अनुराग़ पुनेठा
एक कहानी सुनाता हूँ…
जो बचपन में सुनी थी।
हंगरी का एक निशानेबाज़ था—कारोली ताकाक्स।
असाधारण निशाना, अटूट जज़्बा। उसकी कहानी में वो ताक़त थी कि वो मुर्दों में भी जान फूंक दे।
ताकाक्स का सपना था ओलंपिक पदक जीतना
वो सालों से तैय्यारी कर रहा था
1936 का ओलंपिक आया लेकिन उसे मना कर दिया गया—क्योंकि
वो सेना में अफ़सर नहीं था।
1940 ओंलपिक के लिये उसने पूरी ताक़त लगा दी।
तभी एक हादसा हुआ—एक ग्रेनेड फट गया… और उसकी दाहिनी कलाई उड़ गई।
अब सोचो… एक शूटिंग चैंपियन जिसकी निशानबाज़ी जिस हाथ पर टिकी हो… और वही हाथ चला जाए?
पर ताकाक्स ने हार नहीं मानी।
लोग जब सोच रहे थे कि अब उसका करियर खत्म हो गया है…
वो चुपचाप, गुपचुप… अपने बाएं हाथ से प्रैक्टिस करने लगा।
घंटों, महीनों, सालों… एक शब्द नहीं बोला, लेकिन दिन-रात जुटा रहा।
1939 में वो हंगरी का नेशनल चैंपियन बना।
मगर फिर, नियति ने एक और वार किया—1940 और 1944 के ओलंपिक सैकेंड वर्ल्ड वॉर की वजह से रद्द हो गए।
ताकाक्स फिर टूटा लेकिन हार नहीं मानी।
1948, उम्र—38 साल।
इस उम्र में आमतौर पर खिलाडी रिटायर हो जाते है।
लंदन ओलंपिक आया…
ताकाक्स बिलकुल साधारण सी शक्ल में।
लोगों को पता था कौन है,
लेकिन उसकी कटी हुई कलाई देखकर सबने उसे कमज़ोर समझ लिया।
सामने था अर्जेंटीना का चैंपियन कार्लोस एनरिक डियाज़ वैलिंते—सबकी उम्मीदें उसी पर टिकी थीं।
वैलिंते ने ताकाक्स से थोड़ा तंज कसते हुए पूछा—
“तुम यहाँ क्यों आए हो?”
ताकाक्स ने मुस्कुरा कर कहा—
“सीखने आया हूँ।”
…और फिर जो हुआ वो इतिहास बन गया।
ताकाक्स ने सिर्फ़ गोल्ड नहीं जीता, 580 अंकों के साथ वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाकर झंडा गाड दिया।
वैलिंते से पूरे 10 अंक आगे।
*कल रात मुझे ताकाक्स विराट कोहली में दिखा*
हाँ… वो विराट कोहली, जिसने ज़िंदगी भर जिस IPL की ट्रॉफी की जो तलाश की थी—वो कल पूरी हुई।
ये उसका सबसे बड़ा चेज़ था।
वो चेज़ जो आँकड़ों से नहीं, आँसुओं से जीता गया।
न 2012 का एशिया कप वाला 183 इतना भारी था,
न मलिंगा पर टूटी 133 रनों की सीबी सीरीज़ की पारी,
न हारिस रऊफ पर मारे गए दो ऐतिहासिक छक्कों वाली 82 रन की पारी।
क्योंकि इसमें न कोई बैट का स्वैग था,
न कवर ड्राइव की सुंदरता…
बस भीगी आँखें थीं… और ज़मीन थी…
जिस पर सिर टिकाकर विराट कोहली रो पड़ा।
जब किसी इंसान की मेहनत, उसका समर्पण, और उसकी श्रद्धा—इतनी स्पष्ट हो जाए…
तो फिर आलोचना, तंज, ट्रोलिंग—सब धुल जाते हैं।
मैं कभी विराट का प्रशंसक नहीं रहा।
उसकी ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामकता, गालियाँ देना, मैदान पर गुस्सा…
ये सब मेरी पीढ़ी के मिज़ाज के खिलाफ थे।
हमने सुनील गावस्कर देखा था, कपिल देव की शालीन आक्रामकता सुनी थी।
सचिन देखा था—बिना कुछ कहे जवाब देता बल्ले से।
गांगुली की बालकनी में टी-शर्ट भी गरिमा लिए हुए लगती थी।
विराट का अंदाज़ चुभता था।
गंभीर से झड़पें, गांगुली से मनमुटाव,
गावस्कर की बातें… टेस्ट क्रिकेट को अचानक अलविदा कह देना…
उसका प्लेयर होना कभी विवाद में नहीं रहा,
लेकिन उसका व्यक्तित्व एक द्वंद रहा।
पर कल…
विराट की आँखों ने सब बदल दिया।
कल का मैच सिर्फ़ एक जीत नहीं थी—वो विराट की पूरी जीवन-यात्रा की मुहर थी।
18 साल के सपने के आँसू।
हर IPL सीज़न में टूटती उम्मीदों के आँसू।
जब आख़िरी चार गेंदें बची थीं,
और विरोधी बल्लेबाज़ जीतने की आखिरी कोशिश में बड़े शॉट मार रहे थे…
एक-दो बार गेंद विराट के सिर के ऊपर से निकल गई…
उसकी आँखें भर आईं।
वो एक साधारण पल था—लेकिन उसमें एक असाधारण संघर्ष छुपा था।
RCB की ‘जिन्क्स’ की छवि के नीचे दबे उस इंसान ने
इतिहास को फाड़ डाला।
इस जीत में कोई स्टाइल नहीं था,
न कोई उछलना-कूदना…
बस एक इंसान था—जो सालों की मेहनत से नियति को हरा आया था।
उसका रोना—कोई हार का रोना नहीं था…
वो मंज़िल के मिल जाने के बाद आत्मा का रोना था।
वो प्रमाणपत्र था—जिसे खेल ने खुद विराट को दिया—
*अब तू जीत गया है।*