मधुबनी। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध अचानक नहीं हुआ था। उसका बीज 1919 में वर्साय की संधि में ही बो दिया गया था। समय बीतता रहा, परिस्थितियाँ पकती रहीं और फिर एक दिन विस्फोट हुआ। ठीक उसी तरह, मैथिली ठाकुर और एक कथित पत्रकार के बीच आज जो हालात दिखाई दे रहे हैं, वह किसी तात्कालिक विवाद का नतीजा नहीं हैं। इसकी पटकथा 2018 में ही लिखी जा चुकी थी। बस, दृश्य अब सामने आए हैं।
मामला उस समय का है जब मैथिली ठाकुर राइजिंग स्टार के पहले एपिसोड में परफॉर्म करने के बाद दिल्ली लौटी थीं। लौटते ही उन्होंने अपना पहला इंटरव्यू mithilaDarshan.news को दिया, जिसकी ज़िम्मेदारी उस समय मैं संभाल रहा था। यहीं से असहजता शुरू हुई। जैसे ही यह जानकारी मिथिला के एक कथित पत्रकार तक पहुँची, उन्होंने मैथिली के पिता को फोन कर नाराज़गी जताई। आपत्ति मैथिली से नहीं थी, न ही इंटरव्यू से, दिक्कत बस इतनी थी कि उन्हें पहले क्यों नहीं बुलाया गया। यहीं से ईगो ने जन्म लिया, और उसी क्षण एक अघोषित फैसला भी लिया गया- मैथिली ठाकुर को अब कभी अपने चैनल से प्रमोट नहीं किया जाएगा। विडंबना देखिए, मैथिली के पिता ने स्पष्ट कहा “आप भी आइए, इंटरव्यू ले लीजिए। इसमें उनकी कोई गलती नहीं है।”
लेकिन जब बात अहम की कुर्सी और ‘पहले होने’ के अहंकार पर आ जाए, तो तर्क बेमानी हो जाते हैं।
मैं मैथिली ठाकुर को 2007–08 से जानता हूँ, जब वे पहली बार पालम के दादादेव ग्राउंड में विद्यापति पर्व समारोह में आई थीं। कथित पत्रकार 2010 में दिल्ली आए। पहचान पुरानी थी, संवाद भी था।

बातचीत के दौरान पता चला कि मैथिली पहले एपिसोड के बाद दिल्ली लौटी हैं। मैंने उनके पिता से इंटरव्यू की अनुमति मांगी। उन्होंने कहा, आ जाइए। इंटरव्यू हुआ। बस, यहीं कथित पत्रकार पीछे रह गए और यहीं से ईगो स्थायी हो गया।
शायद उन्हें यह भ्रम हो गया था कि यदि वे मैथिली ठाकुर को प्रमोट नहीं करेंगे, तो उनका सफ़र थम जाएगा।
यही सबसे बड़ी विडंबना है, क्योंकि यही व्यक्ति कभी कहा करता था “हीरे को चाहे धरती में कितना भी गाड़ दो, पहली-दूसरी बरसात में नहीं, तीसरी बरसात के बाद जब वह बाहर आएगा तो उसकी चमक वही रहेगी।” यानी प्रतिभा को दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं। आज अगर आप उस कथित पत्रकार के चैनल को खंगालें, तो पाएँगे कि पिछले 6–7 वर्षों से मैथिली ठाकुर वहाँ नदारद हैं। यह संयोग नहीं, सोची-समझी दूरी है। यहीं से हालात धीरे-धीरे इस मुकाम तक पहुँचे, वरना कौन किसी कलाकार के पीछे वर्षों तक दिमाग लगाता और समय बर्बाद करता?
ज़रा सोचिए, एक छोटी-सी बात पर यदि आप किसी कलाकार से बातचीत तक बंद कर दें, सिर्फ इसलिए कि वह आपसे पहले किसी और को इंटरव्यू दे बैठी तो यह किस स्तर के स्वार्थ और अहंकार को दर्शाता है?
बीते 6–7 सालों से कथित पत्रकार इसी फिराक में थे कि कब मैथिली ठाकुर से कोई चूक हो और उसे लपक लिया जाए। उन्हें विधानसभा में शपथ से जुड़ा एक वीडियो मिला। उस पर स्ट्राइक आई।
और वे टूट पड़े। कोर्ट जाने की बात कही, गए नहीं। बता दें कि पहली स्ट्राइक के बाद यूट्यूब समय देता है। संभव है कि मामला नज़रअंदाज़ किया गया हो। लेकिन मियाद पूरी होने के बाद यूट्यूब ने लगातार तीन स्ट्राइक देकर स्पष्ट संकेत दे दिया कि चैनल बंद भी हो सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि यूट्यूब ने कहीं यह नहीं कहा कि चैनल बंद कर दिया गया है।
हटाने की प्रक्रिया होती है, अपील का विकल्प होता है। लेकिन इससे पहले ही जनाब अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कैप्शन लिखकर मैदान में उतर आए।
“अस्थायी रूप से बंद”
बस फिर क्या था! सोशल मीडिया के कुछ लोहा-लोटा तुरंत हरकत में आ गए। किसी ने उन्हें भारत सरकार के उच्च पद पर बैठा दिया, किसी ने बंगला-गाड़ी दे दी। काल्पनिक महिमा का ऐसा रायता फैला कि हकीकत कहीं खो गई।
खैर, इन बातों को छोड़िए।
मुद्दा यह है कि उनका तथाकथित मैथिली मीडिया मॉडल आज खुद असमंजस में है। वे हिंदी की ओर जाना चाहते हैं, लेकिन मैथिली से मोह भी नहीं छोड़ पा रहे। वे अपने फॉलोअर्स को हिंदी चैनल में शिफ्ट कराना चाहते हैं और इसके पीछे कई परतें हैं, कई वजहें हैं, जिन पर अगले अंक में विस्तार से चर्चा होगी
चलिए अब इसे पढ़कर… और क्लियर हो जाइए
इतिहास हमें यही सिखाता है।
टकराव अचानक नहीं होते,
वे लंबे समय तक पाले जाते हैं।
और जब सच सामने आता है,
तो वह किसी एक घटना का नहीं,
पूरी मानसिकता का आईना होता है।
(अजित झा की फेसबुक दीवार से साभार)



