ऐसे में जब दिलीप ने देखा कि भाजपा और आरएसएस जाति के औजारों का बेहतर इस्तेमाल कर रही है, तब वह उन्हें पसंद करने लगे, तो इसमें दोष उनका नहीं,उनलोगों का है,जो उन्हें लालू-मुलायम या कांग्रेस का जरखरीद गुलाम बनाए रखने की तमन्ना पाले बैठे थे. ऐसे लोगों को खुद अपना दामन देखना चाहिए.
दिलीप मंडल पत्रकार हैं और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट भी. उनकी अपनी एक दुनिया है. वह मुझ से भी पिछले बीस वर्षों से जुड़े हैं. उनमें जोश है, लड़ने-भिड़ने का साहस भी, और लगातार सक्रिय रहने की क्षमता भी. उनके इन गुणों का मैं प्रशंसक रहा हूँ. लेकिन वैचारिक तौर पर असहमत भी रहा हूँ. उन्होंने एक लाइन पकड़ी हुई है और वह है मंडल आंदोलन से उभरे पिछड़ावाद की वैचारिकी का. कभी आरक्षण, तो कभी सत्ता में भागीदारी या फिर द्विजवादी वर्चस्व का विरोध उनके प्रिय विषय रहे हैं. इसी आधार पर उन्होंने फॉलोवर्स की फ़ौज इकट्ठी की हुई है.
अव्वल तो मुझे भीड़ की भाषा से परहेज है. क्योंकि जब आप भीड़-प्रिय होते हैं, तब आप अपनी नहीं, भीड़ की जुबान बोलने लग जाते हैं. इसलिए ईसा की पहली सदी के रोमन कवि होरेस ने कहा था – ” भीड़ के लिए मत लिखो या बोलो.” भीड़ के लिए लिखना किसी को लोकप्रिय जरूर बनाता है, लेकिन बौद्धिक रूप से दिवालिया भी बनाता है. इसीलिए मैं किसी को बहुत लोकप्रिय देखता हूँ, तो उस व्यक्ति से सतर्क हो जाता हूँ.
इधर हाल के दिनों में जब से सोशल मीडिया का जमाना आया है, ऐसे लोगों की जमात उभरी है,जो भीड़ की भाषा लिखते हैं. उन्हें भीड़ की वाह-वाही चाहिए. दिलीप उनमें गर्दन ऊँची किये दीखते हैं. यानी इस जमात में उनकी साख कुछ अधिक है. लेकिन वह अकेले नहीं हैं. मैंने बताया उनकी एक जमात बन चुकी है. अमूमन ऐसे लोग पहले एक वर्चस्व को झुठलाने या नकारने आये थे. उनकी मुद्रा प्रतिरोधी थी. लेकिन जैसा कि द्वंद्वात्मकता का नियम है,जल्दी ही ये अपना वर्चस्व स्थापित करने में लग गए. इन्हें वैज्ञानिक परिदृष्टि स्थापित करनी थी, किन्तु ये स्वयं नया पाखंड विकसित करने लगे. ब्राह्मणवाद का विरोध करने केलिए दलित या पिछड़ावाद का भोड़ा व्याकरण गढ़ने लगे. विवेक की जगह जिद्द और तर्क की जगह थेथरोलॉजी इनके उपकरण बनते चले गए.
दिलीप से अब उन लोगों की शिकायत है, जो उनके जातिवादी व्याकरण के कल तक प्रशंसक थे. हर चीज को जाति के चश्मे से देखना कुछ लोगों का प्रिय शगल है. राजनीति से बढ़ते हुए यह विमर्श साहित्य तक आया है. गनीमत है विज्ञान तक अभी नहीं आया है. मैं इसे स्वीकार करता हूँ और हमेशा यह बात कहता रहा हूँ कि भारतीय समाज में वर्चस्ववादी संस्कृति है,यह जातिवाद और वर्णवाद के रूप में है, और इस से संघर्ष करने की जरूरत है. कुछ लोग कहते हैं सामाजिक गैरबराबरी की ऐसी व्यवस्था केवल भारत में है. जी नहीं, संसार के दूसरे हिस्सों में भी रही है. सभी मुल्कों में किसी न किसी स्तर पर वर्चस्व की संस्कृति थी और वहां के सामाजिक क्रांतिकारियों ने इसे अपने प्रतिरोध से दूर किया. मसलन फ़्रांसिसी समाज नोबल (सामंत ), क्लर्गी (पुरोहित )और सर्फ(भूमिहीन किसान) में विभाजित था. नोबलऔर क्लर्गी मिहनत नहीं करते थे. बैठे-बिठाए खाने का जुगाड़ बनाए हुए थे. भारतीय समाज में वर्णवादी व्यवस्था में यही था और है. फ्रांस में सबसे ऊपर सामंत, तब पुरोहित और उन दोनों के नीचे उनका भार वहन करने केलिए सर्फ थे. कमोबेस पूरे यूरोपीय समाज में यह व्यवस्था थी. भारतीय समाज में पुरोहित सब से ऊपर, सामंत उस के नीचे और कारीगर, व्यापारी, किसान मजदूर आदि उससे नीचे ( वैश्य और शूद्र रूप में ) थे. मनु ने अपनी संहिता में जातियों को वर्णों में विभाजित किया और उनके लिए मर्यादा तय कर दी. इनका उलंघन सामाजिक अपराध था.
जाति और वर्ण के रिश्तों को समझने की कोशिश कम लोगों ने की. जाति को जमात या वर्ण को वर्ग रूप में देखने की सलाहीयत तो गिने-चुने लोगों में ही रही. मंडल आयोग ने भी सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े सामाजिक समूहों, जिन्हे जाति से अभिहित किया जाता है, का एक वर्ग बनाया. लेकिन इसे भी समझा नहीं गया. जाति के नाम पर उन्माद खड़ा करना आसान होता है. इसलिए लोग इसे आधार बनाते रहे हैं. दिलीप कोई अकेले नहीं हैं.
इधर दिलीप पर आरोप है कि वह समाजवादी खेमे से खफा हैं. यह भी कि वह आरएसएस और भाजपा की तरफ लुढ़क गए हैं ?
यह सच है कि हिंदी क्षेत्र में समाजवादी खेमे के अलग-अलग दल मंडलवादी राजनीति से जुड़े रहे हैं. जब से मंडल दौर आया समाजवादी भूमि सुधार, शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन, दाम बांधो, रोजगार, जाति तोड़ो और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के नारे भूल गए. बिहार में लालू प्रसाद, तो उत्तरप्रदेश में मुलायम यादव और मायावती की पार्टियां जातिवार कोटा पॉलिटिक्स करती रही हैं. स्वाभाविक है दिलीप उनकी तरफदारी करते रहे. लेकिन जब उन्हें यह लगा कि आरएसएस -भाजपा की राजनीति पिछड़ावादी गणित को अधिक प्रश्रय दे रही है, तो इसे उन्होंने रेखांकित किया. इस में देखने की बात यह होनी चाहिए कि दिलीप की बातों में दम है या नहीं. नहीं है तो उसे ख़ारिज होना चाहिए और यदि है, तो उनकी बातें सुनी जानी चाहिए.
दिलीप ने इस बीच देखा कि सामाजिकन्याय का शाइन-बोर्ड लगाए हुए दलों के नेताओं ने क्या किया है. उत्तरप्रदेश में मुलायम और मायावती ने एक दूसरे को अपमानित करने की भरपूर कोशिशें की. मुलायम सिंह की राजनीति के एक तरफ अमर सिंह होते थे, दूसरी तरफ जनेश्वर मिश्र. बीच में उनके अपने परिवार के लोग होते थे. मायावती का आम्बेडकरवाद सतीशचंद्र मिश्रा संभालते रहे. बिहार में लालू प्रसाद की राजनीति में उनके परिवार के अलावे केवल ऊँची जाति के सिपहसलार होते रहे. जनता को मूर्ख बनाने केलिए ये नेता जाति का जिन्न उकसाते रहे. सामाजिकन्याय के एक नए सितारे राहुल गांधी बनना चाहते हैं. उन्हें केंद्रीय हुकूमत में केवल तीन ओबीसी सचिव देख कर खूब गुस्सा आया, लेकिन और कहीं का नहीं, बिहार में ही इस लोक सभा चुनाव में उनकी पार्टी उम्मीदवारों का चयन उदाहरण के तौर पर पर रख सकता हूँ. इनके कुल नौ उम्मीदवारों में दो अनुसूचित संवर्ग से आरक्षित सीटों पर हैं, लेकिन सात सामान्य में पांच ऊँची जातियों से आते हैं. यह क्या है ?
और ऐसे में जब दिलीप ने देखा कि भाजपा और आरएसएस जाति के औजारों का बेहतर इस्तेमाल कर रही है, तब वह उन्हें पसंद करने लगे, तो इसमें दोष उनका नहीं,उनलोगों का है,जो उन्हें लालू-मुलायम या कांग्रेस का जरखरीद गुलाम बनाए रखने की तमन्ना पाले बैठे थे. ऐसे लोगों को खुद अपना दामन देखना चाहिए.
दिलीप ने कभी दावा नहीं किया कि वह मार्क्सवादी हैं, या समाजवादी हैं. उनका दावा केवल पिछड़ावादी होने का ही था या है. और उनका उदाहरण केवल इस बात का सबूत है कि जातिवादी राजनीति की परिणति समान्यतया ऐसी ही होती है. यदि दिलीप मंडल भी यादव या कुर्मी जैसे दबंग पिछड़ी जाति से आते तो बहुत संभव है अपमानित हो कर भी समाजवादी झोंपड़े में ही अपनी धुनी रमाए होते. लेकिन वह खाड़कू तबियत के हैं. चुप नहीं बैठेंगे.
*जो जख्म हुए उजड़ी बगिया जो गीत दिलों में क़त्ल हुए*
*हम हर कतरे हर गुंचे का हर गीत का बदला मांगेगे*
फैज़