बेतिया । जब बिहार जैसे राज्यों में हाल के 2025 विधानसभा चुनावों में रोज़गार, पलायन और गांवों की जिंदगी बड़े मुद्दे बनकर उभरे, तो यह साफ़ दिखा कि मनरेगा जैसी योजनाएँ सिर्फ विकास-रिपोर्ट का हिस्सा नहीं रहीं, बल्कि राजनीतिक बहस की धुरी भी बन गई हैं। राज्य की दो-तिहाई से अधिक घरों पर बाहरी मज़दूरी का निर्भरता होने के बावजूद, पलायन को रोकने वाली नीतियाँ वोटरों की प्राथमिकता बनीं। जो दल गाँव की ज़मीन से कटे दिखते हैं, उन्हें नतीजों में उसकी कीमत चुकानी पड़ती है, जबकि रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा की ठोस बात करने वाली राजनीति को नया सहारा मिलता है।
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सवेरे का वक्त है। हल्की धूप धान के पत्तों पर जमी ओस को चमका रही है। कुछ टूटी- कुछ पक्की सड़क के किनारे लाल मिट्टी की परत उड़ती हुई हर चीज़ पर बैठती जा रही है। पोखर के पास गाँव की औरतों का झुंड जमा है—हाथों में कुदाल, माथे पर पसीना, मगर आँखों में उम्मीद की चमक। यह महाराष्ट्र का सुदूर इलाका है, जहाँ चलती ठंडी हवा के साथ बीते सालों की थकान और संघर्ष भी जैसे उड़ते महसूस होते हैं।
सरस्वती, जो टोली की सबसे उम्रदराज़ औरत है, मुस्कुराकर कहती है, “पहले तो बरसात ही पेट पालती थी, अब अगर मनरेगा का काम न मिले तो भूख लौट आती है।”
उसकी बात सिर्फ इस गाँव की नहीं, उस पूरे ग्रामीण भारत की कहानी है जहाँ पिछले दो दशकों से मनरेगा भूख और बेरोज़गारी के खिलाफ़ सबसे बड़ा सहारा बना हुआ है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना—मनरेगा—ने लाखों घरों की रसोई जलाए रखी है और मज़दूरों को शहर पलायन से बचाया है। कोविड के ठहराव के दिनों में तो यह सचमुच जीवन-रेखा बन गई। पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “आज इसकी सबसे बड़ी ताक़त गाँव की औरतें हैं—कुल कामगारों में 58.15% से ज़्यादा वही हैं; पहले जो घर की देहरी तक सीमित थीं, अब खेत, तालाब और सड़कों पर अपने हाथों से गाँव की तस्वीर बदल रही हैं। उनकी आवाज़ अब चौपाल तक पहुँचने लगी है।”
फ़रवरी 2006 में 200 जिलों में शुरू हुई मनरेगा योजना उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तुरंत प्रभावी हुई और कुछ ही सालों में पूरे देश में फैल गई। हाल के वर्षों में जल संरक्षण और जलवायु-संवेदी कामों पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, जिससे सूबे ने 2024–25 में 33.65 करोड़ से ज़्यादा मानव-दिवस का काम पैदा कर देश में पहला स्थान हासिल किया। लाखों परिवारों को रोज़गार मिला, और कई ने 100 दिन का लक्ष्य पूरा किया। महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है, वर्कसाइट सुपरवाइज़र के रूप में भी, भले ही जाति-आधारित असमानताएँ अभी पूरी तरह धुंधली नहीं हुईं। योजना ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत करते हुए कुल 3,029 करोड़ मानव-दिवस उत्पन्न किए हैं, जो 2014-15 से 82% की वृद्धि दर्शाता है।
आगरा ज़िले में, जहाँ ताजमहल की चमक के पीछे एक बड़ा देहाती इलाका छिपा है, मनरेगा ने पानी और बुनियादी ढाँचे के कामों के ज़रिए रोज़गार और संसाधन दोनों बढ़ाए हैं। उत्तर प्रदेश के समग्र आँकड़ों के अनुरूप, आगरा में भी करोड़ों मानव-दिवस उत्पन्न हुए, हज़ारों काम पूरे हुए—खेत-तालाब, चेक-डैम, कच्ची-पक्की सड़कें—जिन्होंने मिट्टी कटान घटाया और सिंचाई की नई संभावनाएँ खोलीं। यहाँ भी औरतों की हिस्सेदारी 58% से ऊपर पहुँच चुकी है, जो गाँव के सामाजिक संतुलन में एक साइलेंट मगर गहरा बदलाव है।
फिर भी तस्वीर पूरी तरह चमकदार नहीं है। कागज़ पर हर परिवार को 100 दिन की गारंटी है, ज़मीन पर औसतन 44-45 दिन का काम ही मिल पाता है। कई जगह मज़दूरी में देरी, निरीक्षण की खामियाँ और सोशल ऑडिट की सीमाएँ हैं; देशभर में सिर्फ छह राज्यों में ही 50% से अधिक ग्राम पंचायतों तक ऑडिट पहुँच पाया है। नतीजा यह कि कुछ गाँवों में काम की माँग अधूरी रह जाती है, और नई परियोजनाएँ काग़ज़ी फाइलों में अटक जाती हैं।
फिर भी, इन सबके बीच जो ठोस फायदे हुए हैं, वे किसी खजाने से कम नहीं। देशभर में लाखों काम पूरे हुए हैं—जिनमें बड़ी हिस्सेदारी जल संरक्षण, सिंचाई और भूमि सुधार की है। इससे फसल उत्पादन बढ़ा, ज़मीन की नमी टिकी और कई इलाकों में भूजल ऊपर आया। योजना ने राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण-शहरी पलायन में 28% तक की कमी लाई है; कई राज्यों में मौसमी पलायन में तेज़ गिरावट दर्ज हुई—कहीं एक-तिहाई तक, तो कहीं आधे से भी ज़्यादा। राजस्थान जैसे राज्यों में गर्मियों में मज़दूरों को 8 अतिरिक्त दिन का काम मिलने से पलायन पर सीधा अंकुश लगा।
मध्य प्रदेश के जग्गू कहते हैं, “मनरेगा न होता तो हम सब शहर चले जाते। अब साल के कुछ महीने यहीं काम मिल जाता है, बच्चों की पढ़ाई भी चलती रहती है।” ऐसी आवाज़ें आंध्र प्रदेश से लेकर मेघालय, राजस्थान से हरियाणा तक सुनाई देती हैं। फिर भी पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में मनरेगा का असर सीमित है, और बेहतर मज़दूरी की तलाश में मज़दूरों का एक हिस्सा अब भी शहरों का रुख करता है।
कभी इस योजना पर फर्जी मस्टर रोल और बड़े घोटालों की छाया थी। झारखंड जैसे राज्यों में सैकड़ों करोड़ के गबन के मामले सामने आए, जिनमें हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय ने 22 लाख रुपये की संपत्तियाँ जब्त कीं। अब मजदूरी सीधे बैंक खातों में जाने लगी है, काम की तस्वीरें जियो-टैग होकर ऑनलाइन दर्ज होती हैं और सोशल ऑडिट ने गड़बड़ियों को काफ़ी हद तक रोका है। फिर भी दूरदराज़ इलाकों में ठेकेदारों और मशीनों का दबदबा, और स्थानीय राजनीति का हस्तक्षेप आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। कई जोहड़ और तालाब अब भी सिर्फ काग़ज़ों पर बने दिखते हैं।
मनरेगा ने आर्थिक झटकों से जूझते परिवारों के लिए बफर की तरह काम किया है। यह सिर्फ रोज़गार नहीं देता, बल्कि हर फावड़े के साथ आत्म-सम्मान भी लौटाता है। औरतों के हाथ में आई मज़दूरी ने घरों के भीतर फ़ैसलों की दिशा बदलनी शुरू कर दी है—बच्चों की पढ़ाई, दवाओं का खर्च, छोटे-मोटे त्योहार—अब सबमें उनकी हिस्सेदारी साफ़ दिखती है।
अब शाम को जब सरस्वती घर लौटती है, उसकी हथेलियों पर जमी मिट्टी सिर्फ दिनभर की मेहनत का निशान नहीं, बल्कि इस भरोसे की मुहर है कि उसके बच्चों का कल थोड़ा बेहतर होगा। मनरेगा ने गाँवों में जो बीज बोया है, वह अब पत्तियों और पौधों से आगे बढ़कर एक सोच बन चुका है—यह सोच कि मेहनत की अपनी इज़्ज़त होती है, और उस इज़्ज़त की हिफ़ाज़त सरकार से लेकर समाज तक, सबकी साझा ज़िम्मेदारी है।



