मखाना की छाया: बिहार के तालाबों में छिपी कहानी

makhana_mithila.jpg.webp

पूर्णिया (बिहार) : बिहार के पूर्णिया जिले के श्रीनगर गांव में, कोसी नदी की बाढ़ भरी धारा सालाना अपना कहर बरपाती है। चिन्मयानंद सिंह, एक युवा किसान, जो कभी पत्रकारिता की पढ़ाई कर शहर की चकाचौंध में खो जाना चाहते थे, आज तालाब के किनारे खड़े हैं। उनके हाथों में कीचड़ से सने हुए मखाने की गुड़िया हैं—वह कांटेदार बीज जो दुनिया भर में ‘सुपरफूड’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन चिन्मयानंद के चेहरे पर मुस्कान कम, चिंता ज्यादा है। “मौसम की मार ने धान-मक्का की फसलें तबाह कर दीं,” वे कहते हैं, “लेकिन मखाना ने उम्मीद की किरण दिखाई। फिर भी, यह खेती इतनी आसान नहीं।”

यह कहानी 2021 की एक शोध रिपोर्ट से प्रेरित है, जहां ‘मॉन्गाबे इंडिया’ के पत्रकारों ने कोसी-सीमांचल क्षेत्र के 25-30 हजार हेक्टेयर मखाना खेतों का दौरा किया। चिन्मयानंद की तरह, यहां के हजारों किसान मौसम की अनिश्चितताओं से जूझ रहे हैं। बाढ़ आती है तो फसल डूब जाती है, सूखा पड़ता है तो पानी का प्रबंधन असंभव। बिहार सरकार ने 1.04 लाख हेक्टेयर बर्बाद भूमि को मखाना के लिए उपयुक्त बनाने की योजना बनाई, लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। चिन्मयानंद बताते हैं, “हम खेतों में मेढ़ बनाते हैं ताकि 6-9 इंच पानी जमा रहे, लेकिन तूफान आते ही पत्तियां उलट जाती हैं। इन्हें सीधा करने में घंटों लग जाते हैं।” शोध के अनुसार, मखाना जलवायु-प्रतिरोधी है—इसकी पत्तियां तूफान में मुड़ जाती हैं लेकिन टूटती नहीं—फिर भी, बाढ़ से 20-25% फसल नष्ट हो जाती है।

चिन्मयानंद की कहानी शुरू होती है 2018 से, जब उन्होंने 5 एकड़ जमीन पर मखाना की खेती आजमाई। पारंपरिक रूप से, मखाना तालाबों में उगाया जाता है, जहां किसान कमर तक पानी में उतरकर कटाई करते हैं। “फरवरी-मार्च में बीज बोते हैं, जुलाई तक फूल खिलते हैं, और सितंबर-अक्टूबर में गुड़िया तोड़ते हैं,” वे वर्णन करते हैं। लेकिन कटाई की प्रक्रिया श्रमसाध्य है। सुबह 4 बजे से शाम तक, कीचड़ भरे पानी में खड़े होकर हाथों से बीज चुनना पड़ता है। कांटे हाथ चुभोते हैं, संक्रमण फैलता है, और सांस लेना मुश्किल। एक शोध अध्ययन, ‘इंटीग्रेटेड एक्वाकल्चर विद फॉक्स नट’ (2017, रिसर्चगेट), बताता है कि उत्तर बिहार के किसान मल्लाह समुदाय से हैं, जो भूमिहीन हैं और किराए की जमीन पर 10-20 हजार रुपये प्रति बीघा देते हैं। चिन्मयानंद कहते हैं, “हम 8-10 घंटे पानी में डूबे रहते हैं। कई बार दुर्घटनाएं होती हैं—एक साथी की मौत हो गई थी। कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं।”

प्रसंस्करण की चुनौतियां और भी कठिन हैं। गुड़िया सुखाने, छंटाई, भूनने और फोड़ने का काम हाथों से होता है। लकड़ी के हथौड़े से बीज फोड़ते समय हाथ जल जाते हैं, धूल से सांस की बीमारियां होती हैं। चिन्मयानंद ने बताया, “एक किलो गुड़िया से 400 ग्राम लावा बनता है। हमें 300-500 रुपये प्रति क्विंटल मिलता है, जबकि बाजार में 5-6 हजार रुपये प्रति क्विंटल बिकता है।” यह असमानता एक 2025 की रिपोर्ट ‘ए बिलियन-डॉलर ग्लोबल मार्केट फॉर न्यूट्रिएंट-रिच फॉक्स नट्स’ में उजागर हुई, जहां कहा गया कि बिहार 90% वैश्विक उत्पादन करता है, लेकिन बिचौलिए 80-90% मुनाफा ले जाते हैं। कोई स्थानीय प्रसंस्करण इकाई नहीं, कोई कोल्ड स्टोरेज नहीं—कच्चा माल बाहर बिकता है। कीमतों में उतार-चढ़ाव से किसान कर्ज के जाल में फंसते हैं। चिन्मयानंद ने 2-3 लाख उधार लेकर शुरू किया, लेकिन पिछले साल फसल बर्बाद होने से 1.5 लाख का घाटा हुआ।

फिर भी, आशा की किरण है। राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र (ICAR), दरभंगा के डॉ. मनोज कुमार की शोध ने बदलाव लाया। उनकी ‘शैलो वॉटर फार्मिंग’ तकनीक से तालाबों के बजाय खेतों में 1-2 फुट पानी में खेती संभव हुई। एक केस स्टडी में, पूर्णिया के धीरेंद्र ने 48 क्विंटल फसल ली, जिससे 2.58 लाख का शुद्ध लाभ हुआ—धान की तुलना में 4 गुना ज्यादा। डॉ. कुमार ने बाढ़-प्रतिरोधी किस्में जैसे ‘स्वर्ण वैदेही’ विकसित कीं, जो उत्पादकता 1.7 टन से बढ़ाकर 3.5 टन प्रति हेक्टेयर कर सकती हैं। लेकिन चुनौतियां बरकरार हैं: बढ़ते तापमान से पौधे प्रभावित, और केवल 2% मखाना अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरता है।

2025 के बजट में मखाना बोर्ड की घोषणा हुई—100 करोड़ की योजना से MSP, FPO और मशीनीकरण का वादा। चिन्मयानंद जैसे किसान उम्मीद बांधे हैं। “अगर बोर्ड बना, तो बिचौलियों का राज खत्म होगा। हमारा ‘मिथिला मखाना’ GI टैग के साथ वैश्विक बाजार में चमकेगा।” लेकिन फिलहाल, वे तालाब में उतरते हैं, कांटों से जूझते हैं, और सपने बुनते हैं—एक ऐसी फसल की, जो न केवल पोषण दे, बल्कि सम्मान भी।

यह कहानी बिहार के 50-60 हजार किसानों की वास्तविकता को दर्शाती है। मखाना ‘ब्लैक गोल्ड’ है, लेकिन किसानों की थाली अभी भी खाली। क्या बोर्ड यह बदलाव लाएगा? समय बताएगा।

Share this post

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top