माता-पिता के हृदय की पुकार: बच्चों की परवरिश और उनके जीवन के निर्णय

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माता-पिता का जीवन बच्चों के इर्द-गिर्द घूमता है। वह पल, जब एक बच्चा इस दुनिया में पहली सांस लेता है, माता-पिता के लिए न केवल खुशी का क्षण होता है, बल्कि एक अनकहा वादा भी, जिसमें वे अपने बच्चे को हर सुख, हर सुविधा देने का संकल्प लेते हैं। भारत जैसे देश में, जहां परिवार और रिश्तों की नींव पर समाज टिका है, माता-पिता अपने बच्चों को न केवल पालते हैं, बल्कि उनके लिए अपने सपनों को, अपनी इच्छाओं को, और कई बार अपनी खुशियों को भी ताक पर रख देते हैं। लेकिन जब यही बच्चे, जिन्हें मां-बाप ने अपने कलेजे से लगाकर पाला, एक दिन कहते हैं, “मैं बालिग हो गया/गई हूं, अब मुझे अपने जीवन का फैसला खुद करने का अधिकार है,” तो उस माता-पिता के दिल पर क्या बीतती है? यह प्रश्न आज के समाज में गहरी चिंता का विषय बन चुका है।

माता-पिता का बलिदान और प्रेम

भारतीय परिवारों में माता-पिता का प्रेम एक अनमोल रिश्ता है। एक मां जो रात-रात भर जागकर अपने बच्चे की छोटी-सी बेचैनी को दूर करती है, एक पिता जो अपनी थकान और आर्थिक तंगी को छिपाकर बच्चे की हर छोटी-बड़ी इच्छा पूरी करता है, वे केवल इसलिए ऐसा करते हैं ताकि उनके बच्चे को जीवन में कोई कमी न आए। वे अपने बच्चों को वह सब कुछ देना चाहते हैं, जो शायद उन्हें खुद नहीं मिला। स्कूल की फीस, अच्छी शिक्षा, बेहतर भविष्य के लिए विदेश भेजना, या फिर छोटी-छोटी खुशियां—हर चीज में माता-पिता अपनी पूरी जिंदगी झोंक देते हैं।

जब एक बच्चा बीमार पड़ता है, तो मां-बाप उस दर्द को अपने ऊपर ले लेते हैं। जब बच्चा स्कूल में अच्छा प्रदर्शन नहीं करता, तो माता-पिता खुद को दोष देते हैं। हर कदम पर, वे अपने बच्चों के लिए ढाल बनकर खड़े रहते हैं। लेकिन जब यही बच्चे, जिनके लिए माता-पिता ने अपनी जिंदगी का हर पल समर्पित किया, एक दिन कहते हैं, “मुझे अपने जीवनसाथी का फैसला खुद करना है,” तो माता-पिता का दिल टूट जाता है। यह टूटन इसलिए नहीं कि बच्चा प्रेम में है या उसने अपने लिए कोई साथी चुना है, बल्कि इसलिए कि उस फैसले में माता-पिता की राय, उनकी भावनाओं, और उनके अनुभव को कोई महत्व नहीं दिया गया।

आधुनिकता और बदलते मूल्य

आज का दौर आधुनिकता का दौर है। वैश्वीकरण, तकनीक, और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों को चुनौती दी है। बच्चे अब स्वतंत्रता की बात करते हैं, अपने अधिकारों की बात करते हैं। यह स्वतंत्रता गलत नहीं है, लेकिन जब यह स्वतंत्रता माता-पिता के प्रेम और उनके बलिदानों को दरकिनार कर देती है, तो यह एक गहरी चोट बन जाती है।

आजकल, बच्चे 18 साल की उम्र पार करते ही यह मान लेते हैं कि अब वे अपने जीवन के हर फैसले के लिए स्वतंत्र हैं। कानून भी इसकी इजाजत देता है। लेकिन क्या कानून भावनाओं को समझ सकता है? क्या कानून उस मां के आंसुओं को देख सकता है, जो रात-रात भर अपने बच्चे के लिए प्रार्थना करती है? क्या कानून उस पिता के दर्द को महसूस कर सकता है, जो अपने बच्चे के भविष्य के लिए दिन-रात मेहनत करता है, लेकिन एक दिन उसे सुनने को मिलता है कि उसकी राय अब मायने नहीं रखती?

प्रेम और परिवार का संतुलन

यह लेख प्रेम के खिलाफ नहीं है। प्रेम एक पवित्र भावना है, जो जीवन को सुंदर बनाती है। लेकिन सच्चा प्रेम वही है, जो परिवार के मूल्यों और माता-पिता की भावनाओं का सम्मान करता है। अगर कोई युवा अपने जीवनसाथी के लिए प्रेम में है, तो उसे अपने परिवार के साथ खुलकर बात करनी चाहिए। उसे अपने माता-पिता को समझाना चाहिए कि उसका प्रेम सच्चा है और वह अपने परिवार को छोड़ना नहीं चाहता। सत्याग्रह का रास्ता अपनाया जा सकता है—यानी, बिना माता-पिता की सहमति के शादी नहीं होगी, लेकिन यह भी स्पष्ट करना कि वह अपने चुने हुए साथी के अलावा किसी और से शादी नहीं करेगा।

ऐसा सत्याग्रह न केवल प्रेम को और गहरा करता है, बल्कि माता-पिता को भी यह विश्वास दिलाता है कि उनका बच्चा उनकी भावनाओं का सम्मान करता है। प्रेम की परीक्षा तब और निखरती है, जब वह परिवार की सहमति के साथ आगे बढ़ता है। माता-पिता, जो अपने बच्चों के लिए इतना कुछ करते हैं, क्या उनके पास यह अधिकार नहीं कि वे अपने बच्चे के जीवन के सबसे बड़े फैसले में शामिल हों?

ओल्ड एज होम और टूटते रिश्ते

आज के समय में ओल्ड एज होम की बढ़ती संख्या एक कड़वी सच्चाई है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां परिवार और रिश्तों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था, वहां भी अब ओल्ड एज होम देखकर आश्चर्य नहीं होता। यह एक संकेत है कि समाज में कुछ गलत हो रहा है। बच्चे, जो अपने माता-पिता की देखभाल को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते, क्या वे यह भूल जाते हैं कि यही माता-पिता थे, जिन्होंने उन्हें चलना सिखाया, बोलना सिखाया, और जीवन की हर मुश्किल में उनका साथ दिया?

यह दुखद है कि आधुनिकता के नाम पर या व्यस्त जीवनशैली के कारण, बच्चों की परवरिश में कमी आ रही है। माता-पिता या तो अपने बच्चों को विदेश भेज देते हैं, या फिर अच्छी शिक्षा के नाम पर उन्हें अपने से दूर कर देते हैं। इससे बच्चे और माता-पिता के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ती है। जब बच्चे बड़े होकर अपने फैसले लेने लगते हैं, तो वे यह भूल जाते हैं कि उनके माता-पिता ने उनके लिए कितना कुछ किया।

माता-पिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता

माता-पिता की बच्चों के जीवन में भूमिका केवल उन्हें पालने और बड़ा करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जिन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी जिंदगी का हर पल समर्पित किया, उनके अनुभव, उनकी राय, और उनकी भावनाओं का सम्मान होना चाहिए। शादी जैसे महत्वपूर्ण निर्णय में माता-पिता की सहमति जरूरी है, क्योंकि यह न केवल दो लोगों का मिलन है, बल्कि दो परिवारों का भी मिलन है।

माता-पिता का दुख तब और बढ़ जाता है, जब बच्चे उनकी बात को अनसुना कर देते हैं। वे यह नहीं समझते कि माता-पिता का विरोध इसलिए नहीं है कि वे बच्चों की खुशी नहीं चाहते, बल्कि इसलिए कि वे अपने अनुभव के आधार पर उनके लिए सबसे अच्छा चाहते हैं। माता-पिता का प्रेम स्वार्थी नहीं होता; यह एक ऐसा प्रेम है, जो केवल देना जानता है।

आज जरूरत है कि बच्चे और माता-पिता के बीच संवाद बढ़े। बच्चों को यह समझना होगा कि स्वतंत्रता का मतलब अपने माता-पिता को पीछे छोड़ देना नहीं है। प्रेम और परिवार के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। माता-पिता को भी अपने बच्चों की भावनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए और उन्हें खुलकर अपनी बात रखने का मौका देना चाहिए।

सच्चा प्रेम वही है, जो परिवार की सहमति और आशीर्वाद के साथ फलता-फूलता है। माता-पिता, जिन्होंने अपने बच्चों को अपने खून-पसीने से पाला, उनके दिल की पुकार को अनसुना नहीं करना चाहिए। उनके जीवन के सबसे बड़े फैसले में उनकी भूमिका को सिरे से खारिज करना न केवल उनके प्रेम का अपमान है, बल्कि उस रिश्ते का भी अपमान है, जो भारतीय संस्कृति की नींव है। आइए, हम एक ऐसे समाज का निर्माण करें, जहां प्रेम और परिवार एक साथ चलें, और माता-पिता का सम्मान बच्चों के हर निर्णय में झलके।

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आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

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