खाजा और खाते ही जा

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सच्चिदानंद जोशी

दिल्ली। जब नालंदा लिटरेचर फेस्टिवल का कर्टेन रेजर IIC दिल्ली में हुआ था उस दिन किसी ने मज़ाक में आयोजक गंगा कुमार जी से कहा था ” खाजा तो खिलाएंगे न!” उस दिन बहुत आश्चर्य हुआ था। भला खाजा में ऐसी कौन सी बात है कि साहित्य उत्सव की चर्चा में भी उसका जिक्र हो। ये बात तब समझ में आई जब नालंदा होते हुए राजगीर पहुंचे और रास्ते में ” खाजा तीर्थ सिलाव” के दर्शन हुए।

वैसे खाजा हमारे जीवन में कभी न कभी आ ही जाता है। ग्वालियर मेले में बचपन में खाया खाजा याद है। छतरपुर में थे तो मेला जलविहार के प्रवेश द्वार पर स्वागत ही खाजा की दुकानों से होता था। तब एक जाते समय और एक आते समय खाजा लेना अनिवार्य था। तब ऑइली, फैटी, ऐसा कुछ भी नहीं लगता था। फिर बंगाल का खाजा , ओडिशा का खाजा ,छत्तीसगढ़ का खाजा सभी तरह का खाजा खाने का सौभाग्य मिला। जिन लोगों को ये सौभाग्य न मिला हो वो जगन्नाथ जी का प्रसाद खाते हुए खाजा का भक्षण कर ही लेते हैं।

खाजा के इन्हीं संदर्भों का स्मरण करते हुए जब सिलाव में उतरे तो चकित रह गए। एक लाइन से खाजा की ही दुकानें थी। अलग अलग नाम और ब्रांड के साथ मीठा और नमकीन खाजा मिल रहा था । और तो और चाट के ठेलों पर भी गोलगप्पों के साथ खाजा के ढेर भी बराबरी से थे।

अकेले जाते तो किसी भी दुकान से खरीद लेते। लेकिन साथ में अनंत आशुतोष जी थे जो है तो पुरातत्वविद लेकिन खाजा में विशेषज्ञता रखते दिखाई दिए।

” हम लोग काली साह का खाजा लेंगे । वो जी आई टैग प्राप्त है। ” उन्होंने बताया और हम आश्चर्यचकित हो गए।खाजा को जी आई टैग मिला इसकी तो जानकारी भी नहीं थी। फिर वो बोले ” बिहार में इस एक ही मिठाई को मिला है।”

खोजबीन करने पर जानकारी मिली कि खाजा का इतिहास पुराना है और मौर्यकाल में भी इसका संदर्भ मिलता है। भगवान बुद्ध के काल में भी संदर्भ मिलता है। यानी खाजा का इतिहास पंद्रह सौ वर्ष पुराना है।इतिहास में और उलझते इससे पहले अनंत आशुतोष जी ने उबार लिया और बताया कि हमें रास्ते के दूसरी तरफ जाना है। जी आई टैग वाली असली दुकान उधर अंदर तरफ है। तब सामने देखा तो मजा ही आ गया ।अधिकांश दुकानों पर काली साह ही लिखा था। मुझे शेगांव की कचौरी की याद हो आई। पहले शर्मा जी की कचौरी प्रसिद्ध थी जिनका बोर्ड नीले रंग का होता था। अब शेगांव में अधिकतर दुकानों के बोर्ड नीले हैं और सब पर शर्मा जी का नाम लिखा है।


सामने गली के अंदर एक भव्य बिल्डिंग थी जिसके द्वार पर खाजा मॉल लिखा था। अंदर गए तो एक भी टुकड़ा खाजा का दिखाई नहीं दिया। अनंत जी ने दुकान के मालिक संजीव जी से बात की और उन्होंने कहा कि वे अंदर से माल निकलवाते हैं। यहां रखने से ठंड के कारण सीरा जम जाता था।

जब तक अंदर से माल आए संजीव जी चर्चा की और अपना खाजा ज्ञान बढ़ाया। मालूम पड़ा कि दिन में तीन से चार सौ किलो का माल जाता होगा। और ये सिर्फ भारत में ही नहीं विदेशों में जाता है। ऑनलाइन भी मंगवाया जा सकता है। एक दो पीस टेस्ट करवाए जो मुंह में रखते ही घुल गए। देखा कई परतों वाला खाजा खाने में एकदम हल्का था। पफ बिस्किट से भी ज्यादा हल्का और खस्ता। मालूम पड़ा कि इसका कच्चा माल बनाने की खास विधि है। सबसे बड़ी बात की सिलाव के पानी में खास विशेषता है। ये स्वाद कही और नहीं आएगा। बात करते करते देख तो संजीव की प्रतिकृति उनके जुड़वां भाई भी अवतरित हो गए। फिर दोनों भाइयों ने मिलकर खाजा से जुड़े कई मजेदार किस्से सुनाए।

हमने लालच में तीन डिब्बे पैक करवा लिए । सोचा कई दिन तक खाते रहेंगे। लेकिन खाजा खाने से स्पीड इतनी ज्यादा है कि उन्हें बच्चों के लिए , जो तीन दिन के लिए वाराणसी गए है , बचाना मुश्किल हो रहा है। बच्चे छोटे थे तो उन्हें डांट कर कहते थे जरा दूसरों के लिए भी बचाया करो। खाजा को लेकर ऐसी ही डांट खुद को लगाने की इच्छा हो रही है।

सोचा था ऑनलाइन खाजा मंगवाना सिर्फ एक रूमानी ख्वाब होगा लेकिन ये तो बहुत जल्दी हकीकत में तब्दील होता नज़र आ रहा है।

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