निलेश देसाई
भोपाल। भारत ने हाल ही में कृषि के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घोषणा की है: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने देश की पहली जीनोम-संपादित (GE) चावल की किस्में, कमला और पूसा डीएसटी राइस 1 विकसित की हैं। 4 मई, 2025 को जारी की गईं ये किस्में दावा करती हैं कि वे सूखा-सहिष्णु हैं, जल्दी पकती हैं, कम पानी और कम नाइट्रोजन पर उगती हैं, और अधिक उपज देती हुई ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 20% तक कम कर सकती हैं। यह एक बड़ी उपलब्धि लग सकती है, जो जलवायु परिवर्तन से लड़ने और सतत कृषि के लिए भारत की तकनीकी प्रगति को दर्शाती है।
लेकिन, इस चमकती तस्वीर के पीछे कई गहरे सवाल और चिंताएं छिपी हैं, जो हमारी बीज संप्रभुता, खाद्य सुरक्षा, किसान अधिकारों और यहाँ तक कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर भी असर डाल सकती हैं। यह लेख इन जीनोम-संपादित चावलों से जुड़ी वास्तविकताओं और उनके संभावित खतरों को उजागर करता है।
जीनोम संपादन क्या है और क्यों चिंता का विषय है?
जीनोम संपादन एक ऐसी अत्याधुनिक तकनीक है जहाँ CRISPR-Cas9 जैसे “आणविक कैंची” का उपयोग करके पौधे या जानवर के डीएनए में बहुत सटीक बदलाव किए जाते हैं। इसमें जीन को हटाया या बदला जा सकता है। ICAR का दावा है कि उनके GE चावल सूखा और लवणीय मिट्टी को सहन कर सकते हैं, कम पानी और उर्वरक का उपयोग कर सकते हैं, और अधिक उपज के साथ पर्यावरण के लिए भी बेहतर हैं।
हालांकि, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों को इसकी सटीकता और सुरक्षापर गंभीर चिंताएं हैं:
• अनपेक्षित बदलाव (Off-Target Mutations): आणविक कैंची कभी-कभी डीएनए में लक्षित स्थान के अलावा अन्य जगहों पर भी अनचाहे बदलाव कर सकती हैं। इन “ऑफ-टारगेट म्यूटेशन” से नए प्रोटीन बन सकते हैं जो विषाक्त या एलर्जी पैदा कर सकते हैं। इसके उदाहरण भी मिलते हैं: जीन-संपादित मवेशियों में अनजाने में एंटीबायोटिक प्रतिरोध जीन पाए गए, और चूहों में बकरी/गाय का डीएनए मिला, क्योंकि प्रयोगशाला में इनके सीरम का उपयोग हुआ था। ये अनपेक्षित बदलाव फसल के व्यवहार और पर्यावरण पर भी अप्रत्याशित प्रभाव डाल सकते हैं।
• पर्यावरणीय जोखिम और परीक्षण की कमी: पर्यावरणविद इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में इन GE किस्मों का कोई पर्याप्त औरस्वतंत्र जैव-सुरक्षा परीक्षण नहीं हुआ है। यह स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है, क्योंकि संभावित जोखिमों का मूल्यांकन नहीं किया गया है।
कानूनी उल्लंघन और न्यायिक आदेशों की अनदेखी
पर्यावरणविदों का तर्क है कि GE चावल को जारी करना भारत के मौजूदा कानूनों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन है:
• 1989 के पर्यावरण नियम: ये नियम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि डीएनए में कोई भी बदलाव (जैसे जीन-संपादन) जेनेटिक इंजीनियरिंग के दायरे में आता है, और ऐसे सभी मामलों को कड़े जैव-सुरक्षा परीक्षणों से गुजरना होगा।
• 2022 का छूट निर्णय: सरकार ने 2022 में SDN-1 और SDN-2 (जीन संपादन के प्रकार जिनमें बाहरी डीएनए शामिल नहीं होता) को जैव-सुरक्षा नियमों से छूट दे दी। यह निर्णय इस तर्क पर आधारित था कि इनमें बाहरी डीएनए नहीं होता, लेकिन आलोचक इसे अवैज्ञानिक और गैरकानूनी मानते हैं, क्योंकि आनुवंशिक संशोधन तो होता ही है।
• सुप्रीम कोर्ट का आदेश (जुलाई 2024): सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि मौजूदा नियामक प्रणाली जैव-सुरक्षा को सुनिश्चित करने में विफल रही है और एक नई, मजबूत नीति की मांग की थी। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना ने विशेष रूप से सावधानी सिद्धांत (precautionary principle) पर जोर दिया था: यदि किसी गतिविधि से मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को गंभीर या अपरिवर्तनीय क्षति का जोखिम है, और वैज्ञानिक निश्चितता नहीं है, तो पहले उसे रोकना चाहिए।
• ICAR की अवज्ञा: सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद, ICAR ने बिना किसी पर्याप्त परीक्षण के GE चावल जारी किया, जिसे आलोचक कानून और नैतिकता दोनों का उल्लंघन मानते हैं।
पारदर्शिता, जवाबदेही और किसान आवाज पर हमला
GE चावल के इस मुद्दे में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी भी एक बड़ी चिंता का विषय है:
• वेणुगोपाल बदरावदा का मामला: ICAR बोर्ड के सदस्य और किसान नेता वेणुगोपाल बदरावदा ने GE चावल पर कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे: क्या जैव-सुरक्षा परीक्षण हुए हैं? क्या ये किस्में पेटेंट से बंधी हैं? क्या किसानों के बीज बचाने के अधिकार सुरक्षित हैं?
• दमनकारी प्रतिक्रिया: इन सवालों का जवाब देने के बजाय, वेणुगोपाल को बोर्ड से हटा दिया गया और उन पर झूठे आरोप लगाए गए। यह घटना पारदर्शिता, जवाबदेही और किसान समुदाय की आवाज को दबाने के प्रयास के रूप में देखी जा रही है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा है।
स्वास्थ्य, पर्यावरण और बीज संप्रभुता पर जोखिम
GE चावल से जुड़े जोखिम सिर्फ कानूनी या प्रक्रियात्मक नहीं हैं, बल्कि सीधे तौर पर हमारे स्वास्थ्य, पर्यावरण और किसानों के भविष्य को प्रभावित करते हैं:
• स्वास्थ्य और पर्यावरण: अनपेक्षित जीन बदलाव नए प्रोटीन बना सकते हैं जो स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकते हैं। पर्यावरण में GE फसलों का व्यवहार भी अप्रत्याशित हो सकता है।
• जैव विविधता का अपूरणीय नुकसान: भारत चावल का उत्पत्ति केंद्रहै, जहाँ 1,00,000 से अधिक देशी किस्में मौजूद हैं। GE चावल से आनुवंशिक प्रदूषण का खतरा है, जो इन अनमोल देशी किस्मों को नष्ट कर सकता है। यह न केवल हमारी पारिस्थितिकी के लिए बुरा है, बल्कि भविष्य की फसल सुधार के लिए उपलब्ध आनुवंशिक विविधता को भी कम कर देगा।
• निर्यात पर प्रभाव: यूरोपीय संघ जैसे बड़े बाजार GE फसलों को लेकर बहुत सख्त हैं। यदि भारत GE चावल को व्यापक रूप से अपनाता है, तो इससे देश के जैविक चावल निर्यात (जो 2023 में $1.2 बिलियन था) पर नकारात्मक असर पड़ सकता है, क्योंकि उन्हें GE फसलों से दूषित होने का डर होगा।
• बीज संप्रभुता पर हमला: CRISPR तकनीक पर ERS जीनोमिक्स(अमेरिका) जैसी कंपनियों का पेटेंट है। इसका मतलब है कि अगर GE चावल फैलता है, तो किसानों को हर साल महंगे बीज खरीदने होंगे, क्योंकि पेटेंट के कारण उन्हें बीज बचाने या दोबारा उपयोग करने की अनुमति नहीं होगी। यह उन्हें कंपनियों पर पूरी तरह निर्भर कर देगा। पीपीवीएफआर अधिनियम, 2001 किसानों को बीज बचाने का अधिकार देता है, लेकिन ये पेटेंट इसे कमजोर कर सकते हैं। बीटी कपास के मामले में मोनसेंटो ने पेटेंट के जरिए किसानों को कैसे निर्भर बनाया और विदर्भ जैसे क्षेत्रों में कर्ज और आत्महत्याएं बढ़ीं, यह एक कड़वी याद है।
क्या वास्तव में GE चावल की आवश्यकता है?
लेख यह सवाल उठाता है कि क्या भारत को वास्तव में GE चावल की इतनी आवश्यकता है:
• उत्पादन की अधिकता: भारत पहले ही अपनी जरूरत से ज्यादा चावल (2023 में 135 मिलियन टन) पैदा करता है। गोदामों की कमी के कारण चावल बर्बाद भी होता है।
• असली समस्या: भारत में खाद्य सुरक्षा की असली समस्या उत्पादन में नहीं, बल्कि वितरण, बुनियादी ढांचे और स्थिरता में है।
• मोनोकल्चर का नुकसान: चावल की एकसमान खेती (मोनोकल्चर) मिट्टी को कमजोर करती है और जल संसाधनों को खत्म कर रही है।
• दावे संदिग्ध: GE चावल के अधिक उपज, कम पानी और सूखा-सहनशीलता जैसे दावों का कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक परीक्षण नहीं हुआ है। अतीत में जीएम एचटी सरसों के भी ऐसे ही दावे फर्जी पाए गए थे।
• सुरक्षित विकल्प: इसके बजाय, कृषि-पारिस्थितिकी (agroecology), जैसे आंध्र प्रदेश का CNF (Community Managed Natural Farming) मॉडल और मार्कर-असिस्टेड सिलेक्शन (MAS) जैसे सहभागी धान, अधिक सस्ते, सुरक्षित और टिकाऊ विकल्प प्रदान करते हैं, जो जैव विविधता और किसानों की आत्मनिर्भरता को बनाए रखते हैं।
कॉर्पोरेट नियंत्रण और लोकतंत्र पर मंडराता खतरा
जीनोम-संपादित चावल का मुद्दा सिर्फ कृषि या पर्यावरण का नहीं, बल्किकॉर्पोरेट नियंत्रण और लोकतंत्र के क्षरण का भी है:
• कॉर्पोरेट कब्जा: GE चावल, पेटेंटेड CRISPR तकनीक पर आधारित होने के कारण, कॉर्पोरेट्स (जैसे ERS जीनोमिक्स) को बीजों पर भारी नियंत्रण देगा, जैसा कि मोनसेंटो ने बीटी कपास के साथ किया था।
• पारदर्शिता की कमी और लोकतांत्रिक क्षरण: ICAR ने GE चावल के विकास और मंजूरी में कोई सार्वजनिक बहस या जानकारी साझा नहीं की। वेणुगोपाल जैसे किसान नेताओं का दमन और जैव-सुरक्षा नियमों की अनदेखी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करती है, क्योंकि यह जनता और हितधारकों की आवाज को दबाने का प्रयास है।
जीएम-फ्री इंडिया गठबंधन ने स्पष्ट मांग की है कि GE चावल की मंजूरी तुरंत वापस ली जाए, 1989 के पर्यावरण नियमों को पूरी तरह लागू किया जाए, स्वतंत्र जैव-सुरक्षा परीक्षण अनिवार्य किए जाएं, पेटेंट विवरण सार्वजनिक किए जाएं, और चावल की जैव विविधता व बीज संप्रभुता की रक्षा की जाए।
बाहरी बनाम आंतरिक खतरा
लेख एक महत्वपूर्ण तुलना प्रस्तुत करता है: जहाँ भारत अपनी बाहरी सीमाओं पर आक्रामकता का सामना कर रहा है, वहीं GE चावल का बिना पर्याप्त परीक्षण के जारी होना, किसान आवाज का दमन, और कृषि में कॉर्पोरेट नियंत्रण आंतरिक खतरा है। यह बीज संप्रभुता, खाद्य सुरक्षा और वैज्ञानिक अखंडता पर हमला है। लेख का अंतिम संदेश यह है कि पारदर्शी, जवाबदेह और सुरक्षित तकनीक की वकालत है। गलत तकनीक से खाद्य असुरक्षा, ज्ञान असुरक्षा और लोकतंत्र का क्षरण होगा। यह आंतरिक खतरा बाहरी खतरों जितना ही गंभीर है, और इसे रोकने के लिए पारदर्शी, किसान-केंद्रित नीतियां चाहिए।
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