सुरिंदर बांसल
हमें आपदा के समय निंदा सिर्फ़ अपने ग़ैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार की करनी चाहिए, क्योंकि हम सब अपने दैनिक जीवन में अपने घर, परिवेश से लेकर अपने कार्यस्थलों तक कहीं भी ज़िम्मेदार नागरिक नहीं हैं। सरकारों और प्रशासन में भी तो हमारे ही गली-मोहल्लों के ही तो लोग हैं, सारी उम्मीदें उन्हीं से क्यों? अगर हमारे गली मोहल्ले गंदे हैं तो किसके कारण, अगर हमारा परिवेश हर – भरा और स्वच्छ नहीं तो किसके कारण, अगर हमारे पारंपरिक जल स्रोत मिट गये, तो ज़िम्मेदार कौन, जल निकासियों पर अवैध अतिक्रमणों का ज़िम्मेदार कौन, क्या सिर्फ़ सरकारें? नहीं, हरग़िज़ नहीं। हमारे हरित , स्वच्छ परिवेश की सारी ज़िम्मेदारी मात्र हमारी है।
नदी की याददाश्त..
अक्सर बुज़ुर्ग कहते थे..
“नदी के पास घर मत बसाओ बेटा,”
वो अपना रास्ता कभी नहीं भूलती।
आज की पीढ़ी कहे …
“अब वो पुरानी बात है दादाजी,
अब तो रिवर-व्यू ही बिकते हैं,
लॉन में झूले, और सेल्फी कॉर्नर भी होते हैं “
बुज़ुर्ग फिर चुप हो गए…
शायद सोच लिया होगा..
जब तजुर्बा न बिकता हो,
तो क्यों ज़ुबान थकाई जाए जी ?
हमने नदियों को पत्थर पहनाए,
रेत को सीमेंट से पाट दिया,
जलधाराओं को गूगल मैप से हटाया,
और नाम दे दिया
“रिवर व्यू… व्यास व्यू…”
फिर एक दिन घनघोर बारिश ने
पुरानी फाइलें खोल दीं..
नदी आई ,न नाराज़, न हिंसक…
बस याद दिलाने कि
“मैं तो यहीं थी,
तुम्हीं भूले हो जी …”
अब दीवारें गिरीं, छतें बहीं,
लोग कहने लगे..
“हाय लुट गए, सब तबाह हो गया!”
सरकार प्रशासन को दुहाई देते नहीं थकते
कुछ राजनीति गरमाते नहीं भूलते ।
इधर..
नदी मुस्कराई..और धीरे से बोली..
“मैं तो वही कर रही हूँ,
जो तुम्हारे बुज़ुर्ग बताते थे।
तुम्हीं थे जो भूल बैठे,
कि मैं मेहमान नहीं,
मालकिन हूँ इस घाटी की…”
अब भी वक्त है, नई पीढ़ी की सोच
नदी को दुश्मन मत बनाओ,
वो जीवन है, उसके पाटों में अवैध बिल्डिंगें मत उठाओ, अपने, गांव, क़स्बे , शहरों के अतिक्रमित तालाबों, कुओं, बावड़ियों या अन्य जल स्रोतों को खोज खोज कर फिर से पुर्नजीवित करने ज़िम्मा उठाओ, बरसाती नदियों के किनारे सघन वृक्षारोपण अभियान चलाओ, क्योंकि बाढ़ें तो भविष्य में आएंगी। नदियों को उसकी अविरलता में बहने दो…
धराली, उत्तराखंड, मनाली, पंजाब ने इसे साबित भी कर दिया कि विकास के नाम पर प्रकृति को चिढ़ाएंगे तो भविष्य में भी यही होगा ।