बृज खंडेलवाल
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पहले खाली वक्त में अंताक्षरी खेलते थे, अब रील्स और यूट्यूब शॉट्स से फुर्सत नहीं मिल रही। फालतू बैठी गृहणियां मोबाइल पर इस दूषित, खतरनाक कंटेंट की सबसे ज्यादा कंज्यूमर हैं। उधर ओल्ड एंड यंग, “पुरुष सोशल मीडिया निपल को चूसे बगैर छटपटाते रहते हैं।”
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यह बस 15 सेकंड का एक स्टंट होना था — इंस्टाग्राम पर “लाइक” पाने के लिए नहर में छलांग लगाना। लेकिन मध्य प्रदेश के 19 साल के राकेश के लिए यह रील उसकी आख़िरी बन गई। दोस्त वीडियो बनाते रहे, और राकेश डूब गया। वीडियो फिर भी वायरल हो गया।
आज हिंदुस्तान में सोशल मीडिया की यह दीवानगी जानलेवा बन चुकी है। जो प्लेटफ़ॉर्म कभी रचनात्मकता के लिए बने थे, अब वहाँ अश्लीलता, हैरानी और हद से ज़्यादा दिखावे की दौड़ मची है। “वायरल” होने की इस पागलपन ने न सिर्फ़ क़ीमती जानें ली हैं, बल्कि हमारी तहज़ीब और सामाजिक मूल्यों को खोखला कर दिया है।
हाल ही में दिल्ली मेट्रो में एक जोड़े ने ऐसा वीडियो बनाया जिसमें वे सॉफ्ट ड्रिंक को एक-दूसरे के मुँह में डालते दिखे — लोगों को घिन आई, लेकिन व्यूज़ लाखों में पहुंचे।
नोएडा में दो लड़कियों ने “अंग लगा दे” गाने पर रील बनाई, जिसमें वे एक-दूसरे को रंग लगाते और आपत्तिजनक हरकतें करती दिखीं। वीडियो वायरल हुआ, पर साथ में भारी आलोचना भी मिली।
एक इन्फ़्लुएंसर ने एक वीडियो डाला, जिसमें एक लड़का गाड़ी पर नाचता दिखा और पीछे दो लड़कियाँ थीं — नतीजा, ₹33,000 का जुर्माना और सोशल मीडिया पर हंगामा।
तेलंगाना में एक कुल्फ़ी बेचने वाला भी तब गिरफ़्तार हुआ जब उसने ग्राहकों के सामने अश्लील इशारे करते हुए रीलें बनाईं।
और फिर वे हादसे — जो इस पागलपन की असली कीमत दिखाते हैं:
श्वेता सुरवसे, 23, महाराष्ट्र में रील बनाते वक़्त कार समेत 300 फ़ीट गहरी खाई में गिरी और जान चली गई।
छत्तीसगढ़ में एक 20 साल का स्टूडेंट दोस्तों के साथ रील बनाते हुए छत से गिरकर मर गया।
शिवम कुमार, 21, यूपी के खैराडा गाँव में झंडे के डंडे पर उल्टा लटकने का स्टंट करते वक़्त नीचे दब गया।
2023 में ही देशभर की पुलिस ने 100 से ज़्यादा ऐसी मौतों की रिपोर्ट दी — ज़्यादातर 25 साल से कम उम्र के लड़के-लड़कियाँ, जिन्हें चाहिए था बस थोड़ा सा नाम और कुछ “फ़ॉलोअर्स।”
नशे की तरह लाइक्स की भूख निरंतर बढ़ रही है।मनोवैज्ञानिक इसे “डोपामिन इकॉनमी” कहते हैं — जितनी सनसनीख़ेज़ हरकत, उतने ज़्यादा लाइक्स। हर “लाइक” एक नशे जैसा एहसास देता है।
सोशल मीडिया के एल्गोरिदम अब अच्छाई या रचनात्मकता नहीं, बल्कि हैरान कर देने वाले या गंदे कंटेंट को आगे बढ़ाते हैं।
आगरा में कुछ लड़कों ने बुज़ुर्ग आदमी का मज़ाक उड़ाते हुए रील बनाई। दिल्ली में एक औरत ने भिखारी की नकल की — वीडियो को लाखों ने देखा, कुछ ने ही विरोध किया। आज मज़ाक के नाम पर ज़िल्लत और बेइज़्ज़ती को भी मनोरंजन मान लिया गया है।
और सिर्फ़ अश्लीलता नहीं — सोशल मीडिया पर ग़लत जानकारी (मिसइनफ़ॉर्मेशन) सबसे तेज़ फैलती है। किसी “चमत्कारी इलाज” या “झटपट अमीरी के नुस्खे” वाला वीडियो कुछ ही घंटों में लाखों लोगों तक पहुँच जाता है। एक वायरल वीडियो में “डायबिटीज़ का देसी इलाज” बताया गया — दस मिलियन लोगों ने देखा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
डिजिटल थिएटर बिना किसी निगरानी के बंदर के हाथ स्तर बन रहे हैं। हर फ़िल्म को रिलीज़ से पहले सेंसर बोर्ड (CBFC) की मंज़ूरी चाहिए। मगर सोशल मीडिया पर कुछ भी, कभी भी पोस्ट किया जा सकता है — कोई रोक नहीं, कोई जवाबदेही नहीं।
15 सेकंड की एक रील करोड़ों लोगों की सोच को बदल सकती है — और कोई नहीं पूछता कि ये सही है या नहीं।
चीन ने जब ऐसी ही समस्या देखी, तो तुरंत क़दम उठाया। अब वहाँ जो भी स्वास्थ्य, फ़ाइनेंस, क़ानून या शिक्षा पर कंटेंट डालना चाहता है, उसे अपनी क़ाबिलियत साबित करनी पड़ती है। सज़ा भारी नहीं, पर संदेश साफ़ है — ज़िम्मेदारी के बिना असर नहीं।
भारत में भी आईटी नियम 2021 हैं, जो सरकार को आपत्तिजनक कंटेंट हटाने का अधिकार देते हैं, मगर तब जब कोई शिकायत करे। तब तक वीडियो लाखों बार देखा जा चुका होता है।
भारत को सेंसरशिप नहीं, बल्कि जवाबदेही चाहिए।
सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत एक “सोशल मीडिया मानक परिषद” (Social Media Standards Council) बनाई जा सकती है, जो:
हेल्थ, फ़ाइनेंस या क़ानून से जुड़े कंटेंट डालने वालों की जाँच करे,
अश्लील या हिंसक वीडियो को चिन्हित कर नीचे करे,
बार-बार ग़लत जानकारी फैलाने वालों को सस्पेंड करे,
और सच्चे, जिम्मेदार क्रिएटर्स को बढ़ावा दे।
जैसे फ़िल्म सेंसर बोर्ड सिनेमाघरों में मर्यादा बनाए रखता है, वैसे ही सोशल मीडिया के लिए भी एक हल्की लेकिन असरदार निगरानी ज़रूरी है — ताकि आज़ादी बनी रहे, पर अराजकता नहीं फैले।
हर ख़तरनाक रील के पीछे एक ख़ालीपन है — देखा जाने की, सुना जाने की, क़द्र पाने की तलब।
नौकरी, मौके और उम्मीदें कम होती जा रही हैं। ऐसे में सोशल मीडिया एक झूठा सुकून देता है — कुछ सेकंड की शोहरत, थोड़ी सी पहचान। मगर यह पहचान अक्सर ज़िल्लत, मौत या गिरावट में बदल जाती है।
कितने और राकेश मरेंगे कुछ “व्यूज़” के लिए?
अगर हमने अब भी रोक नहीं लगाई, तो रील लाइफ़ हमारी असली ज़िंदगी को निगल जाएगी।



