रांची। उन दिनों झारखंड में यह नैरेटिव जोरों पर था कि ‘आदिवासी हिंदू नहीं होते हैं।’ इसी नैरेटिव के सहारे वहां बड़े पैमाने पर कन्वर्जन हो रहा था। इस यात्रा में मुझे एक आदिवासी सज्जन मिले। उनकी मां क्रिश्चियन थीं, पिता आदिवासी। लेकिन वह खुद को हिंदू मानते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने खुद चलकर RSS की शाखा में कदम रखा, क्योंकि वह समझना चाहते थे कि RSS आखिर है क्या। अब आगे।
कहानी उन दिनों की है, जब झारखंड की हवा में एक अजीब-सी बात गूंज रही थी। लोग कहते थे, “आदिवासी हिंदू नहीं होते।” यह बात हवा में तैरती थी, और इसके सहारे वहां बड़े पैमाने पर धर्मांतरण का खेल चल रहा था। उसी हवा में, एक नन्हा-सा बालक बड़ा हो रहा था, जिसके मन में सवालों का जंगल उग रहा था। उसका नाम था, मान लीजिए, रघु। रघु की मां क्रिश्चियन थीं, पिता गर्व से भरे आदिवासी। लेकिन रघु? वह खुद को हिंदू मानता था। उसका मन उस जमीन से जुड़ा था, जहां पेड़, पहाड़ और नदियां उसके लिए पूजनीय थीं।
एक दिन, चर्च की सीढ़ियों पर बैठा रघु अपनी मां के साथ पादरी की बातें सुन रहा था। पादरी की आवाज में चेतावनी थी, “बच्चे को उन RSS वालों से दूर रखो। वे लोग चर्च के खिलाफ लोगों को भड़काते हैं। वे हमारे लोगों को हिंदू बनाना चाहते हैं।” रघु का छोटा-सा मन ठिठक गया। “हिंदू बनाना? मगर मैं तो हिंदू ही हूं!” उसने सोचा। फिर उसे गुस्सा आया। “ये लोग चर्च के खिलाफ भड़काते हैं? ये तो गलत है!” बाल मन में एक हठ जागा। वह तय कर चुका था कि वह RSS के उस संगठन में जाएगा, जिसके बारे में इतनी बातें सुनी थीं। वह देखना चाहता था कि आखिर ये संघी करते क्या हैं, और अगर कुछ गलत हो रहा है, तो उसे ठीक कर देगा।
रघु ने गांव में शाखा की तलाश शुरू की। मगर गांव में शाखा कहां? पास के गांव में एक मैदान में कुछ लोग इकट्ठा होते थे, डंडे लिए, खेल खेलते, गीत गाते। रघु वहां पहुंचा। पहले दिन, दूसरा दिन, फिर सप्ताह बीता। महीना गुजरा। छह महीने हो गए। मगर शाखा में न तो चर्च की बात हुई, न क्रिश्चियनों की, न मुसलमानों की, न मस्जिद की। रघु हैरान था। “मैं तो इन्हें सुधारने आया था, मगर ये तो बस खेलते हैं, गीत गाते हैं, और देश-समाज की बातें करते हैं!” उसका मन निराश हुआ। उसे लगा, शायद असली रहस्य कहीं और छुपा है।
फिर किसी ने उसे बताया, “रघु, इन संघियों का एक सात दिन का वर्ग होता है। वहां सारा रहस्य खुलता है। वहीं सारा षड्यंत्र रचा जाता है। वहीं बच्चों के दिमाग में जहर भरा जाता है।” रघु का मन फिर जोश से भर गया। “बस, यही मौका है!” उसने वर्ग में जाने का फैसला किया। सात दिन का वर्ग बीता। मगर वहां भी कुछ नहीं मिला। न कोई नफरत की बात, न चर्च के खिलाफ कोई साजिश, न क्रिश्चियनों को भगाने की कोई योजना। रघु का मन फिर बैठ गया। “आखिर ये संघी करते क्या हैं?” उसने सोचा।
उन्होंने ही बताया कि जिद थी कि संघ को समझना है। इसलिए फिर प्रथम और द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूरा किया। अब थोड़ा संघ समझ आया लेकिन जितना समझ आया वह बहुत कम था। मतलब आधा प्रतिशत।
उम्र बढ़ती गई, और रघु की जिद भी। उसने सोचा, “शायद संघ का साहित्य पढ़ने से कुछ समझ आए।” उसने संघ की हर किताब, जो हाथ लगी, पढ़ डाली। मगर किताबों में भी वही बातें थीं—देश, समाज, संस्कृति। कुछ ऐसा नहीं, जो उसे पादरी की बातों से जोड़ सके। फिर उसने नागपुर जाकर संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। अब वह प्रचारक बन चुका था। चालीस साल बीत गए। रघु अब रघु बाबू बन चुके थे। एक दिन, किसी से बात करते हुए उन्होंने हंसकर कहा, “चालीस साल बाद भी मुझे लगता है कि मैंने संघ को बस दो, सवा दो फीसदी ही समझा है।”
रघु बाबू ने गहरी सांस ली और कहा, “लोग जो संघ के बारे में कहते हैं, लिखते हैं, सुनते हो, पढ़ते हो, वह सब बाहर की बात है। असली संघ को समझना है, तो शाखा में जाओ। वहां कोई पंजीकरण नहीं होता, कोई तस्वीर नहीं ली जाती। जब मन करे, जाओ। जब मन न करे, छोड़ दो। फिर सुनी-सुनाई बातों पर यकीन क्यों?”
रघु बाबू की यह बात सुनने वाले के मन में गांठ-सी बंध गई। वह सोचने लगा, “सचमुच, जो सुनता हूं, क्या वही सच है? या सच को जानने के लिए मुझे खुद चलकर देखना होगा?” और यही सवाल, मेरे दोस्त, आज तुमसे भी पूछता हूं। तुम गांधीवादी हो, समाजवादी हो, या किसी और वाद में यकीन रखते हो—सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करने से पहले, एक बार शाखा में जाकर देखो। शायद वहां तुम्हें रघु बाबू जैसा कोई मिले, जो तुम्हें सच का एक और टुकड़ा दे जाए।