प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
जो बातें सदा बहुत सरल और स्पष्ट थी, आधुनिकता के नाम से अर्धशिक्षित लोगों के द्वारा उन बातों को दुरूह और जटिल कर दिया गया है, धुंध फैला दी गई है। उदाहरण के लिए लेखक और लेखन की बात।
लेखक वह है जो लेखन करता है। कोई भी लेखक वह लेखन करता है जो उसकी बौद्धिक सामर्थ्य, बौद्धिक प्रशिक्षण, संवेदना की संरचना, दृश्यजगत को देखने की दृष्टि विशेष और परिवेश से प्राप्त दृष्टि, शिक्षा, भाषा, पदावली, विम्ब, उपमाये, रूपक, उपमान, वर्णन शैलियां, उक्तियां, मुहावरें और सौंदर्य संबंधी बोध होगा। जगत भवसागर है अतः भावसागर भी है, बोध सागर भी है, भाषा सागर भी है, पदावली सागर भी है और विराट वैविध्य से भरपूर है। अतः लेखक भी विविध प्रकार के होगें, यह स्वाभविक है।
इनमें से जो प्रकार जिस भावक या सहृदय समुदाय को भायेगा या आलोकित करेगा, वह समुदाय उस लेखक को अच्छा या श्रेष्ठ मानेगा।
प्रत्येक लेखन पाठक में कुछ बोध और भाव जगाता है। ये भाव कुछ प्रभाव और संवेग तथा रस जगाते है। हमारे यहाँ इसके सार्वभौम वर्ग या भेद या रूप बताये गये – श्रृंगार, वीर, करूण, हास्य, अदभुत, बीभत्स, रौद्र, शांत आदि। बाद में विद्वानों ने इनमें एक दो और जोड़े-घटाये। प्रत्येक रस की प्रस्तुति और प्रभाव गहराई और प्रबलता के भेद से भी विश्लेषित किये गये। इस प्रकार भाव, संवेदना, सराहना और रसानुभूति का एक विराट संसार सदा भारतीय समाज को ज्ञात रहा। वर्णन या रचना की विलक्षणता और भावक या पाठक या सहृदय के मन को छू पाने, विभोर कर पाने या स्पन्दित कर पाने की विपुल चुनौती और अवसर समाज में सदा उपस्थित रहते है। इस तरह लेखन का विराट संसार और लेखकों का विशाल समुदाय अपने लिए अवसर और आदर पाता रहता है।
विषय की विविधता, प्रत्येक विषय के अंतर्गत वस्तु की विविधता, शिल्पों की विविधता, वर्णन की विशेषता की विविधता और प्रभावों की विविधता का भरा पूरा संसार जीवन्त समाज में हिलोरें मारता रहता है।
दरिद्र और दीन-हीन समुदायों में जब विगत 300 वर्षों में पहली बार चर्च की भयंकर जकड़न से बाहर भी लिख सकने की स्थिति बनी तो उसमें चर्च के विरोध में राजनीति की मुख्य भूमिका रही। पुराने अभिजनों ने अपने साथी पादरियों की प्रतिस्पर्था में यह स्थिति उत्पन्न की। इस लिए शीघ्र ही वहां के लेखक राजनैतिक वर्गीकरण को कसौटी बनाकर सोचने में गौरव का अनुभव करने लगे। क्योंकि उनके लिए यह जकडन से मुक्ति का दौर था।
भारत में बौद्धिक रूप से दरिद्र और आत्म-गौरव से रहित तथा राजनेताओं से आतंकित और साथ ही उनकी प्रभुता पर अनुरक्त लोगों ने यूरोपीय मतवादों की जूठन पर जी रहे राजनेताओं की नकल में राजनैतिक मतवादों के वर्गीकरण को दासवत अपना लिया। वाम-दक्षिण जैसे विचित्र और दयनीय विशेषण इसी दास बुद्धि की उपज हैं। लेखकों में इस दासता के उदय का अर्थ है उनका विराट भारतीय समाज की चेतना से विच्छेद और स्वयं स्वीकृत परायापन।