गांधी का सीधा बयान था—“मैं इसे प्रेस मानता ही नहीं।” यानी एक व्यक्ति ने अपनी विचारधारा के आधार पर तय कर लिया कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। यह घटना इसलिए खतरनाक है क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब विचारधारात्मक असहमति को मीडिया की आजादी को कुचलने का हथियार बनाया गया है, लेकिन इसे जिस बेशर्मी से अंजाम दिया गया, वह नया मानक स्थापित करता है।
कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच?
सबसे पहले तथ्य: थिरुमुरुगन गांधी ने तमिल जनम को ‘झूठ फैलाने वाला’ और ‘आरएसएस का चैनल’ कहा। वजह बताई कि पिछले साल अमरन से जुड़ी प्रेस मीट में चैनल ने उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया था। यह आरोप हो सकता है सही, हो सकता है गलत-लेकिन उसकी सजा यह है कि पूरे चैनल को प्रेस की परिभाषा से बाहर कर दो? क्या कोई व्यक्ति या संगठन यह तय करेगा कि कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच? अगर यही मानक लागू हुआ तो कल को कोई दूसरा संगठन द वायर, द क्विंट या स्क्रॉल को “सोरस का एजेंट”, “कांग्रेस का मुखपत्र” या “वामपंथी प्रोपेगैंडा मशीन” कहकर बाहर का रास्ता दिखा देगा। परसों कोई तीसरा न्यूज 24 या एबीपी को ‘खान मार्केट गैंग’ का बताकर निकाल देगा। और फिर कोई चौथा आज तक या रिपब्लिक को ‘गोदी मीडिया’ कहकर। अंत में प्रेस क्लब में सिर्फ वही बचेंगे जो आयोजक की विचारधारा से 100 फीसदी मैच करते हों। यह प्रेस की आजादी नहीं, विचारधारात्मक गुलामी है।

चलन में हैं ‘प्रेस्टीट्यूट’ और ‘लिबरल गैंग’ जैसे शब्द
यह कोई नई बात नहीं है। भारत में पिछले एक दशक से मीडिया को विचारधारात्मक खांचों में बांटने की कोशिश लगातार हो रही है। एक तरफ “गोदी मीडिया” का तमगा चस्पा किया जाता है, दूसरी तरफ ‘प्रेस्टीट्यूट’ और ‘लिबरल गैंग’ जैसे शब्द चलन में हैं। लेकिन अब तक यह बहस सोशल मीडिया और टीवी डिबेट तक सीमित थी। पहली बार इसे संस्थागत रूप दिया गया है—एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुले आम एक चैनल को बाहर निकालकर और भविष्य में आने से रोककर। यह सिर्फ तमिल जनम के खिलाफ नहीं, पूरे प्रेस की स्वतंत्रता के खिलाफ घोषणा-पत्र है।
कहां हैं फ्रीडम ऑफ स्पीच के चैंपियन
सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि यह काम वही लोग कर रहे हैं जो खुद को फ्रीडम ऑफ स्पीच का सबसे बड़ा चैंपियन बताते हैं। May 17 मूवमेंट और थिरुमुरुगन गांधी सालों से ईलम समर्थक आंदोलन, दलित अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सक्रिय रहे हैं। उनके ऊपर राजद्रोह के केस लगे, उन्हें जेल भेजा गया, विदेश यात्रा पर रोक लगी। उस वक्त पूरा ‘प्रोग्रेसिव’ खेमा उनके साथ खड़ा था। लेकिन आज वही लोग एक पत्रकार को सिर्फ उसकी कथित विचारधारा के आधार पर अपमानित कर रहे हैं। यह दोहरा मापदंड नहीं, पाखंड है। जब आपकी अभिव्यक्ति दबाई जाती है तो वह फासीवाद है, लेकिन जब आप दूसरों की अभिव्यक्ति दबाते हैं तो उसे सही मीडिया के चयन का नाम दे देते हैं।
इसलिए भी खतरनाक है यह घटना
यह घटना इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि यह प्रेस क्लब जैसी संस्थाओं को विचारधारात्मक कब्जे का अड्डा बनाने की शुरुआत है। आज चेन्नई में आरएसएस से कथित तौर पर जुड़े चैनल को निकाला गया, कल को कहीं और वामपंथी या कांग्रेस समर्थक चैनल को। परसों कोई हिंदुत्ववादी संगठन प्रेस क्लब पर कब्जा करके सेकुलर मीडिया को बाहर कर देगा। अंत में प्रेस क्लब पत्रकारों का साझा मंच नहीं, अलग-अलग गुटों के निजी ड्राइंग रूम बनकर रह जाएंगे। और इसका सबसे बड़ा नुकसान उन स्वतंत्र पत्रकारों को होगा जो किसी भी विचारधारा के साथ 100 फीसदी खड़े नहीं होते।
फासीवादी मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण
तमिल जनम का पक्ष चाहे जो हो, लेकिन एक पत्रकार को सिर्फ इसलिए ‘पत्रकार नहीं’ कहना कि उसकी विचारधारा आपको पसंद नहीं, यह फासीवादी मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण है। अगर यही मानक चल पड़ा तो जल्द ही प्रेस कार्ड जारी करने का अधिकार भी विचारधारात्मक संगठनों के पास चला जाएगा। कोई वामपंथी संघ बनेगा जो तय करेगा कि फलाने चैनल को प्रेस कार्ड मिलेगा या नहीं। कोई हिंदुत्ववादी संघ बनेगा जो अपना अलग प्रेस कार्ड बांटेगा। और बीच में आम पत्रकार मारा-मारा फिरेगा।
यह घटना सिर्फ चेन्नई या तमिलनाडु तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश के लिए चेतावनी है। अगर आज हम चुप रहे तो कल को कोई भी आयोजक, कोई भी संगठन, कोई भी व्यक्ति अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कह सकेगा—“इसे मैं पत्रकार नहीं मानता।” और बाहर का रास्ता दिखा देगा। यह प्रेस की आजादी का गला घोंटने की शुरुआत है। इसे रोकना होगा, अभी और यहीं। वरना जिस दिन प्रेस क्लब में प्रवेश के लिए विचारधारा का सर्टिफिकेट दिखाना पड़ेगा, उस दिन भारतीय मीडिया की आजादी की अंतिम सांस निकल जाएगी।



