पटना की गलियों में बसी थी कविता की छोटी-सी दुनिया। आठ साल पहले उसकी शादी राकेश से हुई थी, जो एक सम्मानित सरकारी अधिकारी थे। दो प्यारे बच्चे, सात साल का आरव और चार साल की अनन्या, उनके घर की रौनक थे। सुबह की चाय से लेकर रात की कहानियों तक, उनका परिवार हंसी-खेल और प्यार से भरा था। लेकिन कहते हैं न, खुशहाल जिंदगी में भी कभी-कभी ऐसी आंधी आती है, जो सब कुछ उड़ा ले जाती है।
दो साल पहले कविता को सोशल मीडिया पर वीडियो बनाने का शौक चढ़ा। पहले तो यह सिर्फ समय काटने का जरिया था। वह खाना बनाने, बच्चों के साथ खेलने या घर सजाने के छोटे-मोटे वीडियो बनाती। लोग तारीफ करते, लाइक और कमेंट की बरसात होती। कविता को यह सब अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे यह शौक जुनून में बदल गया। वह दिन-रात बस वीडियो बनाने, एडिट करने और अपलोड करने में डूबी रहती। राकेश ने कई बार टोका, “कविता, बच्चों को भी समय दो, मुझे भी थोड़ा वक्त चाहिए।” लेकिन कविता हंसकर टाल देती, “बस थोड़ा और, फिर सब ठीक हो जाएगा।”
इसी दौरान सोशल मीडिया के जरिए कविता की जिंदगी में आया विवेक। वह एक फ्रीलांस वीडियो एडिटर था, जो कविता के वीडियो को और आकर्षक बनाता। उसकी आवाज में एक अजीब-सी कशिश थी, जो कविता को भाने लगी। विवेक न सिर्फ वीडियो एडिट करता, बल्कि कविता को नए-नए आइडिया भी देता। कविता उसे इसके लिए पैसे देती, और धीरे-धीरे दोनों की बातचीत वीडियो से आगे बढ़कर निजी जिंदगी तक पहुंच गई। रात-रात भर चैट, फोन कॉल्स, और हंसी-मजाक ने कविता को एक ऐसी दुनिया में ले जाना शुरू कर दिया, जहां न राकेश था, न बच्चे, न परिवार की जिम्मेदारियां।
कविता की रुचि अपने पति और बच्चों में कम होने लगी। राकेश को उसका बदला व्यवहार खटकने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर बात क्या है। एक दिन बच्चों के स्कूल की मीटिंग थी, लेकिन कविता ने बहाना बनाकर मना कर दिया। राकेश ने गुस्से में उसका फोन चेक किया और विवेक के साथ उसकी बातचीत देखकर सन्न रह गया। बात सिर्फ वीडियो एडिटिंग तक सीमित नहीं थी। दोनों के बीच ऐसी बातें थीं, जो एक शादीशुदा औरत और एक अजनबी के बीच नहीं होनी चाहिए।
राकेश ने कविता से बात करने की कोशिश की, लेकिन कविता उल्टा उस पर बरस पड़ी। “तुम्हें मेरी खुशी से क्या मतलब? मैं अपनी जिंदगी जीना चाहती हूं!” राकेश स्तब्ध था। उसने सोचा कि शायद समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। लेकिन एक रात कविता घर छोड़कर चली गई। बच्चों की नींद और राकेश की बेचैनी के बीच यह खबर जंगल की आग की तरह फैली कि कविता विवेक के साथ सिलीगुड़ी भाग गई है।
मामला थाने तक पहुंचा। राकेश एक रसूखदार अधिकारी था, इसलिए पुलिस और कुछ प्रभावशाली लोग इसे दबाने में जुट गए। मीडिया को भनक तक नहीं लगी। सिलीगुड़ी के एक होटल में कविता और विवेक को पकड़ा गया। कविता ने साफ कह दिया, “मैं राकेश के साथ नहीं रहना चाहती।” उसकी आंखों में न पछतावा था, न बच्चों की चिंता। वह बस अपनी “आजादी” की बात कर रही थी।
राकेश टूट चुका था। वह बच्चों को कैसे समझाए कि उनकी मां अब उनके पास नहीं आएगी? समाज में सवाल उठ रहे थे। कुछ लोग कविता को दोष दे रहे थे, तो कुछ राकेश पर ताने कस रहे थे कि उसने पत्नी को “कंट्रोल” नहीं किया। लेकिन सवाल यह था कि आखिर गलती किसकी थी?
यह कहानी सिर्फ कविता और राकेश की नहीं, बल्कि उस समाज की है, जहां सोशल मीडिया का जुनून परिवारों को तोड़ रहा है। आज के दौर में लोग वास्तविक रिश्तों से ज्यादा आभासी दुनिया में जीने लगे हैं। लाइक, कमेंट और तारीफों की चमक में लोग अपने बच्चों, जीवनसाथी और जिम्मेदारियों को भूल रहे हैं। यह एक मानसिक विकृति है, जो कैंसर से भी खतरनाक है, क्योंकि इसका कोई इलाज नहीं। यह बीमारी धीरे-धीरे परिवारों को, रिश्तों को और समाज को खोखला कर रही है।
कविता की गलती थी कि उसने अपने शौक को जुनून बनने दिया और परिवार को पीछे छोड़ दिया। लेकिन समाज भी कम जिम्मेदार नहीं, जो ऐसी आभासी दुनिया को बढ़ावा देता है, जहां लोग अपनी पहचान, अपने मूल्यों को भूल जाते हैं। हमें यह समझना होगा कि सोशल मीडिया एक उपकरण है, जीवन का आधार नहीं। अगर हम समय रहते नहीं संभले, तो ऐसे और परिवार टूटेंगे, बच्चे मां-बाप के प्यार से वंचित होंगे, और समाज में सिर्फ खालीपन बचेगा।
गलती किसकी?
गलती कविता की थी, जो अपने परिवार को छोड़कर एक आभासी रिश्ते की चमक में खो गई। गलती उस समाज की भी है, जो ऐसी मानसिकता को सामान्य मानने लगा है। और शायद गलती हम सबकी है, जो इस बीमारी को फैलने से रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे। आइए, अपने रिश्तों को, अपने परिवार को, और अपनी जिम्मेदारियों को प्राथमिकता दें, क्योंकि कोई लाइक या कमेंट उस प्यार की जगह नहीं ले सकता, जो एक परिवार देता है।