रायपुर: यदि आप माओवादी परिक्षेत्र में यदि जायें तो एक शब्द से सतत सामना होगा और वह है “जनता”। क्या जनता भी माओवादियों के साथ है इसे समझने का क्या पैमाना हो सकता है? आलोक पुतुल की पुस्तक “नक्सलबाड़ी अबूझमाड” में नक्सलवाद के जनक माने जाने वाले कानू सान्याल का साक्षात्कार है जिसमें एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं “बंदूख पकड़ने से रेड कॉरीडोर नहीं बनाता है, जबतक लोग आपके साथ नहीं हैं।” इसी तरह एक आने प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं “भारत की धरती में केवल जंगल ही नहीं हैं, बड़े बड़े शहर, देहाती इलाके, हजारों लाखों किसान, कला कारखाने में काम करने वाले एक-एक प्रांत में पचास से साठ लाख मजदूर काम करते हैं। अगर ये आपका साथ न् दें तो कामयाबी नहीं मिलेगी।” इसी साक्षात्कार में एक स्थान पर कानू न् केवल अपने साथी चारू मजूमदार से असहमति दिखाते हैं बल्कि माओवाद की आतंकवाद से भी तुलना कर देते हैं। भले ही कानू सान्याल ने आत्महत्या कर ली है लेकिन आरंभकर्ता होने के कारण नक्सलवाद के किसी भी प्रसंग में वे और उनके विचार हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। क्या माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व को यह समझ में आने लगा था कि उनकी जनाधार विहीनता एक न् एक दिन उनके विनाश की तारीख तय कर सकती है?
जनता क्यों माओवादियों के साथ नहीं है? वस्तुत: आमजन ने वामपंथ को ही कभी स्वीकार नहीं किया अन्यथा ऐसा क्यों होता कि जिस देश में आंचलिक दल भी अपना आकार विस्तार बढ़ा लेते हैं सभी वामदल एक साथ मिलकर भी उंगलियों में गिने जाने जितना प्रतिनिधित्व पाते हैं? छत्तीसगढ़ के बस्तर परिक्षेत्र में माओवाद की केन्द्रीय राजधानी मानी जाती है लेकिन यहाँ नर्म-वामपंथ का उद्भव तब था जबकि बैलाड़ीला लौह अयस्क परियोजना में कार्य मुख्य रूप से मजदूरों के माध्यम से होता था। राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव वाले इस दौर में एनएमडीसी की आमद के साथ ही दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में मजदूर राजनीति का उद्भव हुआ। वर्ष 1980 के चुनाव परिणाम में पहली बार मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की टिकट से उन्हीं महेन्द्र कर्मा ने दंतेवाडा सीट जीत ली थी जो बाद में नक्सलवाद विरोधी अभियान ‘सलवा जुडुम’ का सबसे बड़ा चेहरा बने। इस जीत के पीछे बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना में कार्यरत कम्पनी एनएमडीसी की मजदूर यूनियनों का बहुत बडा योगदान था, साथ ही साथ वर्ष 1978 में हुआ किरन्दुल गोलीकाण्ड भी इस मजदूर बाहुल्य क्षेत्र में वामपंथ की जमीन तैयार करने में मुख्य सहयोगी बना। वामपंथी दलों को वर्ष 1990 और 1993 के चुनावों में दो दो सीटे मिली थीं और उसके बाद चूंकि मजदूर ही साथ नहीं रहे, एनएमडीसी की मजदूर यूनियन में कॉंग्रेस और भाजपा के समर्थित समूहों की भी आमद हुई अतः दक्षिण बस्तर में जो गिनी चुनी विधान सभा की सीटे मिला करती थीं वह मिलना भी बंद हो गयीं।
बस्तर संभाग में नक्सलवाद और चुनाव एक बार फिर वर्ष 2014 में चर्चा में आए जबकि आम आदमी पार्टी की ओर से लोकसभा की प्रत्याशी सोनी सोरी को बनाया गया। जो लोग नक्सलवाद पर पैनी दृष्टि रखते हैं वे स्वामी अग्निवेष की बस्तर में विशेष रुचि से अवश्य अवगत होंगे। अग्निवेश ने बाकायदा सोनी सोरी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया और नक्सलियों से यह अपील भी की थी कि वे चुनाव जीतने में सोनी सोरी की मदद करें। नक्सलियों से मांगी गयी इस मदद के व्यापक मायने हैं, कोई गहरे इसे बूझने का यत्न तो करे। अब परिणाम विवेचित करते हैं ऐसा क्यों हुआ कि बस्तर के आम मतदाता ने सोनी सोरी को वोट देने के स्थान पर उससे अधिक नोटा के बटन दबाये। बस्तर में कुल नोटा मत पडे 38772 अर्थात कुल प्राप्त मतों का पाँच प्रतिशत, जबकि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी को केवल सोलह हजार नौ सौ तीन मत प्राप्त हुए अर्थात महज दो प्रतिशत।
इन सभी उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि वह चाहे नरम वामपंथ हो अथवा उग्र वामपंथ, बस्तर परिक्षेत्र में उनकी लोकप्रियता नहीं के बराबर है इसीलिए सारी चर्चा बारूद, बंदूख और ब्लास्ट पर केंद्रित है। शहरी माओवादियों का ‘लोग साथ हैं इसलिए माओवाद’ वाला नैरेटिव तो तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। माओवाद क्या मिट पायेगा इसपर अभी संभावना पर बात न् कर यही कहना उचित होगा कि ‘आरंभ है प्रचंड’।