काकाज़स से आती घंटी

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अनुराग पुनेठा

दिल्ली । अज़रबैजान–आर्मेनिया में 30 सालों की लड़ाई के बाद शांति समझौते हो गया है, समझौता ट्रंप ने कराया है, तुर्रा ये कि अज़रबेजान के राष्ट्रपति ने ट्रंप के लिए नोबेल पुरस्कार की पेशकश कर दी है, जो भी हो पर दुनिया ताली बजा रही है,

यह फ़िलहाल भारत के लिए बहुत अच्छी खबर नहीं होगी । यह डील ट्रम्प के अहम को और हवा देगा, लिहाजा नई दिल्ली को यह तालियों की गूंज से ज़्यादा, उसके पीछे छिपी राजनीति पर नज़र रखनी होगी। यह डील ऐसे वक्त में हुई है जब व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रम्प चुनावी बुखार और अंतरराष्ट्रीय ‘शांति-नायक’ की छवि की तलाश में हैं। याद रहे—2019 में इन्हीं ट्रम्प ने दावा किया था कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की, जिसे बाद में खुद ही नकार दिया।

अब काकाज़स की इस डिप्लोमैटिक जीत से उनका अहं और फूलेगा, और यही वह चिंगारी है जो दक्षिण एशिया में फिर से ‘मध्यस्थता’ के धुएँ को हवा दे सकती है। पाकिस्तान पहले ही अपने नए सैन्य प्रमुख, जनरल असीम मुनीर के जरिए ट्रम्प के सामने बिटकॉइन और डिजिटल करेंसी के रूप में कारोबारी लुभावन पेशकश रख चुका है—जो भारत नहीं कर सका।

अगर ट्रम्प पाकिस्तान के साथ नज़दीकी बढ़ाते हैं, तो मोदी सरकार की पिछले एक दशक की ‘पाकिस्तान को कूटनीतिक तौर पर अकेला करने’ की रणनीति बुरी तरह ध्वस्त हो सकती है। यह केवल विदेश नीति की हार नहीं होगी, बल्कि भारत के रणनीतिक आत्मविश्वास पर सीधी चोट होगी।

काकाज़स में हुआ यह शांति समझौता हमें याद दिलाता है—हर डिप्लोमैटिक जीत, हमारी जीत नहीं होती। कभी-कभी दूसरे की जीत, हमारी सबसे बड़ी जीत को कमतर कर सकती है ।

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