Sanjay Tiwari
देश की राजधानी दिल्ली से हरियाणा का नूह 100 किलोमीटर भी नहीं है। गुरुग्राम पार करते ही नूंह जिला शुरु हो जाता है। लेकिन देश की राजधानी से इतना करीब होने के बाद भी वहां सोमवार को 2500 हिन्दुओं को अपनी जान बचाने के लिए एक मंदिर में शरण लेनी पड़ी। इतना ही नहीं, उनकी जान बचाने के लिए उन्हें वहां से एयरलिफ्ट तक करना पड़ा। यह सब तब हो रहा है जब देश दुनिया में यह शोर है कि केन्द्र में एक ऐसी कट्टरपंथी आरएसएसवादी सरकार है जिसका एक ही काम है कि ‘वह मुस्लिम समुदाय का दमन करे।’
संयोग से न केवल केन्द्र में ‘कट्टरपंथी’ मोदी की सरकार है बल्कि राज्य में भी भाजपा की ही सरकार है और मनोहरलाल खट्टर मुख्यमंत्री है। वह अनिल विज उस राज्य के गृहमंत्री हैं जिन्हें समय समय पर एक ‘कट्टरपंथी हिन्दू’ बताकर प्रचारित किया जाता है। इतने सारे ‘कट्टरपंथियों’ के सरकार में होने के बावजूद अगर उनकी नाक के नीचे ‘सुनियोजित’ तरीके से हिन्दुओं के खिलाफ दंगा भड़काया जाता है और वो दंगाइयों से अपनी जान बचाने के लिए किसी मंदिर में शरण लें तो फिर पीड़ित किस अल्पसंख्यक को कहा जाए और उपद्रवी किस बहुसंख्यक को ठहराया जाए?
अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का बहुप्रचारित सिद्धांत असल मामले में कहीं लागू होता है तो वह मेवात रीजन का नूह जिला ही है। इस जिले की कुल जनसंख्या 11 लाख है जिसमें लगभग 80 प्रतिशत ‘मुस्लिम अल्पसंख्यक’ हैं। कश्मीर के बाहर नूह एकमात्र ऐसा जिला है जहां 80 प्रतिशत के आसपास मुस्लिम बसते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक इस जिले के पुन्हाना तहसील में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या 87.38 प्रतिशत है। सेन्टर फॉर पॉलिसी स्टडीज द्वारा मेवात रीजन पर किये गये एक अध्ययन से पता चलता है कि 1981 से 2011 के बीच ही नूह जिले की जनसंख्या में बड़ा बदलाव आया है। 1981 में नूह जिले (तब मेवात) में मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत 66.33 था जो तीन दशक में ही 2011 में बढकर 79.20 हो गया।
जनसंख्या का ऐसा असंतुलन जब कहीं पैदा होता है तो वहां क्या होता है इसे जानने के लिए नूह को जानना जरूरी है। ऊपरी तौर पर ऐसे दंगे अनियोजित और परिस्थितिजन्य कारणों से उत्पन्न हुआ बताये जाते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। वो पूरी तरह से सुनियोजित होते हैं। ऐसे दंगों के पीछे आमतौर पर जो बात ऊपरी तौर पर दिखती है वह गैर मुस्लिमों में भय पैदा करना होता है ताकि वो अपने जान माल की रखवाली करते हुए वहां से चले जाएं। हम बार बार लौटकर कश्मीर की ओर देखते हैं लेकिन ये प्रयोग तो यूपी, बिहार के कई इलाकों में बार बार दोहराया जा चुका है। नूह और सोहना में भी यही हुआ है। वहां से सैकड़ों परिवारों के पलायन की खबर सामने आने लगी है जो सुरक्षित ठिकानों की तलाश में अपना घर बार छोड़कर निकल गये हैं।
मुस्लिम समुदाय द्वारा ऐसा सुनियोजित दंगा न पहली बार किया गया है और न यह आखिरी है। जब तक समुदाय के मजहबी मौलवी मौलाना उसके दिमाग में दिन रात ‘काफिर, मुशरिक’ का भेद भरते रहेंगे और दूसरे समुदायों के प्रति उकसाते रहेंगे, ऐसे दंगे कभी रुकनेवाले नहीं हैं। फिर मेवात तो ऐसे भेद पैदा करनेवालों का गढ है। मेवाती या मेव मुसलमानों के बारे में कभी से कहा जाता था कि वो उतने ही मुस्लिम हैं जितने जाट हिन्दू। अर्थात कहने के लिए तो इन्होंने दबाव में इस्लाम स्वीकार कर लिया लेकिन अपनी हिन्दू जड़ों से जुड़े रहे।
इसीलिए 1920 के दशक में जब स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आंदोलन चलाया तो इसी मेवात रीजन के कम से कम डेढ लाख मलकाने राजपूत पुन: हिन्दू धर्म में लौट आये। उस समय स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन बड़ा मुद्दा बना था। कांग्रेस ने स्वामी श्रद्धानंद की अगुवाई में एक बैठक भी करवाई थी। इस बैठक में स्वामी श्रद्धानंद ने प्रस्ताव किया कि अगर मुस्लिम धर्म प्रचारक धर्मांतरण का काम रोक दें तो वो भी शुद्धि अभियान को रोक देंगे। मुस्लिम मौलवी इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसके उलट दिल्ली के निजामुद्दीन से सच्चे इस्लाम की शिक्षा देकर मेवाती नौजवानों को इस काम में लगाया गया कि वो धर्मांतरित हिन्दुओं को सच्चा मुसलमान बनाये।
1926 में सहारनपुर के कांधला कस्बे में पैदा होनेवाले इलियास कंधालवी ने सच्चा मुसलमान बनाने की मुहिम शुरु किया जिसके जरिए धर्मांतरित हिन्दुओं को सही इस्लाम की शिक्षा देनी थी। इस मसले पर मिल्ली गजट लिखता है “अब यह जरूरी हो गया था कि हर मुसलमान ईमान का पक्का हो। उसे इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों की समझ हो।” इस्लाम की इसी बुनियादी समझ को विकसित करनेवाले अभियान को तब्लीगी जमात कहा गया जो आज लगभग पूरे देश में काम कर रहा है। देओबंदी फिरके से जुड़ी तब्लीगी जमात द्वारा दी जानेवाली सच्चे इस्लाम की शिक्षाएं समाज में शांति और सद्भाव के लिए कितनी घातक हैं वह इससे समझा जा सकता है कि खुद सऊदी अरब ने तब्लीगी जमात पर बैन लगा रखा है। दिसंबर 2021 में बैन लगाते हुए सऊदी अरब ने तब्लीगी जमात को ‘आतंक का दरवाजा’ और ‘समाज के लिए खतरा’ बताया था।
लेकिन ऊंचे पाजामे और लंबे कुर्ते की यह ‘लोटा मुहिम’ नूह में ही नहीं आज देश के छोटे छोटे गांव कस्बों में भी सच्चा मुसलमान बनाने की गारंटी बन गया है। बीते लगभग सौ सालों से यह मुहिम मेवात से निकलकर पूरे देश में फैल गयी है जिसका सिर्फ एक काम है कि वह मुस्लिम समुदाय को हिन्दू मूर्तिपूजकों से अलग करे। हिन्दू या कोई भी मूर्तिपूजक इस्लाम के लिए नापाक हैं, उनसे दोस्ती करना या संबंध रखना इस्लाम की तौहीन करने तथा जहन्नुम की आग में जलने जैसा है। गैर मुस्लिमों का कन्वर्जन इस जमात का घोषित उद्देश्य है जिसे ये लोग ‘दावा’ कहते हैं।
इसलिए लोगों को यह समझना होगा कि नूंह का दंगा ये कोई तात्कालिक समस्या नहीं है। इस समस्या को पैदा करने और उसे बढाते जाने का काम एक सौ साल से अनवरत चल रहा है। जब तक उस सोच पर रोक नहीं लगायी जाएगी, समाज में स्थाई शांति कभी नहीं आ पायेगी। लेकिन जैसा कि बीते कई दशकों से हो रहा है, हम भारत की सांप्रदायिक समस्या की बुनियाद तक पहुंचने की बजाय उसका राजनीतिकरण करते हैं। लोग समस्या की जड़ तक न पहुंच सके इसके लिए देश में इन कट्टरपंथियों का एक बड़ा समर्थक नेता, बुद्धिजीवी और मीडिया वर्ग भी है। ऐसे दंगों और उपद्रव के बाद यह वर्ग सक्रिय हो जाता है और समस्या के मूल से ध्यान भटकाकर कहीं और ले जाता है तथा उपद्रवी को ही विक्टिम साबित करने में जुट जाता है।
जैसे दिल्ली दंगे के समय सारा मलवा कपिल मिश्रा के सिर पर डालने की कोशिश की गयी। वैसा ही कुछ काम नूह में भी किया जा रहा है। मीडिया और बौद्धिक समूह का एक वर्ग यह बताने में जुट गया है कि कैसे बजरंग दल के मोनू मानेसर की वजह से दंगा भड़क गया। या फिर यह कि मेव मुस्लिम तो आधे हिन्दू होते हैं। वो भला हिन्दुओं के खिलाफ दंगा क्यों करेंगे? लेकिन ऐसा कहते समय बड़ी चालाकी से तब्लीगी जमात की कट्टरपंथी सोच और उसके प्रभाव को छिपा ले जाते हैं। इसमें जमात की ही साथी जमीयत ए उलमा ए हिन्द से लेकर कट्टरपंथी बुद्धिजीवी और तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेता सब शामिल हैं।
स्वाभाविक है जो लोग ऐसे नैरेटिव गढते हैं वो दंगाइयों के बी टीम की तरह होते हैं जिनका काम एक ऐसा छद्म विक्टिम कार्ड खेलना होता है जिसमें पीड़ित को दंगाई और दंगाई को पीड़ित साबित किया जा सके। जैसे दंगाइयों की बी टीम जमीयत ए उलमा ए हिन्द तत्काल नूह में सक्रिय हो गयी है और दंगे का सारा दोष उन पर डाल रही है जो पीड़ित हैं।
शासन प्रशासन का रवैया अब दंगा को रोकने की बजाय दंगा हो जाने के बाद पीस कमेटी बनाने और तत्काल शांति कायम करनेवाला ही रहा है ताकि प्रतिक्रिया में हालात और अधिक न बिगड़ें। इससे आगे जाकर दंगाई मानसिकता पर प्रहार करने, उनका निशस्त्रीकरण करने का प्रयास स्वतंत्र भारत में कभी किया ही नहीं गया।
हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य बनकर उभरा है जिसने दंगाइयों को रोकने की बजाय उनकी दंगाई मानसिकता को कुछ हद तक सीमित करने का काम किया है। यूपी में दंगाई मानसिकता वाले लोगों के मन यह भय बैठा है कि अगर वो ऐसा करते हैं तो शासन प्रशासन उन्हें बर्बाद कर देगा। अगर हरियाणा सरकार नूह में दंगा शुरु करनेवाले दंगाइयों के खिलाफ ऐसी ही कठोर इच्छाशक्ति दिखाती है तभी दंगाइयों और उनके समर्थक वर्ग का मनोबल टूटेगा। यही समाज में स्थाई शांति की गारंटी भी होगी।