दरभंगा (बिहार) मखाना, जिसे फॉक्स नट या गोर्गोन नट भी कहा जाता है, एक जलजनित फसल है जो बिहार की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। यह सुपरफूड के रूप में वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय हो रहा है, लेकिन इसके उत्पादन का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बिहार से आता है। मिथिला, कोसी और सीमांचल क्षेत्रों में इसकी खेती सदियों से चली आ रही है। प्राचीन ग्रंथों में इसे ‘महान फल’ कहा गया है, जो विटामिन, मिनरल्स और फाइबर से भरपूर होता है। बिहार सरकार की ‘मखाना विकास योजना’ और केंद्र सरकार के ‘वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट’ स्कीम के तहत इसे बढ़ावा मिला है। फिर भी, बिहार के किसान इसकी खेती में भारी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
मखाना की खेती: प्रक्रिया और संभावनाएं
मखाना की खेती मुख्य रूप से जल-आधारित होती है, जो तालाबों, पोखरों या जलभराव वाले खेतों में की जाती है। यह ईउरियाल फेरॉक्स नामक जलकुंभी पौधे से प्राप्त होता है। बिहार के मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, कटिहार, पूर्णिया, सुपौल और अररिया जैसे जिलों में 40-45 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में इसकी खेती होती है। पिछले नौ वर्षों में खेती का क्षेत्र 171 प्रतिशत और उत्पादन 152 प्रतिशत बढ़ा है। एक हेक्टेयर में औसतन 21 क्विंटल बीज (गुड़िया) प्राप्त होता है, जो प्रसंस्करण के बाद 8-10 क्विंटल लावा (पॉप्ड मखाना) बनता है।
खेती की प्रक्रिया जटिल और श्रमसाध्य है। फरवरी-मार्च में बीज रोपाई की जाती है। तालाब या खेत में 6-9 इंच पानी जमा रखा जाता है। खरपतवार हटाने के बाद बीज बोए जाते हैं। जुलाई-अगस्त में फूल आते हैं, जो सितंबर-अक्टूबर में बीजों में बदल जाते हैं। कटाई के दौरान किसान 4-5 घंटे पानी में खड़े होकर हाथ से गुड़िया तोड़ते हैं। इसके बाद सुखाना, छंटाई, भूनना और फोड़ना होता है। एक किलो गुड़िया से लगभग 400 ग्राम लावा मिलता है। प्रसंस्करण में लकड़ी के हथौड़े से बीज फोड़े जाते हैं, जो हाथों को जलाने का कारण बनता है।
बिहार सरकार 75 प्रतिशत सब्सिडी देती है, जैसे ‘स्वर्ण वैदेही’ प्रजाति के बीज पर 97,000 रुपये प्रति हेक्टेयर। राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा (ICAR) ने आधुनिक तकनीकों जैसे उथले पानी वाली खेती और बाढ़ प्रतिरोधी किस्में विकसित की हैं। इससे उत्पादकता 1.7-1.9 टन/हेक्टेयर से बढ़ाकर 3-3.5 टन/हेक्टेयर की जा सकती है। एक एकड़ में 1-1.5 लाख रुपये का मुनाफा संभव है। वैश्विक मांग बढ़ने से निर्यात 25-30 करोड़ रुपये का हो गया है, जो पाकिस्तान, अरब देशों और यूरोप तक पहुंचता है। ‘मिथिला मखाना’ को GI टैग मिला है, जो ब्रांडिंग में मदद करता है।
कुछ किसान सफलता की मिसाल पेश कर रहे हैं। दरभंगा के रामखिलावन सहनी जैसे किसान 20 बीघा में खेती कर परिवार सहित काम करते हैं। कटिहार के शोभित ने सरकारी अनुदान से शुरू की खेती अब लाखों की आय दे रही है। मिथिला के 25 जिलों में जागरूकता अभियान चल रहे हैं, जहां मशीनीकरण और ड्रोन का उपयोग बढ़ावा दिया जा रहा है।
बिहार के किसानों की चुनौतियां: मेहनत के बावजूद खाली जेबें
मखाना की चमक किसानों तक नहीं पहुंच रही। 50-60 हजार किसान और मजदूर इससे जुड़े हैं, लेकिन अधिकांश गरीब मल्लाह समुदाय से हैं, जो भूमिहीन हैं। वे किराए की जमीन पर 10-20 हजार रुपये प्रति बीघा देते हैं। प्रमुख चुनौतियां निम्न हैं:
श्रमसाध्य और स्वास्थ्य जोखिम: कटाई में किसान घुटनों तक पानी में 8-10 घंटे डूबे रहते हैं। सांस लेना मुश्किल, त्वचा रोग और दुर्घटनाएं आम हैं। सहरसा में एक किसान की मौत की घटना इसका उदाहरण है। प्रसंस्करण में हाथ जलना और धूल से सांस की बीमारियां होती हैं। कोई स्वास्थ्य सुविधा या बीमा नहीं।
बाजार और मूल्य संबंधी समस्याएं: किसानों को गुड़िया के लिए 300-500 रुपये/क्विंटल मिलता है, जबकि बाजार में लावा 5-6 हजार रुपये/क्विंटल बिकता है। बिचौलिए 80-90 प्रतिशत मुनाफा कमा लेते हैं। MSP की कमी से किसान मजबूर हैं। निर्यात लाभ किसानों को नहीं, व्यापारियों को मिलता है।
जलवायु और प्राकृतिक चुनौतियां: बाढ़ और सूखा फसल नष्ट कर देते हैं। बढ़ते तापमान से विकास प्रभावित होता है। पारंपरिक तालाबों में जल प्रबंधन कठिन; खेतों में 6-9 इंच पानी बनाए रखना चुनौतीपूर्ण। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में 1.04 लाख हेक्टेयर बर्बाद भूमि का उपयोग संभव, लेकिन सिंचाई की कमी।
आर्थिक और तकनीकी बाधाएं: उच्च लागत (बीज, पटवन, मजदूरी) के बावजूद लाभ कम। भूमिहीन किसान ऋण पर निर्भर। आधुनिक तकनीक (मशीनरी, उच्च उपज वाली किस्में) का अभाव। प्रसंस्करण इकाइयों की कमी से कच्चा माल बाहर बिकता है। केवल 2 प्रतिशत मखाना अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरता है।
नीतिगत और सामाजिक मुद्दे: मखाना बोर्ड की घोषणा (2025 बजट में 100 करोड़ रुपये) हुई, लेकिन कार्यान्वयन धीमा। योजनाएं कागजी; FPO गठन सीमित। महिलाओं और युवाओं को रोजगार मिलता है, लेकिन आर्थिक तंगी बनी रहती है। GI टैग के बावजूद केवल 67 अधिकृत उपयोगकर्ता हैं।
कटिहार के देवसुंदर कुमार जैसे किसान कहते हैं, “महीनों की मेहनत पर 25 हजार बचत।” पूर्णिया के शाहजहां बताते हैं, “योजनाएं कागज पर, जमीन पर कुछ नहीं।”
समाधान की दिशा में कदम
मखाना बिहार के लिए ‘ब्लैक गोल्ड’ है, जो 70,000 हेक्टेयर क्षेत्र और दोगुना उत्पादन का लक्ष्य रखता है। मखाना बोर्ड से उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन मजबूत होगा। FPO, MSP, मशीनीकरण और प्रशिक्षण से किसानों को सशक्त बनाना होगा। जल प्रबंधन और जैविक खेती पर जोर दें। यदि चुनौतियां दूर हुईं, तो लाखों किसान समृद्ध होंगे। सरकार, वैज्ञानिक और किसान मिलकर ‘मखाना क्रांति’ ला सकते हैं। यह न केवल आर्थिक उन्नति, बल्कि सांस्कृतिक गौरव भी बहाल करेगा। बिहार का मखाना दुनिया की थाली सजाता है, लेकिन किसानों की थाली भरना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।