक अध्याय है जैसलमेर का अर्धसाका।

अमीर अली, कंधार का नवाब, जो अपने ही भाई से हारकर शरणागत हुआ। शरणागत की रक्षा भारतीय संस्कृति का अटल धर्म है, अतः जैसलमेर के महाराजा लूणकरण ने उसे आश्रय दिया। मित्रता की मर्यादा निभाने हेतु दोनों ने पगड़ियां बदलीं, और यही पगड़ी-प्रसंग भविष्य में जैसलमेर के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ।

दिन बीतते गए, विश्वास की डोर गहरी होती गई। एक दिन अमीर अली ने कहा कि उसकी बेगमें रानीवास की महिलाओं से मिलना चाहती हैं। राजधर्म निभाने वाले महाराज लूणकरण ने सरलता से अनुमति दे दी। परंतु यह सरलता ही संहार का सूत्र बन गई।

जब विवाहोत्सव में अधिकांश पुरुष किले से बाहर थे, उसी अवसर को अमीर अली ने छल की ढाल बना लिया। स्त्रियों की पालकियों में स्त्रियां नहीं, सैनिक छिपे थे। शृंगार की जगह शस्त्र थे। आशीर्वाद की जगह आक्रमण छिपा था। जैसे ही संदेह हुआ और तलाशी की बात उठी, अमीर अली ने अपने सैनिकों को आक्रमण का आदेश दे दिया।

अचानक हुए इस विश्वासघात ने किले की सुरक्षा को चीर डाला। भीतर संदेश पहुंचा “अमीर अली ने विश्वास तोड़ा, अब युद्ध अनिवार्य है।” पुरुष थोड़े थे, परंपरा प्रबल थी। साका होना ही था।

परंतु यहां त्रासदी और गहरी थी। सामान्यतः साके में सबसे पहले जौहर होता है। स्त्रियां अग्नि की गोद में समा जाती हैं, फिर पुरुष केसरिया बाना पहन रणभूमि में उतरते हैं। लेकिन इस बार समय शत्रु से भी निर्दयी सिद्ध हुआ। जौहर के लिए क्षण न बचे। महिलाएं बोलीं कि “अग्नि-स्नान का समय नहीं है, हमें तलवारों से काट दिया जाए।” और वैसा ही हुआ।

इसलिए इतिहास ने इस युद्ध को अर्धसाका कहा क्योंकि यहां स्त्रियां अग्नि की ज्वाला में नहीं, बल्कि तलवार की धार पर समर्पित हुईं। केवल पुरुषों ने केसरिया किया। यह विश्वासघात और वीरता का विलक्षण संगम था।

अमीर अली ने किले पर कब्जा कर लिया, पर विजय क्षणभंगुर थी। जैसे ही समाचार राजकुमार मालदेव भाटी तक पहुंचा, वे सेना संग आए और अमीर अली का अंत कर पुनः जैसलमेर की धरा को स्वाभिमान दिलाया।

यह प्रसंग केवल विश्वासघात का इतिहास नहीं, बल्कि चेतावनी है। यह बताता है कि जब राष्ट्र और धर्म के शत्रु छल का सहारा लेते हैं, तब भोलेपन की कीमत रक्त से चुकानी पड़ती है। जो कौम इतिहास से सबक नहीं सीखती, वह न केवल मूर्ख, बल्कि आत्मद्रोही होती है और अंततः अपने ही विनाश का आह्वान करती है।

आज भी यह कथा गूंजती है…
*विश्वास जब वेश बदलकर विष बनता है*
*तब तलवारें ही अंतिम प्रहरी रह जाती हैं*

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top