माधव संगति सरनी तुम्हारी

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मनोज श्रीवास्तव

अपना विभाजक एजेंडा चलाने के लिए लोग संत रैदास का भी उपयोग कर लेते हैं। एक सज्जन ने तो यह सैद्धांतिकी प्रतिपादित की कि रैदास निर्गुण होने के लिए इस कारण बाध्य हुए क्योंकि उन्हें मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं थी। एक कहते हैं कि रैदास आजीवक थे। एक उन्हें निर्वाण संप्रदाय का बताते हैं। एक उन्हें तुलसीदास की तुलना में देखकर तुलसी-विरोध की अपनी खुजली मिटाते हैं। एक के हिसाब से रैदास के राम निर्गुण राम थे, सगुण को उन्होंने स्वीकारा ही नहीं। एक तो उन्हें दलित धर्म का पैरोकार ही मानते हैं। एक उन्हें वेद के विरोध में खड़ा करते हैं :

इनमें से कोई संत नहीं है, इसलिए रैदास की ऊँचाई तक पहुँचना इनमें से किसी को संभव नहीं है। सबको अपनी अपनी राजनीति चलाना है और भिन्नता का एक dialectics तैयार करना है।

पर यदि रैदास को सगुण निर्गुण का आवश्यक तौर पर विरोधी लग रहा होता क्योंकि निर्गुण संत मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते थे तो इस सम्पूर्ण कथित रूप से निर्गुण साहित्य में ऐसी किसी घटना का कोई तो विवरण होता। लेकिन कुछ लोगों की वैचारिक पूर्वांधता उन्हें बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के ऐसी बकवास करने की छूट दे देती है। ये रैदास ही थे जो सगुण कृष्ण की यों याद कर रहे थे:

माधौ संगति सरनि तुम्हारी।
जगजीवन कृश्न मुरारी।।
तुम्ह मखतूल गुलाल चत्रभुज, मैं बपुरौ जस कीरा।
पीवत डाल फूल रस अंमृत, सहजि भई मति हीरा।

अब यह माधव, यह कृष्ण मुरारी कौन थे? और ये बनवारी :

ऐसा ध्यान धरूँ बनवारी।
मन पवन दिढ सुषमन नारी।।

और यहां माधव के हवाले से वेद की बात भी रैदास ही कह रहे :

पांवन जस माधो तोरा।
तुम्ह दारन अघ मोचन मोरा।।
कीरति तेरी पाप बिनासै, लोक बेद यूँ गावै।
जो हम पाप करत नहीं भूधर, तौ तू कहा नसावै।।

और गोविन्द से ही उनकी समाधि लगती है और उसी में उन्हें शिवरूप भी ध्यान आता है :

गोबिंदे तुम्हारे से समाधि लागी।
उर भुअंग भस्म अंग संतत बैरागी।।
जाके तीन नैन अमृत बैन, सीसा जटाधारी, कोटि कलप ध्यान अलप, मदन अंतकारी।।
जाके लील बरन अकल ब्रह्म, गले रुण्डमाला, प्रेम मगन फिरता नगन, संग सखा बाला।।
अस महेश बिकट भेस, अजहूँ दरस आसा, कैसे राम मिलौं तोहि, गावै रैदासा।।

और राम यदि निर्गुण थे तो उनके वे चरण कौन से थे जिसके लिए रैदास लिख रहे थे:

तुझहि चरन अरबिंद भँवर मनु।
पान करत पाइओ, पाइओ रामईआ धनु।

और रैदास के राम यदि निर्गुण थे तो वे राजा कैसे थे :

रांम राइ का कहिये यहु ऐसी।
जन की जांनत हौ जैसी तैसी।

या फिर ऐसे :

न बीचारिओ राजा राम को रसु।
जिह रस अनरस बीसरि जाही।।

और ये कैसा निर्गुण है जो सारी सगुण संज्ञाएँ प्रयुक्त करता है:

राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
कांम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।

ही नहीं बल्कि विष्णु के अवतार भी :

एक अधार नांम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।

या :

नरहरि प्रगटसि नां हो प्रगटसि नां।
दीनानाथ दयाल नरहरि।।

ये रैदास को जिस दलित धर्म का पैरोकार बताते हैं, उसकी प्रतिज्ञाओं में तो राम और कृष्ण को नहीं मानना था। उन प्रतिज्ञाओं में ये कब कहा गया था कि निर्गुण राम को मानना है और सगुण राम को नहीं मानना है।

जब रैदास यह कहते हैं कि

तब रांम रांम कहि गावैगा।
ररंकार रहित सबहिन थैं, अंतरि मेल मिलावैगा।

तो वे उन तुलसीदास से कहाँ भिन्न हैं जो कहते हैं :

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

और राजा राम की सेवा न कर पाने का वह मूर्खतापूर्ण गर्व रैदास में नहीं है जो आजकल के इन बुद्धिरिपुओं में दिखता है, बल्कि उसका खेद है :

जाती ओछा पाती ओछा, ओछा जनम हमारा।
राजा राम की सेव न कीनी, कहि रैदास चमारा॥

जब वे यह कह रहे थे कि :

मन हीं पूजा मन हीं धूप, मन ही सेऊँ सहज सरूप।।
पूजा अरचा न जांनूं रांम तेरी, कहै रैदास कवन गति मेरी।

तो वे ऐसी कोई गैरब्राह्मणवादी बात नहीं कह रहे थे। मानसपूजा भारत में बहुत पुराने समय से मान्य चली आई है। हर पूजा के अंत में ब्राह्मणादि हिन्दू ‘आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनं/ पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वर’ कहता ही कहता है।

और जैसे रैदास कलिकाल का वर्णन करते हैं, तुलसी भी करते हैं।

बल्कि रैदास कुछ मामलों में कबीर की याद दिलाते हैं:

रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥
या

देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥

पर रैदास के ऐसे पद याद करने में भीम-मीम समीकरण में बाधा न आ जाये, इसका एहतियात हमारे बुद्धिरिपु बराबर रखते हैं। रैदास का उस काल में यह कहना धर्मांतरणकारियों को चुनौती था :

जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥

और धर्मरक्षा का भाव रैदास में किसी से कम नहीं है:

रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥

ध्यान दें कि रैदास किसी दलित धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। वे उसी धर्म की बात कर रहे हैं जिसके दश लक्षण मनु ने गिनाए थे। और दलित धर्म जैसी किसी मनमानी की जगह वे तो यह कह रहे थे कि : वेद धर्म छोडूं नहीं चाहे गले चले कटार।

यह भी कि : वेद धर्म छोडूं नही कोसिस करो हजार /तिल-तिल काटो चाहि गोदो अंग कटार

और यह कोई निर्वाण संप्रदाय या आजीवक संप्रदाय की मनगढ़ंत नहीं थी। वे वैदिक धर्म के आगे किसी को नहीं गिनते थे :

वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर क्यों छोड़ इसे पढ़ लूं झूठ कुरान

वर्ण व्यवस्था को वे समझते थे कि वह कर्ममूलक है, जन्मना नहीं है:

बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥

यही स्टैंड मनु का था और यही गीता का।

संत रैदास को जो आदर मिला वह इतना था कि स्वयं राजपूतानी मीरा ने उन्हें अपना गुरु बनाया और यहाँ आधुनिक समय की संकीर्णताएँ उन पर थोपी जा रही हैं।आज के मान से तो उनकी ये पंक्तियाँ तो खासी ब्राह्मणवादी हैं :

सकल सुमृति जिती, संत मिति कहैं तिती, पाइ नहीं पनंग मति परंम बेता।
ब्रह्म रिषि नारदा स्यंभ सनिकादिका, राम रमि रमत गये परितेता।।

यदि रैदास यह कहते हैं कि ‘बरन रहित कहै जे रांम, सो भगता केवल निहकांम’

तो तुलसी के राम भी जात-पाँत नहीं मानते। सिर्फ़ भक्ति के नाते को मानते हैं:

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

तुलसी भी कहते हैं:

स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥

और इसलिए यदि रैदास यह कहते थे कि:

माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥

तो दुष्ट ब्राह्मण से तुलसी भी कोई सहानुभूति नहीं करते :

सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना।
तजि निज धरमु बिषय लयलीना।

या

विप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी।

वे रैदास अपने समय की पराधीनताओं की प्रकृति को पहचानते थे:

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥

और तुलसी भी ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’ की त्रासदी जानते थे। पर आज जिन्होंने भारत के बाल्कनाइजेशन के विदेशी विचार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरह से अपना लिया है वे पराधीनमनस्क लोग स्वतंत्र चेतना के रैदास के शुभचिंतक कभी हो ही नहीं सकते।

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