— निलेश देसाई
जलवायु परिवर्तन आज की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। झाबुआ जैसे आदिवासी अंचलों में यह संकट और गहरा है — सूखते जल स्रोत, घटती बारिश और बढ़ती गर्मी ने जीवन और आजीविका को कठिन बना दिया है। परंतु इस संकट का समाधान कहीं बाहर नहीं, बल्कि यहीं मौजूद है — हमारे आदिवासी समुदायों की लोक परंपराओं और प्रकृति आधारित जीवनशैली में।
झाबुआ: संकट की ज़मीन पर समाधान की परंपरा
मध्य प्रदेश का झाबुआ जिला अपने पहाड़ी भूगोल, कम वर्षा और मिट्टी कटाव जैसी समस्याओं के कारण वर्षों से जल संकट से जूझता रहा है। जलवायु परिवर्तन ने इस स्थिति को और बिगाड़ा है। कुएं, नाले और बावड़ियाँ अब पहले जैसे नहीं बचे। भूजल का गिरता स्तर और रासायनिक खेती ने मिट्टी की सेहत और जल पुनर्भरण पर असर डाला है।
लेकिन आदिवासी समुदायों ने हार नहीं मानी। भील और भिलाला समाज ने अपनी पुरानी लोक परंपराओं को बचाया, जिनमें जल, जंगल और जमीन के संरक्षण की गहरी समझ है।
‘अड़जी-पड़जी’ से ‘समूह प्रयास’ तक
झाबुआ के गांवों में सदियों पुरानी ‘अड़जी-पड़जी’ परंपरा आज भी जीवित है — जिसमें गांववाले मिलकर किसी सार्वजनिक काम में श्रमदान करते हैं। जलस्रोतों की सफाई, बावड़ियों की मरम्मत, मिट्टी-बचाव की मेड़बंदी — ये सब काम सामूहिक श्रम से किए जाते रहे हैं।
यह परंपरा आज जलवायु अनुकूलन का आधार बन रही है।
रूपापाड़ा: परंपरा और नवाचार का मिलन
रूपापाड़ा गांव इसका सशक्त उदाहरण है। सम्पर्क संस्था के सहयोग से गांववालों ने एक बंजर चरागाह भूमि को हरे-भरे जंगल में बदला। 50 एकड़ जमीन पर 30,000 पेड़, 20,000 चारा पौधे, कंटूर ट्रेंच, चेक डैम और डबरियां बनाई गईं।
यह सब ‘हलमा’ और ‘अड़जी-पड़जी’ जैसे परंपरागत श्रम आयोजन के जरिए हुआ। गांव ने अपना ग्रामकोष बनाया — जिससे जल संरचनाओं का रखरखाव संभव हुआ।
महिलाएं बनीं जलवायु योद्धा
झाबुआ की महिलाएं केवल घरेलू कार्यों तक सीमित नहीं रहीं। 617 महिला समूहों ने जल, जंगल और जमीन को बचाने में अग्रणी भूमिका निभाई।
उन्होंने शराब, दहेज और बाल विवाह के खिलाफ मुहिम चलाई।
जैविक खेती को अपनाया, जिससे पानी की बचत हुई और मिट्टी की उर्वरता सुधरी।
सामुदायिक बागवानी से भोजन और आमदनी दोनों सुनिश्चित हुईं।
परंपराओं और विज्ञान का समन्वय
सम्पर्क संस्था ने इस बदलाव में स्थानीय परंपराओं और आधुनिक विज्ञान को मिलाकर काम किया। चेक डैम और ट्रेंच की डिजाइन स्थानीय भूगोल के अनुसार बनाई गई। स्थानीय पेड़ों जैसे नीम और बबूल को प्राथमिकता दी गई, जिससे जल-संरक्षण और मिट्टी बचाव साथ-साथ हुआ।
नीति निर्माताओं के लिए संदेश
झाबुआ का अनुभव बताता है कि जलवायु नीति बनाते समय आदिवासी ज्ञान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कुछ सुझाव:
मनरेगा में परंपरागत श्रम परंपराओं को बढ़ावा मिले
ग्रामसभाओं को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी दी जाए
जैविक और मिश्रित खेती को सरकारी समर्थन मिले
परंपराओं और तकनीकों पर संयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू हों
निष्कर्ष
झाबुआ के आदिवासी समुदायों ने यह सिखाया है कि जलवायु परिवर्तन का स्थायी समाधान सामूहिक चेतना, परंपरा, और प्रकृति के साथ संतुलन में है। जब गांव अपनी विरासत को सहेजते हैं और विज्ञान से उसे जोड़ते हैं, तो वह धरती को फिर से सांस लेने लायक बना सकते हैं।
आज आवश्यकता है कि हम आदिवासी लोक ज्ञान को सम्मान दें, उसे नीति का हिस्सा बनाएं, और इस संकट को अवसर में बदलें।