मुम्बई। महाराष्ट्र के मालेगांव में 29 सितंबर 2008 को हुआ बम विस्फोट, जिसमें छह लोगों की जान गई और 101 लोग घायल हुए, भारतीय इतिहास के सबसे विवादास्पद आतंकी मामलों में से एक रहा है। इस मामले ने न केवल सामाजिक और धार्मिक तनाव को बढ़ाया, बल्कि राजनीतिक हलकों में भी हलचल मचाई। हाल ही में, 31 जुलाई 2025 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की विशेष अदालत ने इस मामले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित सहित सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। इस फैसले के बाद एक पूर्व एटीएस (महाराष्ट्र आतंकवाद रोधी दस्ता) अधिकारी, महबूब मुजावर, ने सनसनीखेज खुलासा किया कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत को इस मामले में गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया था। यह दावा न केवल जांच की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि उस समय की कांग्रेस सरकार पर गंभीर आरोप भी लगाता है।
महबूब मुजावर, जो उस समय मालेगांव ब्लास्ट की जांच में शामिल थे, ने सोलापुर में एक कार्यक्रम में दावा किया कि उन्हें उनके वरिष्ठ अधिकारियों, विशेष रूप से तत्कालीन जांच अधिकारी परमबीर सिंह, द्वारा मोहन भागवत को गिरफ्तार करने का निर्देश दिया गया था। मुजावर के अनुसार, यह आदेश “भगवा आतंकवाद” की थ्योरी को स्थापित करने के लिए दिया गया था, जिसका उद्देश्य हिंदू संगठनों, खासकर आरएसएस, को बदनाम करना था। उन्होंने कहा, “मुझे राम कालसंग्रा, संदीप डांगे, दिलीप पाटीदार और मोहन भागवत जैसे व्यक्तियों के बारे में गोपनीय आदेश दिए गए थे। ये आदेश इतने भयावह थे कि इन्हें मानना संभव नहीं था।” मुजावर ने इन आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उनके खिलाफ एक झूठा मामला दर्ज किया गया, जिसने उनके 40 साल के करियर को बर्बाद कर दिया।
मुजावर का यह दावा कि “कोई भगवा आतंकवाद नहीं था, सब कुछ फर्जी था,” उस समय की जांच की मंशा पर गंभीर सवाल उठाता है। 2008 में, जब यह मामला सामने आया, तब महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार थी, और केंद्र में यूपीए सरकार सत्ता में थी। उस समय “भगवा आतंकवाद” का नैरेटिव जोर-शोर से प्रचारित किया गया, जिसके तहत साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित जैसे लोगों को मुख्य आरोपी बनाया गया। जांच शुरू में एटीएस ने की थी, जिसके प्रमुख हेमंत करकरे थे, जो बाद में 26/11 के मुंबई हमलों में शहीद हो गए। एटीएस ने दावा किया था कि विस्फोट में इस्तेमाल मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा की थी और यह एक हिंदू चरमपंथी संगठन, अभिनव भारत, की साजिश थी।
हालांकि, 2011 में इस मामले को एनआईए को सौंप दिया गया, और 2025 में आए अदालती फैसले ने जांच में कई खामियों को उजागर किया। विशेष न्यायाधीश एके लाहोटी ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि विस्फोट में इस्तेमाल मोटरसाइकिल प्रज्ञा ठाकुर की थी, और न ही यह साबित हुआ कि कर्नल पुरोहित ने आरडीएक्स का इस्तेमाल किया था। अदालत ने यह भी नोट किया कि घटनास्थल को ठीक से सुरक्षित नहीं किया गया, जिसके कारण सबूतों के साथ छेड़छाड़ की संभावना बढ़ गई।
मुजावर के खुलासे और अदालत के फैसले ने उस समय की राजनीतिक साजिश की परतें खोल दी हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस फैसले को “सत्यमेव जयते” की जीवंत उद्घोषणा बताया और कांग्रेस पर सनातन धर्म को बदनाम करने का आरोप लगाया। वहीं, मालेगांव के पीड़ितों और उनके परिवारों ने इस फैसले पर निराशा जताई है और इसे बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है।
इस पूरे प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि मालेगांव ब्लास्ट केस में जांच को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की गई थी। मोहन भागवत जैसे प्रमुख व्यक्तित्व को फंसाने का दबाव न केवल जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस तरह एक खास नैरेटिव को बढ़ावा देने के लिए संस्थानों का दुरुपयोग किया गया। यह खुलासा भारतीय न्याय व्यवस्था और जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता पर एक गंभीर चिंतन की मांग करता है।