रायपुर: सारा बखेड़ा उस एक व्यक्ति की सोच का है जिसे आज हम कार्ल मार्क्स के नाम से जानते हैं। नर्म या गर्म, जिस भी तरह का वामपंथ हो, इसके पीछे इसी एक व्यक्ति की अव्यावहारिक-अव्यावहारिक सोच विद्यमान है। माओवाद के संबंध में क्रांति की जो अवधारणा हमारे सामने आती है उसके पीछे मार्क्सवाद में, वर्ग विहीन समाज बनाये जाने की काल्पनिक किन्तु आदर्श स्थिति है, जहाँ कोई सामाजिक वर्ग नहीं होगा यहाँ तककि उत्पादन के साधनों पर सभी का समान स्वामित्व होगा। मार्क्स का मानना था कि राज्य एक वर्ग-आधारित समाज का उपकरण है, और जब वर्ग समाप्त हो जाएंगे, तो राज्य भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। इस विचारक का मानना था कि वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए, सर्वहारा वर्ग को पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष करना होगा और सत्ता हासिल करनी होगी। यह संघर्ष क्रांति के माध्यम से हो सकता है, जिसमें सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकता है और सत्ता पर कब्जा कर लेता है। इसी प्रकार की तथाकथित क्रांति की संकल्पना वह बारीक रेखा है जहाँ नरम वामपंथी और उग्रवामपंथी के बीच का भेद विद्यमान है।
किसी दार्शनिक की सोच सही हो सकती है, गलत भी होती है। विचार को भी कसौटी पर कसना आवश्यक है। अबूझमाड़ में अतीत से वर्तमान तक भी वर्ग विहीन समाज की ही उपस्थिति है। इस परिक्षेत्र में किसी भी तरह से व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य सर्वहारा और पूंजीपति वाला विभेद करना संभव नहीं है। यहाँ समुपस्थित शिकारी और संग्राहक जन-समूह, परंपरागत रूप से स्थानिक कृषि पर निर्भर हैं। स्थानिक कृषि, जिसे झूम खेती या स्थानान्तरी कृषि भी कहा जाता है, एक प्रकार की कृषि प्रक्रिया है जिसमें भूमि के एक टुकड़े पर कुछ समय के लिए खेती की जाती है, फिर उर्वरता कम होने पर उसे छोड़ दिया जाता है और दूसरे टुकड़े पर खेती की जाती है। इस तरह की खेती में, पहले छोड़े गए टुकड़े पर प्राकृतिक वनस्पति फिर से उग आती है।
इतना भर जान लेने से बात पूरी नहीं हो जाती, अबूझमाड़ परिक्षेत्र में सामूहिक खेती की भी परिपाटी है। सामूहिक खेती ऐसी प्रणाली है जिसमें उस गांव के सभी किसान मिलकर किसी भूमि में साझा खेती करते हैं। किसान एक साथ मिलकर योजना बनाते हैं, संसाधनों को साझा करते हैं, और सामूहिक रूप से फसल उगाते हैं। उत्पादित फसल का बटवारा भी समान रूप से उसी समूह में होता है। यदि इन परंपराओं और जीवन शैली को भलीभाँति विवेचित किया जाये तो यही वह आदर्श स्थिति है जिसके लिए कथित क्रांति की रूपरेखा बुनी-बनाई गई है। यहाँ कोई सामाजिक वर्ग नहीं है यहाँ तककि उत्पादन के साधनों पर सभी का समान स्वामित्व भी है। अगर कार्ल मार्क्स ऐसी ही दुनियाँ रचना चाहते थे तो माओवादी बस्तर संभाग के विविध जिलों, विशेषरूप से अबूझमाड में क्या कर रहे हैं? वे तो कार्लमार्क्स के सपने की छाती पर ही एके-47 ले कर खड़े दिखाई पड़ते हैं?
हमें इस उदाहरण से समझना होगा कि माओवाद का संबंध किसी विचार की धारा से नहीं है यह विशुद्ध आतंकवाद है। यदि वर्गविहीन समाज का स्वप्न ही सच करना है तो अबूझमाड के वर्गविहीन समाज को कुचल कर वहीं पर आधार इलका बनाने की आवश्यकता क्यों थी? शहरी नक्सलियों के शब्द जाल में सोचने समझने वाले उलझ ही जाते हैं लेकिन तर्कशील होना किसी विषयवस्तु पर समझ बनाने के लिए जरूरी तत्व है। जहाँ विचार समाप्त होते हैं, तर्क के मायने नहीं रह जाते वहाँ पर ही कनपट्टी पर बंदूख टिकाई जाती है।