माओवादियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं का जो सबसे सामान्य कारण बताया जाता है वह है ग्रामीणों द्वारा कथित रूप से की जाने वाली मुखबिरी। लगभग दो दशकों से मैं बस्तर परिक्षेत्र के समाजशास्त्रीय विषयों पर कार्य कर रहा हूँ और जानता हूँ कि केवल संदेह के आधार पर ही अनेक ग्रामीण माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए। अनेक बार झूठी शिकायत पर भी किसी ग्रामीण को मुखबिर बता दिया गया और फिर धार विहीन हथियार से माओवादियों ने निर्ममता भरी मौत दी है। एक ऐसे ही परिवार सें मैं कुछ समय पूर्व मिला था जिसके परिजन की केवल इसलिए हत्या कर दी गई थी कि उसका एक सहपाठी सिपाही हो गया था और दोनों मित्र बाजार में बात करते देखे गये। एक ग्रामीण को केवल इसलिए मार दिया गया था क्योंकि उसे बैंक में पैसा जमा करते देखा गया था, पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह तो अपने फसल से अर्जित राशि जमा करने गया था न कि किसी तरह की मुखबिरी करने या पुलिस को सहयोग करने। यह संभावना भी है कि अनेक ने पुलिस तंत्र का जाने अनजाने सहयोग किया हो लेकिन इसके लिए माओवादियों के पास मौत के घाट उतार देने जैसी एकमेव सजा क्यों है?
मैंने माओवादियों को और शहरी नक्सलियों को, सर्वदा एक ही स्वर में मानवाधिकार का नारा लगाते सुना है। उनकी सारी कवायद सुरक्षाबलों के विरुद्ध रहती है लेकिन स्वयं माओवादियों द्वारा मानव को मानव न समझे जाने के प्रश्न पर उनकी ओर से कभी कोई उत्तर नहीं आया। मेरा प्रश्न है कि क्या नक्सलक्षेत्र के ग्रामीणों का मानव अधिकार नहीं होता? आज इस प्रश्न का सामान्य कुछ आंकड़ों से करते हैं। इस विवेचना में मैंने केवल एक वर्ष (फरवरी 2024 से जनवरी 2025 तक) का आंकड़ा लिया है। इस अवधि में मैंने प्रत्येक माह में वह संख्या निकाली है जो नक्सलियों द्वारा की गई उन ग्रामीणों की हत्या है जिन पर मुखबिरी करने के आरोप लगाए गए थे। प्रतिमाह के आँकड़े देखें तो -(2 हत्या) फरवरी 2024, (4 हत्या) मार्च 2024, (4 हत्या) अप्रैल 2024, (1 हत्या) मई 2024, (3 हत्या) जून 2024, (2 हत्या) जुलाई 2024, (4 हत्या) अगस्त 2024, (3 हत्या) सितंबर 2024, (3 हत्या) अक्टूबर 2024, (1 हत्या) नवंबर 2024, (5 हत्या) दिसंबर 2024, (1 हत्या) जनवरी 2025; इस तरझ केवल एक वर्ष की अवधि में तैंतीस (33) ग्रामीणों को मुखबिर बताया कर मार दिया गया। मारे जाने वाले ग्रामीणों में 100% जनजातीय समाज के व्यक्ति हैं।
केवल एक साल में तैंतीस व्यक्ति मार दिए गए, इस बात को देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने याकि मीडिया ने संज्ञान में क्यों नहीं लिया? क्या साल में तैंतीस हत्याओं का आंकड़ा कोई छोटी संख्या है? माह दर माह होने वाली ये हत्यायें बस्तर में सामान्य घटना बना दी गई हैं। शहरी नक्सलवाद जो नैरेटिव परोसता है उससे इतर इन ग्रामीणों की हत्या पर क्यों मानवाधिकार की मोमबत्तियाँ भीग जाती हैं? शोकसभाओं पर क्या बिजली गिर पड़ती है? मौत, मुखबिर और मानवाधिकार पर बस्तर में कभी खुल कर बहस हुई ही नहीं, शायद इसलिए क्योंकि यहाँ अवस्थित मानव अधिकार की दूकानों के एजेंडे अलग हैं और मीडिया की टीआरपी के लिए ऐसी खबरें कोई योगदान नहीं करतीं.