कठोर सच : हिंदुओं पूरी दुनिया में तुम्हारा कोई नहीं!

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– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दिल्ली । जब कोई पिता यह कहता है कि उसे अपने बेटे की मौत की खबर पुलिस, प्रशासन या सरकार से नहीं फेसबुक से मिली है, तब यह साफ हो जाता है कि उसका ये दर्द पूरे समाज और राज्य की सामूहिक नैतिक विफलता का परिणाम है। बांग्लादेश के मयमनसिंह जिले में गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले दीपू चंद्र दास के पिता रवि लाल दास का दर्द आज इसी विफलता की गवाही दे रहा है। उनका बेटा परिवार का इकलौता कमाने वाला था। दिव्यांग पिता, मां, पत्नी और बच्चे की पूरी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी, किंतु अब वह दुनिया में नहीं, उसे तो इस्‍लामिक जिहादी कट्टर भीड़ ने घेरकर पीटा, पेड़ से बांधकर जिंदा जलाया और फिर उसके जले हुए शरीर को सार्वजनिक रूप से टांग कर जश्‍न मनाया है।

यह हत्या एक पैटर्न है

दीपू चंद्र दास की नृशंस हत्या कोई अचानक भड़का उन्माद नहीं है। यह उस लंबे और बार-बार दोहराए गए पैटर्न की कड़ी है जिसमें बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों को चुनकर निशाना बनाया जाता रहा है। 1951 में जिस देश में हिंदुओं की जनसंख्‍या 22 प्रतिशत थी, आज वो घटकर 8 प्रतिशत से भी कम रह गई है। यह गिरावट किसी सामान्य सामाजिक या आर्थिक परिवर्तन से नहीं आई है। इसके पीछे दशकों का डर, हिंसा, संपत्ति लूट, मंदिरों पर हमले, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, दीपू चंद्र दास जैसे अब तक अनेक लोगों को षड्यंत्र से, बल पूर्वक मार देने का झूठे आरोपों का इतिहास है।

विरोध प्रदर्शन है हिंसा का स्थापित ढांचा

दीपू की हत्या उस समय हुई जब ढाका में छात्र नेता उस्मान शरीफ हादी की मौत के बाद विरोध प्रदर्शनों के नाम पर हिंसा भड़काई जा रही थी। बांग्लादेश का इतिहास बताता है कि ऐसे आंदोलनों का अंत अक्सर हिंदुओं पर हमलों से होता रहा है। कभी छात्र आंदोलन, कभी राजनीतिक असंतोष और कभी किसी एक घटना की आड़ में भीड़ को उकसाया जाता है और उसका निशाना हिंदू बस्तियां, मंदिर और आम नागरिक बनते हैं। हर बार यह संयोग नहीं हो सकता है, यह तो यहां एक स्थापित ढांचा बन गया है।

ईशनिंदा का आरोप और भीड़ का न्याय

इस पूरी प्रक्रिया में ईशनिंदा का आरोप सबसे खतरनाक हथियार बन चुका है, जिसमें भीड़ को उकसाया जाता है, ये कहकर की उसने हमारे नबी या कुरान का अपमान किया है। निर्वासित लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता तसलीमा नसरीन के अनुसार दीपू पर उसके ही एक मुस्लिम सहकर्मी ने झूठा आरोप लगाया था। पुलिस ने पहले दीपू को भीड़ से बचाकर हिरासत में लिया। दीपू ने स्पष्ट कहा था कि उसने पैगंबर के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की, किंतु उसकी कौन सुननेवाला था! पुलिस ने कट्टरपंथी दबाव में उसे भीड़ के हवाले कर दिया!

वीडियो जो डर की तस्वीर दिखाते हैं

सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो इस बर्बरता को किसी संदेह से परे ले जाते हैं। कहीं दीपू थाने में बैठा दिखता है। कहीं सैकड़ों लोगों की भीड़ उसे घेरकर पीटती है। कहीं उसे नग्न कर प्रताड़ित किया जाता है और कहीं पेड़ से लटकाकर जिंदा जलाया जाता है। ये दृश्य एक हत्या के आगे बांग्‍लादेश में आज उस भय के दस्तावेज हैं जिसमें बहुत मुश्‍किल में रहते हुए कहना होगा हिंदू आज यहां सांस ले रहे हैं।

हालिया वर्षों की घटनाएं और निरंतरता

एक नजर देखें तो यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता है, पिछले एक साल में ही अनेक हिन्‍दू विरोधी हिंसा की भयंकर घटनाएं यहां घटी हैं। दिसंबर 2024 में आकाश दास के खिलाफ ईशनिंदा की अफवाह फैली और 130 हिंदू घर तथा 20 मंदिर जला दिए गए। नवंबर 2024 में करीमगंज उपजिला में रिदॉय रोबी दास की हत्या कर दी गई। अक्तूबर 2024 में फरीदपुर जिले में हृदय पाल नामक छात्र पर कॉलेज में हमला किया गया। चटगांव में प्रांत तालुकदार को अगवा कर प्रताड़ित किया गया। खगराचारी और रंगमती में धनंजय और रुबेल त्रिपुरा की हत्या अफवाहों के आधार पर हुई। घटनाएं अलग हैं पर तरीका एक है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदुओं पर हमले

हिन्‍दू हिंसा से जुड़े सवाल आज सिर्फ बांग्लादेश तक सीमित नहीं रहे हैं। पिछले वर्षों में पूरी दुनिया में हिंदुओं को उनकी धार्मिक पहचान के कारण निशाना बनाए जाने की घटनाएं बढ़ी हैं। पाकिस्तान में ईशनिंदा के आरोपों पर भीड़ द्वारा हत्या आम होती जा रही है। सियालकोट में श्रीलंकाई नागरिक प्रियांथा कुमारा को जिंदा जलाया जाना इसी उन्मादी मानसिकता का उदाहरण है जिसका असर वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों पर भी पड़ा है। सिंध प्रांत समेत पूरी पाकिस्‍तान से आए दिन खबरें आती हैं कि बेटी तो बेटी मां तक को जिहादी मानसिकता वाले इस्‍लामिक लोग अगवा कर ले रहे हैं।

ब्रिटेन में मंदिरों पर हमले, मूर्तियों की तोड़फोड़ और धार्मिक जुलूसों पर हमलों की घटनाएं सामने आई ही हैं। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में हिंदू मंदिरों को अपवित्र किया गया और धमकियां दी गईं। अमेरिका में भी मंदिरों पर हमले और हिंदू छात्रों के खिलाफ घृणा अपराधों की रिपोर्टें आई हैं। जिन देशों को उदार लोकतंत्र का प्रतीक माना जाता है वहां भी यह प्रवृत्ति चिंता पैदा करती है।

मध्य पूर्व और अफ्रीका में अदृश्य पीड़ा

मध्य पूर्व और अफ्रीका में काम करने वाले दक्षिण एशियाई हिंदू श्रमिकों के साथ धार्मिक भेदभाव की शिकायतें लंबे समय से सामने आ रही हैं। कहीं त्योहार मनाने से रोका जाता है। कहीं धार्मिक प्रतीक छिपाने पड़ते हैं। कहीं मंदिर निर्माण की अनुमति नहीं मिलती। यह सब उस अदृश्य पीड़ा का हिस्सा है जो अक्सर वैश्विक विमर्श से बाहर रह जाती है।

अंतरराष्ट्रीय चुप्पी और दोहरा मापदंड

इन घटनाओं पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया अक्सर औपचारिक रहती है। कुछ रिपोर्टें आती हैं। कुछ बयान जारी होते हैं। फिर मामला ठंडा पड़ जाता है। जिन मुद्दों पर वैश्विक दबाव तेज होता है वहां कार्रवाई दिखाई देती है, किंतु हिंदुओं के खिलाफ लक्षित हिंसा पर वही दबाव शायद ही बनता है। यही असमानता उस कटु अनुभूति को जन्म देती है कि हिंदुओं के दुख का कोई वैश्विक संरक्षक नहीं है। ऐसे में अब वक्‍त आ गया है अपनी सुरक्षा के लिए पूरी दुनिया के सभी हिन्‍दू एकमन और एकमत हों। आवाज हर जगह से बुलंद होनी चाहिए; हो सकता है बांग्‍लादेश, पाकिस्‍तान या ऐसे ही अन्‍य शासकों पर अंतरराष्‍ट्रीय दबाव आए । अन्‍यथा इसी तरह आगे भी न जाने कितने ‘दीपू’ मारे जाते रहेंगे और हम सभी थोड़ी देर का रोना रोकर फिर अपने अस्‍तित्‍व को यूं ही धीरे-धीरे समाप्‍त होते देखते रहेंगे।

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