मासिक धर्म: एक प्राकृतिक प्रक्रिया, पर सामाजिक कलंक क्यों?

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दिल्ली। मासिक धर्म (पीरियड्स) हर स्त्री की जैविक प्रक्रिया है, जो प्रजनन स्वास्थ्य का अभिन्न अंग है। फिर भी, आज के आधुनिक समाज में इसे लेकर शर्म और गोपनीयता का बोझ क्यों? एक स्त्री हर महीने योनि से रक्तस्राव, पेट में मरोड़, कमर दर्द, सिरदर्द, मतली और थकान जैसी पीड़ा से गुजरती है। यह दर्द हल्का से लेकर असहनीय तक हो सकता है, जो दैनिक जीवन प्रभावित करता है। कई स्त्रियों को एंडोमेट्रियोसिस या पीसीओएस जैसी बीमारियां अतिरिक्त यातना देती हैं। फिर भी, पुरुषों का बड़ा वर्ग इसे समझने से इनकार करता है। क्यों? क्योंकि यह “स्त्री की बात” है, जिसे चर्चा से बाहर रखा जाता है।

सवाल उठता है: पैड को अखबार में लपेटकर काली पॉलीथिन में छिपाकर क्यों दिया जाता है? दुकानदार इसे गोपनीयता के नाम पर करते हैं, लेकिन यह कलंक को बढ़ावा देता है। मानो मासिक धर्म कोई अपराध या अश्लीलता हो! भारत जैसे देश में, जहां ८०% से अधिक किशोरियां पहली बार पीरियड्स आने पर डरती हैं (यूनिसेफ रिपोर्ट), यह प्रथा शिक्षा की कमी दर्शाती है। स्कूलों में सेक्स एजुकेशन न के बराबर, घरों में मां-बहन भी खुलकर नहीं बोलतीं। नतीजा? स्त्रियां अकेले दर्द सहती हैं, जबकि पुरुष अनजान बने रहते हैं।

अब सोचिए, आपके आसपास कितने पुरुष ऐसे हैं जिनके परिवार में कोई बहन, मां या पत्नी नहीं? शायद कोई नहीं! फिर भी, अधिकांश पुरुषों को पीरियड्स का दर्द पता नहीं। वे मजाक उड़ाते हैं या अनदेखा करते हैं। एक सर्वे (मेनस्ट्रूपीडिया) के अनुसार, ७०% पुरुष पैड खरीदने में हिचकिचाते हैं। यह अज्ञानता नहीं, सामाजिक कंडीशनिंग है। मासिक धर्म को “अशुद्ध” मानने वाली धार्मिक मान्यताएं (जैसे मंदिर प्रवेश निषेध) इसे और गहराती हैं। पर वैज्ञानिक रूप से, यह शरीर की सफाई प्रक्रिया है, जो जीवन का स्रोत है।

समय है बदलाव का। स्कूलों में अनिवार्य सेक्स एजुकेशन, पुरुषों को संवेदनशील बनाना जरूरी। कंपनियां पीरियड लीव दें, समाज खुली चर्चा करे। पैड को सामान्य उत्पाद की तरह बेचें, न कि छिपाकर। हर पुरुष को समझना चाहिए: यह दर्द कोई कमजोरी नहीं, जीवन की ताकत है। जब तक कलंक रहेगा, स्त्रियां अकेली लड़ती रहेंगी। आइए, मासिक धर्म को सामान्य बनाएं – क्योंकि यह प्राकृतिक है, शर्मनाक नहीं!

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