जंगल की सौंधी खुशबू में नहाई है कांतारा:चैप्टर वन

rishab-shetty-kantara-chapter-1-015023586-16x9_0.jpg.webp

ऋषभ कुमार

भारतीय संस्कृति की पहचान सनातन संस्कृति के रूप में होती है। सनातन’ यानी कि “हमेशा रहने वाला” या “शाश्वत”, जिसका न कोई आदि है और न कोई अंत। नाम से इतर भी अगर बात करें तो इस पृथ्वी पर मौजूद सभी संस्कृतियों में सबसे पुरातन भारतीय संस्कृति को कहा जा सकता है। हमारी अपनी एक समृद्ध परंपरा रही है, जो सहस्त्राब्दियों में हुए तमाम परिवर्तनों को साधते हुए, अभी भी अपनी पुरातनता में जीवित है। इसको समृद्ध करने और बनाए रखने में सबसे बड़ा योगदान यहां की लोकपरंपराओं और लोकआस्था का रहा है। हमारे यहां हर एक गांव के अपने लोकदेवता होते हैं, जिनको ग्रामदेवता और क्षेत्रपाल के रूप में जाना जाता है और पूजा जाता है। ये या तो ईश्वर के कोई गण होते हैं या कोई ऐसी महान आत्मा जिसने अपने अच्छे कार्यों द्वारा देव का दर्जा प्राप्त किया होता है। इनके बारे में तमाम दंतकथाएं भी प्रचलित होती हैं। ये वहां के रहवासियों को हर समस्या से जूझने की शक्ति और विश्वास प्रदान करते हैं। तमाम संकटों के बाद भी आस्था के द्वारा उनमें जिजीविषा को बनाए रखने में मदद करते हैं। ऐसे ही लोक देवताओं और उनसे जुड़ी दंतकथाओं को पर्दे पर चरितार्थ करते हुए ऋषभ शेट्टी एक बार फिर लेकर आए हैं ‘कंतारा’ का प्रिक्वल ‘कांतारा-अ लिजेंड:चैप्टर वन’।

फिल्म का आधार है,भूतकोला। जिसका अर्थ है दैवीय नृत्य। जो तुलुनाडु अर्थात कर्नाटक और उत्तरी केरल के तटीय इलाकों में प्रचलित है और जो समर्पित किया जाता है, वहां के लोकदेवता पंजुरी और गुलिका को। जिनको शिव के गण के रूप में पूजा जाता है। इनके पृथ्वी पर आने की अलग-अलग दंतकथाएं प्रचलित है। वो कथाएं फिर कभी। जहां पंजुरी शांत स्वभाव के हैं वहीं गुलिका अपने रौद्र स्वभाव और अनंत भूख के लिए जाने जाते हैं, भूख ऐसी कि जिसे शांत करने के लिए साक्षात नारायण को अपनी उंगली परोसनी पड़ी और जब फिल्म में यह अपने विविध रूपों में ऋषभ शेट्टी पर आते हैं तो यह दृश्य देखते ही बनता है।

अब यह पृथ्वी पर हैं और इनका कार्य है; क्षेत्रपाल के रूप में, क्षेत्र रक्षण का। इनके रक्षण का क्षेत्र है ‘ईश्वर का मधुवन’ जहां साक्षात् भगवान शिव और माता पार्वती तपस्या में लीन रहते हैं। इस क्षेत्र को कांतारा के नाम से भी जाना जाता है। इसी क्षेत्र में एक आदिवासी समुदाय रहता है। जिन्होंने प्रकृति से अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया हुआ। यह जंगल का सम्पूर्ण क्षेत्र अद्भुत और बेशकीमती औषधियों से भरा है जो और कहीं प्राप्त नहीं होती हैं। अब संपदा है, तो स्वार्थ भी है और लालच भी, इस प्रकृति के वरदान को हड़पने का। तो एक राजा है स्वार्थ की प्रतिमूर्ति, अत्यंत क्रुर जिसकी नज़र पड़ती है ईश्वर के मधुवन पर।

जो वहां के आदिवासियों को हटा कर उस समूचे वन क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता है पर वह देव के क्रोध का शिकार बनता है और साथ ही देव के भयंकर रूप को देखकर उसका पुत्र भय से आतंकित होकर इस जंगल से भागता है और नन्हा राजकुमार मिलता है, एक दूसरी जनजाति से जो है, कदबा। जिनका स्वार्थ है, देव की अद्भुत शक्तियां और जो काला जादू करके देव की शक्तियों को अपने वश में करना चाहती है। सब अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हैं और तब कहानी फैलती है, कांतारा में ब्रह्मराक्षस होने की। भय की वज़ह से वो एक दूसरे के क्षेत्र में नहीं जाते हैं। पर जब अधिकार क्षेत्र की मर्यादाएं टूटतीं है तो फिल्म में असली संघर्ष शुरू होता है और संघर्ष ऐसा की कई जगह आपको गूज़वम्प आते हैं।

फिल्म की कहानी में जो लोक परंपरा और आस्था को दर्शाता गया है, वह बहुत ही दर्शनीय बन पड़ा है। ऋषभ शेट्टी ने जो कहानी को गढ़ा और संवारा है वह तारीफ योग्य है। बल्कि यहां मैं यह जोडूंना चाहूंगा कि लोककथा या किंवदंतियों से जुड़ा यह कहानियों का एक ऐसा क्षेत्र है जो हीरे की वह खदान है जिसमें अभी खनन की शुरुआत की गई है और अगर इसका अच्छा उपयोग किया जाए तो इससे एक से बढ़कर एक कहानी रूपी हीरे निकल सकते हैं।‌ कहानी का एक यूनीक पार्ट है आदिवासियों को टिपिकल फिल्मों से अलग दिखाते हुए। बुद्धिमान रुप में प्रस्तुत करना। जो अशिक्षित तो है पर कॉमन सेंस का प्रयोग करते हुए स्वयं से विकसित संस्कृति की तमाम खूबियों को बहुत ही कम समय में अपनी तार्किक बुद्धि द्वारा सीख कर अपने यहां उनका प्रयोग करने लगता है।

बात अगर एक्टिंग की करें तो ऋषभ शेट्टी चौकाते हैं, वो अपनी एक्टिंग के लिए पूरी तरह से कमिटेड दिखाई देते हैं, उन्होंने वरमै के चरित्र को जीवंत किया है। क्लाइमेक्स में उन्हें देखना अद्भुत है, जब चामुंडी उनके अंदर आतीं हैं तो उनका एकदम से स्त्रैण हो जाना बाकई दर्शनीय है। दूसरी किरदार है राजकुमारी कनकावती जिसे निभाया है, रुक्मिणी वसंत। जो कोमलांगी प्रेमिका और दुष्ट राजकुमारी दोनों ही रूप में बखूबी जंची हैं। राजा राजशेखर बने हैं जयराम जो अपने चरित्र के साथ न्याय करते हैं और उसके शेड्स को बखूबी साधते नज़र आते हैं। राजा कुलशेखर बने हैं गुलशन देवैया जो अय्याश राजा का टिपिकल कैरैक्टर ही निभाते दिखते हैं। शायद ऋषभ शेट्टी को इनके कैरेक्टर को लिखने में और मेहनत करने की आवश्यकता थी। बांगरा के पहले राजा विजेंद्र बने हरिप्रशांथ ने भी छोटा और इंपैक्टफुल किरदार निभाया है। मायाकारा का भी किरदार भी बहुत इंपैक्टफुल रहा है।

फिल्म में चार चांद लगाते हैं उसके सीन्स और बैकग्राउंड म्यूजिक जो दृश्य में प्रयुक्त इमोशन की इंटैंसिटी को बढ़ाने का कार्य करता। यह फिल्म हमें एक अलग तरह का ही एक्शन दिखाता है जो मजेदार है, विजुअल इफेक्ट्स भी लाजबाव बन पड़े हैं। डबिंग की बात करें तो गीतों और कॉमिक पर अभी काम करने की आवश्यकता है। डबिंग में कॉमेडी का पूरी तरह से खत्म हुई लगती है। हां, कुछ-कुछ डायलॉग बढ़िया बन पड़े हैं।

कुलमिलाकर कहा जाए तो फिल्म बहुत ही अच्छी बन पड़ी है। जो आपको कुछ अलग ही एक्सपीरियंस देती है। जंगल को आप तक लाती है और आपको बारिश में भींगी सौंधी मिट्टी की खुशबू देती है। तो इसे देखना एक ट्रीट जैसा है तो जाइए खुदको और अपने परिवार को यह ट्रीट दीजिए और दोस्तों को भी।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं)

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top