हाल के दिनों में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा दलित नेता जीतन राम माझी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियाँ और अभद्र भाषा का उपयोग चर्चा का विषय बना हुआ है। सोशल मीडिया पर माझी जी को गालियाँ देना और उनके लिए ‘अंड-बंड’ शब्दों का इस्तेमाल करना न केवल निंदनीय है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि दलित समुदाय के प्रति नफरत की भावना राजद के कुछ कार्यकर्ताओं में मौजूद है। ये कार्यकर्ता भले ही मोहल्ला, नगर, जिला स्तर के हों, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह नफरत ऊपरी नेतृत्व से प्रेरित है?
लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार की छवि कभी गरीबों और मजलूमों के मसीहा की थी, लेकिन आज उनकी संपत्ति 100 करोड़ रुपये से अधिक की हो चुकी है। यह परिवार अब उस सामाजिक-आर्थिक स्थिति में नहीं रहा, जो कभी उनकी पहचान थी। तेजस्वी यादव के बच्चे अब विदेशों में पढ़ाई करेंगे, जबकि बिहार के दलितों और गरीबों के लिए उनके द्वारा प्रस्तावित “चरवाहा विद्यालय” जैसे विचार केवल दिखावटी लगते हैं। यह दोहरा मापदंड दलित समुदाय के प्रति उनकी वास्तविक सोच पर सवाल उठाता है।
इस नफरत की झलक उस घटना में भी दिखाई दी, जब लालू प्रसाद ने डॉ. बी.आर. आंबेडकर की तस्वीर को अपने पैरों के पास रखा। यह दृश्य दलित समुदाय के लिए अत्यंत अपमानजनक और पीड़ादायक था। आंबेडकर, जिन्हें बाबा साहब के रूप में सम्मानित किया जाता है, दलितों के अधिकारों और सम्मान के प्रतीक हैं। लेकिन राजद कार्यकर्ताओं द्वारा यह प्रचार किया जाना कि बिहार के दलितों को मुक्ति लालू प्रसाद ने दिलाई, न कि बाबा साहब ने, न केवल ऐतिहासिक तथ्यों का अपमान है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि दलितों के प्रति उनकी मानसिकता कितनी संकुचित है।
यह विडंबना है कि एक ओर राजद सामाजिक न्याय की बात करता है, वहीं दूसरी ओर उसके कार्यकर्ताओं का व्यवहार दलित नेताओं और प्रतीकों के प्रति अपमानजनक है। यह नफरत और दोहरा रवैया न केवल दलित समुदाय को आहत करता है, बल्कि बिहार की सामाजिक एकता को भी कमजोर करता है। राजद नेतृत्व को इस तरह के व्यवहार पर अंकुश लगाना होगा और दलित समुदाय के प्रति सम्मान सुनिश्चित करना होगा, ताकि सामाजिक समरसता कायम रह सके।