आनंद कुमार
पटना। बात तो पुस्तक मेले की ही करनी है, लेकिन जैसा कि हमारी आदत है, बात हम एक पुराने किस्से से शुरू करेंगे। तो हुआ यूँ कि कुछ वर्ष पहले पटना में एक लिटरेचर फेस्टिवल था। जागरण संवादी वाला नहीं, पटना में पुस्तक प्रेमियों की भरमार है, सबसे ज्यादा रीडरशिप वाली जगहों में से है तो कई पुस्तक मेले और लिटरेचर फेस्टिवल लगते हैं। ज्ञान भवन के एक हॉल में अपनी बात पूरी करने के बाद जब (स्व.) नरेंद्र कोहली जी मंच से नीचे आये तो वहीँ कोने में हम उनके पास खड़े थे। इतने में एक और सज्जन भी पास आये और पुस्तकों की बिक्री कम होने, पाठक नहीं रहे जैसी बातें करने लगे।
थोड़ी देर उनकी बातें सुनने के बाद कोहली जी मेरी ओर मुड़े और कहा, देखो आनन्द मैं इसे दो पीढ़ियों से जानता हूँ, इसके पिताजी भी प्रकाशन के ही व्यवसाय में थे। तब इनका एक मंजिला घर होता था, फिर दो मंजिला हुआ। अब इसका तीन मंजिला, सफेद रंगा, बड़ा अच्छा सा मकान है। थोड़ा रूककर मुस्कुराते हुए उन्होंने हमसे पूछा, व्यवसाय अच्छा न चल रहा हो मगर मकान तीन मंजिला हो जाए, ये तकनीक कहीं से मुझे सिखा सकते हो क्या? तबतक हम सिर्फ एमबीए (मास्टर ऑफ बैड एक्टिविटीज) ही थे, संस्कृत (शास्त्री) में एडमिशन ही लिया था इसलिए विपणन (मार्केटिंग) का सवाल हमसे किया गया था और जवाब हमें पता नही था।
इस घटना को 7-8 वर्ष तो हो ही गए होंगे, लेकिन नरेंद्र कोहली जी के उस प्रश्न का उत्तर हमें आज भी नहीं पता। अगर पुस्तकें बिक ही नहीं रही तो नुकसान के धंधे में नित नए प्रकाशक अपने पैसे डुबाने के लिए कूद क्यों रहे हैं? ये सारे पागल हैं क्या? तीस-तीस लाख का चेक एक नया कहलाने वाला प्रकाशक ही तो देता दिखता है, फिर प्रधान जी उस खबर पर लेखक को बधाई देते हैं, ये चमत्कार कैसे हो रहा है? सिर्फ वामपंथी प्रकाशकों के कुछ नए स्टाल तो इसी पुस्तक मेले में दिखे हैं। सम्यक और फॉरवर्ड प्रेस दोनों थे, यानि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स वाले भी थे। सिर्फ स्टाल की भी क्यों बात करें? पूरा-पूरा एक पुस्तक मेला तो कुछ महीने पहले लगा हुआ था और एक हिंदी साहित्य सम्मलेन तो पटना में आज शुरू हो रहा है।
कौन नैरेटिव गढ़ता है कि पुस्तक प्रेमी घट गए? पहले भी आबादी का दस प्रतिशत होंगे और अभी भी हैं। आबादी कम थी तो दस प्रतिशत मतलब अगर लाख लोग होते थे तो आबादी बढ़ते ही उसका दस प्रतिशत भी बढ़ा ही है, घटा तो हरगिज नही है। तो अब सवाल उठता है कि बदला क्या है? किताबें खरीदने वाले किस जादू से घट गए हैं? इसका उत्तर पुस्तक मेले में गया कोई भी सच बोलने का दम रखने वाला दे सकता है। क्या है कि विक्रेता तो हमेशा कम बिक्री ही बोलेगा, यकीन न हो तो अपने शहर-कस्बे के किसी माड़वाड़ी से पूछ लीजिये “धंधा कैसा चल रहा है भाई?” देख लेते हैं क्या जवाब देता है। पुस्तकें खरीदने वालों से पूछते ही आपको उल्टा जवाब मिल जायेगा।
कहीं जो आपके सामने हमारे जैसा मुंहफट पाठक लगा, तो वो पुस्तक मेला दिखा के पूछेगा ये पुस्तक मेला पटना में, मतलब मगध क्षेत्र में ही है न? जरा इसमें मगही प्रकाशकों के स्टाल दिखा दो! चलो वो नहीं दिखा सकते तो बिहार में तो है न? मगही न सही, बज्जिका, अंगिका, या भोजपुरी के प्रकाशक ही दिखा सकता है कोई क्या? मैथिली की दस-बीस पुस्तकें साहित्य अकादमी वाले स्टाल पर थी। पुस्तक मेले में खरीदारों की गिनती तो #समाजवाद और #समाजवादी व्यवस्था ने घटाई है! पाठक के पास मीडिया के मंच नही, वो पलटकर तुम्हारे मिथ्या अभियोगों के उत्तर नही दे पा रहा था, इसलिए “गरीब की जोरू सबकी भौजाई” लोकोक्ति चरितार्थ कर रहे थे? सोशल मीडिया पर पलटकर जवाब दे देगा, तब क्या करोगे?
अगर पाठकों और पुस्तक क्रेताओं की गिनती घटी होती तो ऑनलाइन पुस्तकें उपलब्ध करवाने वाले अमेज़न-फ्लिपकार्ट के बाद ये “पढ़ेगा इंडिया” जैसे प्लेटफ़ॉर्म कहाँ से शुरू हो गए? एक व्हाट्स-एप्प मेसेज पर किताबें घर पंहुचा देने वाला “दिनकर पुस्तकालय” कहाँ से आ गया? इतना सुनते ही #समाजवाद के कोढ़ से ग्रस्त मरीज फिर रोने लगेंगे। कहेंगे ऑनलाइन वाले ही तो किताबों की दुकानों को खा गए जी! तो भईये, अपनी पसंद का सौदा, ढंग के मूल्य पर एक दुकान में अगर नही मिलता, तो तुम स्वयं दूसरी दुकान की ओर बढ़ते हो, या क्रोनी कैपिटलिज्म की मोनोपॉली यानी पूंजीवाद की शोषक एकछत्र व्यवस्था में एक ही दूकान से खरीदने की मजबूरी झेलते हो?
बाकी समय कैपिटलिस्टिक मोनोपॉली को कोसकर ग्राहक की बारी आते ही उसके लिए एक ही व्यवस्था? महाभारत के कर्ण टाइप, धर्म सिर्फ अपनी बारी आने पर याद आता है? जिनको तुम अप्रूव करो, रिकम्मेंड करो, प्रोमोट करो, सिर्फ वही पुस्तकें क्यों पढ़े पाठक? उसका अपना #फ्री_विल, स्वतंत्र विचार क्यों न हों मियाँ? पुस्तकें अभी भी खरीदी जा रही हैं और जमकर पढ़ी भी जा रही हैं। ऐसा न होता तो आज-तक से लेकर इंडिया-टुडे तक रील बना-बना कर बुक रिकमेंडेशन क्यों डाल रहे होते? युवाओं के लिए ही डालते हैं न रील-शॉर्ट्स? अगर किताबें खरीद और पढ़ नहीं रहे होते, सिर्फ वीडियो में “देखते” तो “बुक-समरी” के वीडियो बनाते, रिकमेंडेशन के नहीं।
इसके अलावा पुस्तक प्रेमी एक-दो दिन सिर्फ पुस्तक मेला घूमते हैं और फिर किसी दिन दोपहर में, जब भीड़ कम हो उस दिन आकर पुस्तकों की खरीदारी करते हैं। इस कंज्यूमर बिहेवियर को देखने के लिए न तो रॉकेट साइंस पढ़ना पड़ता है, न 41 वर्ष मेला लगाने का अनुभव चाहिए। दो बार पुस्तक मेले में टहलने गया कोई भी देख लेगा। समाजवादियों की सरकार और प्रशासन ने ठीक पुस्तक मेले वाले वीकएंड पर, जिस शनिवार-रविवार को सबसे अधिक खरीदारी होती, उसी समय “सरस मेला” लगा रखा था। इसकी वजह से पूरे गाँधी मैदान इलाके में जाम लगा रहा और ऑनलाइन तो आर्डर कर ही सकते हैं जैसा कुछ सोचते कई पुस्तक प्रेमी लौट भी गए होंगे। बिक्री कम होने की एक वजह ये भी रही।
बाकी चित्र जो है, उसे प्रतीकात्मक माना जाए क्योंकि इनमें से खरीदी हमने सिर्फ चे गुएवारा वाली “छापामार युद्ध” थी, शेष झोला-झन्डा किसी और का था जिन्हें वापस करने का काम कर दिया गया है।



