मामाजी माणिकचन्द्र वाजपेयी: पत्रकारिता की आत्मा और राष्ट्रधर्म के अग्रदूत

images-3.jpeg

नैवेद्य पुरोहित

भोपाल । मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी की 106वीं जन्म जयंती के अवसर पर विश्व संवाद केन्द्र भोपाल में “मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी स्मृति व्याख्यान” का आयोजन हुआ। यह आयोजन ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के उस युगपुरुष को नमन करने का अवसर बना, जिन्होंने पत्रकारिता को राष्ट्रधर्म के रूप में जिया। कार्यक्रम की शुरुआत महर्षि वाल्मीकि के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करके हुई। प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी विश्व संवाद केन्द्र की स्मारिका का विमोचन किया गया, जिसका विषय था: “कन्वर्जन का खेल: निशाने पर जनजातीय”।

पत्रकारिता की आत्मा राष्ट्रहित में निहित – गिरीश जोशी

मुख्य वक्ता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक कुलसचिव गिरीश जोशी ने कहा कि मामाजी की पत्रकारिता का एक ही लक्ष्य था राष्ट्रहित। उन्होंने कहा, “पत्रकारिता का माध्यम बदल सकता है, क्लेवर बदल सकता है, पर उसकी आत्मा नहीं बदलती।” उन्होंने गीता के श्लोक “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि…” का उल्लेख करते हुए कहा कि जिस प्रकार आत्मा अमर है, उसी प्रकार पत्रकारिता की आत्मा कभी नहीं बदली। भारत में पत्रकारिता की आत्मा को गढ़ने वाले कुछ महर्षियों में मामाजी का नाम सर्वोपरि है। आज हम उनका स्मरण क्यों कर रहे है आखिर क्या था इस व्यक्ति में हम पाएंगे वो जो मूल्य थे उनमें पत्रकारिता के मूल्य थे और पत्रकारिता के अलावा मानवीय मूल्य थे। उन्होंने कुछ अंश जो मामाजी ने लिखे थे वो सुनाए। एक अंश पढ़ा उन्होंने जो आपातकाल के पहले लिखा था। “एक होती है बुद्धि एक है विवेक और फिर है प्रज्ञा जो ध्येय के साथ एकाकार हो जाते है। मामाजी की प्रज्ञा क्या होगी उन्होंने पूर्वाभास जता दिया था कि आपातकाल लग सकता है, अपनी ध्येय से इतना एकाकार हो जाना की प्रज्ञा जागृत हो जाए। प्रज्ञा जागृत हो जाने के बाद आपको भविष्य में जो घटनाएं होने वाली है वो दिख जाती है। उस कालखंड में उनकी कलम की धार देखिए। वह डगमगाई नहीं। उन्हें पढ़ने के बाद पाठक वैचारिक रूप से समृद्ध होता था। आज भी बहुत प्रेरक है।”

मेरी आत्मा पर मामाजी के छींटे पड़े – गिरीश उपाध्याय

स्वदेश के सलाहकार संपादक गिरीश उपाध्याय ने अपने बेहद मार्मिक संस्मरण साझा किए। उन्होंने कहा, “हीरे से पूछिएगा कि जौहरी का क्या महत्व है तो वह क्या बोलेगा। मैं आज जो भी कुछ हूं जहां भी हूं जिस भी स्थिति में हूं उसका संपूर्ण श्रेय मामाजी को है।” जब उन्हें नौकरी की तलाश थी वे राजेन्द्र शर्मा के पास गए उस समय स्वदेश भोपाल से शुरू होने वाला था। राजेन्द्र जी ने इंदौर में मामाजी के पास भेज दिया काम सीखने के लिए। इंदौर में रामबाग स्थित स्वदेश कार्यालय जब वे गए तब स्वदेश का दफ्तर एक आंगन जैसा था, “मामाजी का व्यक्तित्व एक सख्त लौहार जैसा था। मामाजी की मूछें उनके होठों को ढंक लेती थी, उनकी आवाज़ जो थी वो मूंछों के बाल में से छन के आती थी।”
अपनी प्रथम रिपोर्टिंग से जुड़े संस्मरण सुनाते हुए गिरीश जी कहते है, “मामाजी ने रिपोर्टिंग के लिए मुझे इंदौर के सबसे बड़े सांस्कृतिक आयोजन का कवरेज के लिए भेजा वो था अनंत चतुर्दशी की झांकी का कवरेज। उन्होंने मुझे न कोई पोलिटिकल काम सौंपा, न कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस में भेजा उन्होंने मुझे पहला काम सौंपा नगर को जानने का। उनका कहना था नगर की संस्कृति को जानो, उसके परिवेश को जानो, उसके जनमानस को जानो, उसके उल्लास को जानो। ये जो स्टेप बाय स्टेप पत्रकार को गढ़ने का काम है। वो उन्होंने किया।”
आखिर में उन्होंने कहा, “मैं धन्य हुआ कि मेरी आत्मा पर मामाजी के छींटे पड़े। मामाजी ने अपने कर्म से अपने धर्म से अपने आचरण से अपने चरित्र से उन्होंने मुझे स्वयंसेवक बनाया। हमको संस्कार देने के लिए किसी को बाध्य करने की आडंबर करने की कोई जरूरत नहीं होती हम वो उदाहरण प्रस्तुत करते है। संपादक की सहजता और सरलता उनसे सीखी जा सकती है। मैं मामाजी से वो 50 रूपए की उधारी लेकर भोपाल आया।”

मामाजी जैसे संपादकों की हम सिर्फ आज कल्पना कर सकते है – लाजपत आहूजा

कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्व संवाद केन्द्र के अध्यक्ष लाजपत आहूजा ने की। उन्होंने कहा, “मामाजी भिंड में एक निजी महाविद्यालय चलाते थे। एक सज्जन को उनके पास भेजा गया। मामाजी ने उनसे कहा तैरना जानते हो, वो अचकचा गए उन्होंने मना किया कि तैरना तो नहीं जानते। फिर बाद में उन्होंने बताया कि महाविद्यालय तक पहुंचने के लिए बीच में नदी पड़ती। पढ़ाओगे तो तब जब वहां पहुंचोगे।बाद में वो दोनों ही लोग स्वदेश के प्रधान संपादक बने एक तो मामाजी थे और दूसरे कृष्ण कुमार अष्ठाना जी।” मामाजी एक जमीनी आदमी थे। जमीनी आदमी पहले जमीनी हकीकत जानना चाहता है। एक शिक्षक से वो पत्रकार बने। मामाजी की गोदी में बैठकर उनकी मूंछों से खेलने वाले भी आज संपादक बन गए है। उन्होंने जो शब्द लिखे वो शब्द जिए है कोई ऐसा संपादक? एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि, “मध्यप्रदेश में एक समय श्रममंत्री हुआ करते थे गंगाराम तिवारी जो एक सेक्स स्कैंडल में फंस गए थे। उनके सारे फोटोग्राफ्स स्वदेश के पास आ गए थे। लेकिन मामाजी ने कहा हमारा पत्र पारिवारिक पत्र है हम संस्कार क्या देंगे। उन्होंने वो सभी चित्र छापने से इनकार कर दिया। मामाजी ने पत्रकारिता के नैतिक मापदंड हमेशा साथ रखें। किसी भी अखबार के लिए उस समय चित्रों का बड़ा महत्व था। ऐसे निष्प्रय संपादकों की सिर्फ आज हम कल्पना कर सकते है।”

कार्यक्रम का संचालन सुश्री अदिति ने किया और आभार विश्व संवाद केन्द्र भोपाल के सचिव लोकेंद्र सिंह ने माना। आज के दौर में जब पत्रकारिता अपनी दिशा खोज रही है, तब मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी के मूल्य ही उसे सही मार्ग दिखा सकते हैं। उनकी पत्रकारिता केवल शब्द नहीं एक साधना थी और उनका जीवन राष्ट्रहित के लिए समर्पित था।

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top