भोपाल: झाबुआ के घने जंगलों के बीच बसा था कालापानी गाँव, जहाँ आदिवासी अपनी प्राचीन संस्कृति और रीति-रिवाजों के साथ सदियों से रहते आए थे। गाँव के बीच बड़ा सा पीपल का पेड़ था, जहाँ हर साल मेला लगता, ढोल-मांदल की थाप पर नृत्य होता और पुरखों की कहानियाँ गूँजतीं। लेकिन इस बार मेले में कुछ अलग था। कुछ लोग लबादे पहने, हाथों में क्रॉस लिए चर्च की ओर जाते दिखे। गाँव के बुजुर्ग भैरूसिंह की भौंहें तन गईं।
“ये क्या हो रहा है, अंबरीष?” भैरूसिंह ने अपने दोस्त से पूछा। अंबरीष भावसार, जो गाँव की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने में जुटा था, गहरी साँस लेते हुए बोला, “ये धर्मांतरण का खेल है, भैरू। ये लबादे, ये क्रॉस, ये हमारी संस्कृति नहीं। ये हमें हमारी जड़ों से काटने की साजिश है। हमारे पुरखों ने हजारों सालों तक अपनी पहचान बचाई, और अब ये हमें भटकाने आए हैं।”
गाँव में सुभाष पटेल नाम का युवक भी इस बदलाव से चिंतित था। वह गाँव के युवाओं को इकट्ठा कर समझाने लगा, “देखो, ये चर्च वाले पहले संगठन बनाते हैं, फिर हमें सनातन से अलग करने के लिए जातीय उन्माद फैलाते हैं। कहते हैं, ‘आदिवासी हिन्दू नहीं।’ फिर धीरे-धीरे धर्म बदलवाते हैं। ये सब सुनियोजित है। पहले कावड़ उठाना गलत बताते हैं, लेकिन क्रॉस उठाने को संस्कृति का हिस्सा बना देते हैं।”
गाँव की रीता, जो चर्च के स्कूल में पढ़ती थी, इन बातों से उलझन में थी। एक दिन उसने अंबरीष से पूछा, “काका, क्या हमारी ढोल-नृत्य की परंपरा गलत है?” अंबरीष ने प्यार से समझाया, “बेटी, हमारी संस्कृति हमारी आत्मा है। कावड़, ढोल, हमारे देवी-देवता—ये हमारी जड़ें हैं। क्रॉस हमारी पहचान नहीं, ये हमें बांटने का हथियार है।”
रीता ने ठान लिया कि वह गाँव के बच्चों को पुरखों की कहानियाँ सुनाएगी। उसने मेले में ढोल की थाप पर नृत्य किया और गाँव वालों को एकजुट होने का आह्वान किया। धीरे-धीरे गाँव जागा। चर्च की साजिश बेनकाब हुई, और कालापानी ने अपनी आदिवासियत को फिर से गले लगाया।