रवि पाराशर
दिल्ली । किसी व्यक्ति, समूह या विषय को लेकर समय-समय पर धारणा-अवधारणा बदलना मनुष्य का मूल स्वभाव है। औषधियों और खाद्य पदार्थों समेत उपभोग की तमाम भौतिक वस्तुओं और उनके विशेषज्ञों के गुणधर्म और अनुभव स्थिर रहने पर भी उन्हें बरतने के मामले में व्यक्तियों की राय बदलना भी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है। किंतु बड़ा प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति या समूह की मौलिक आस्था में क्या परिवर्तन संभव है? मूल प्रकृति के उगाए ‘आलू’ को किसी तरह का कर्मकांड कर ‘POTATO’ कहने से उसके गुणधर्म में मौलिक तो छोड़िए, क्या कोई भी परिवर्तन हो सकता है? उत्तर के लिए कोई पोथी पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। सीधा सा जवाब है कि नहीं हो सकता।
कन्वर्जन अमानवीय है
यदि सैद्धांतिक और मौलिक व्यावहारिक व्याख्या सिद्ध करती है कि आध्यात्मिक आस्थाओं का मौलिक स्वरूप भौतिक कर्मकांड के माध्यम से नहीं बदल सकता, तो फिर बड़ा प्रश्न यह है कि इस्लाम और ईसाई धर्म दूसरी मान्यताएं, आस्थाएं रखने वाले लोगों के कन्वर्ज़न की मुहिम में क्यों लगे हैं? इसके लिए वे छल-कपट के तमाम प्रपंच क्यों रच रहे हैं? विद्वानों को इस बारे में व्यापक विवेचना करनी चाहिए कि दुनिया के दो बड़े और शक्तिशाली समूह संगठित तौर पर साम-दाम-दंड-भेद के सिद्धांत पर अमल करते हुए भारत में कन्वर्ज़न की काली मुहिम में क्यों जुटे हुए हैं?
एक स्थूल उत्तर अक्सर यह मिलता है कि इस्लाम का प्रचार करने वाले भारत समेत पूरी दुनिया को इस्लामिक वर्ल्ड में बदलना चाहते हैं, यह उनका अंतिम धार्मिक उद्देश्य है। पता नहीं ईसाई मिशनरी का भी अंतिम धार्मिक उद्देश्य यही है या नहीं। किंतु विश्व को मुस्लिम वर्ल्ड बनाने की लालसा क्या किसी भी तरह आध्यात्मिक कर्तव्य के दायरे में रखी जा सकती है और क्या ऐसा करना मानवीय हो सकता है? क्या नृविज्ञान में इस मानवीय प्रवृत्ति की कोई स्पष्ट व्याख्या है? इन प्रश्नों की विवेचना भी आवश्यक है।
परिवर्तनीय नहीं है हिंदुत्व
एक और प्रश्न पर भी संक्षेप में विचार कर लिया जाए कि क्या किसी तरह का कर्मकांड कर देने से किसी शाश्वत सनातनी मौलिक हिंदू का धर्म उसकी इच्छा या अनिच्छा से बलपूर्वक या छल-कपट से बदला जा सकता है? सनातन परंपरा में धर्म शब्द का आशय अंग्रेज़ी के रिलीजन शब्द जैसा नहीं है, बल्कि कर्तव्यों का द्योतक है। कोई हिंदू जानबूझ कर या धोखे से कन्वर्जन कर ले या षड्यंत्र का शिकार हो जाए, तो भी सैद्धांतिक तौर पर वह हिंदू ही रहेगा। पूजा पद्धति, वेशभूषा, खान-पान बदल लेने से मूल हिंदू नागरिक ईसाई या मुसलमान नहीं हो जाएगा।
भारतीय चिंतन परंपरा के हिसाब से सैद्धांतिक तौर पर ऐसा नहीं हो सकता, फिर भी कुचेष्टाओं के आगे झुकने से व्यावहारिक तौर पर नकारात्मक संदेश ही समाज में जाता है। इसलिए बहुत से संतों, महात्माओं, सिख गुरुओं ने प्राणों की आहुतियां दीं, लेकिन कन्वर्ज़न नहीं किया। उन्होंने यह संदेश दिया कि धर्म बदलना सबसे बड़ा पाप है। इस चर्चा के बीच यह भी हम जानते ही हैं कि संवैधानिक तौर पर भारत आज पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र है। कोई भी भारतीय स्वेच्छा से किसी रिलीजन को अपना सकता है। संविधान में हर धर्म का आदर सुनिश्चित किया गया है। इसलिए डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुष बड़े विमर्श के साथ धर्म बदलते हैं, तो वे हिंदू समाज के लिए तिरस्कृत या कम सम्माननीय नहीं हो जाते। बहुत से विदेशी महापुरुषों ने अपना मूल धर्म त्याग कर सनातन धर्म अपनाया है, तो वे अधिक आदरणीय नहीं हो जाते।
ईसाई मिशनरी ने ओढ़ा छद्म चोला
इस लेख में हम बताने का प्रयास कर रहे हैं कि धर्म परिवर्तन या मतांतरण या कन्वर्ज़न सबसे बड़ा पाप है, फिर भी इस्लाम और ईसाइयत के दलाल अमानवीय हरकतों में लिप्त हैं। हमें पता है कि जब दुनिया कोविड-19 महामारी से लड़ रही थी, तब भी ईसाई मिशनरी मानवता की सेवा के बजाय कन्वर्जन का कुचक्र रचने में जुटी थी। इसके लिए तरह-तरह के नए हथकंडे अपनाए जा रहे थे। अब तो कन्वर्जन के षड्यंत्रों को भारतीयता के रंग में रंगा हुआ दिखाया जा रहा है, ताकि निश्छल लोगों को आसानी से भ्रमित किया जा सके।
यीशु के भारतीयकरण का छद्म
मिशनरी ने अब ईसाई धर्म को भारतीय धार्मिक आवरणों, प्रतीकों, संस्कृति के अनुसार ढालना शुरू कर दिया है। भोले-भाले अशिक्षित लोगों को लगता है कि वे जो देख रहे हैं, गा रहे हैं, वह सनातन वैदिक परंपरा के रंग में ही रंगा हुआ है। लेकिन असल में वह ईसाइयत की मान्यताओं से ही जुड़ा है। इस्लाम धर्म के उलट हिंदुत्व की तरह ईसाई धर्म में भी मूर्ति पूजा निषिद्ध नहीं है। भारत में इस बात का ही लाभ मिशनरी उठाना चाहती है। लोगों को समझाया जा रहा है कि कृष्ण भक्ति छोड़े बिना यीशु की भक्ति की जा सकती है, क्योंकि दोनों में बहुत समानता है। कृष्ण, जगत को पालने वाले हैं, तो यीशु भी जगत के परमेश्वर हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि श्रीमद्भागवत और गीता के उद्धरण देकर, बचकाने तर्क गढ़ कर हिंदुओं को ईसाइयत अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। हमारे विचार से ही हम पर प्रहार किया जा रहा है।
ब्रज सहित पूरे भारत में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को बहुत रुचिकर लगता है। मिशनरी ने इसका लाभ लेने का षड्यंत्र रचा और ईसा मसीह को बाल रूप में कृष्ण की तरह दिखाया जाने लगा है। मदर मेरी की छवि भी माता यशोदा जैसी बनाई जा रही है। इतना ही नहीं, मदर मैरी की गोद में बाल गणेश या बाल कृष्ण के बैठे होने की तस्वीरों का सहारा भी लिया गया, ताकि भोले-भाले हिंदुओं को भ्रमवश अनुभव हो कि वे किसी विधर्मी प्रक्रिया से नहीं, बल्कि हिंदुत्व की ही किसी दूसरी सनातन परंपरा से जुड़ रहे हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
सनातन आस्था के बड़े केंद्रों और जनजातीय क्षेत्रों में काम कर रहे मिशनरी कार्यकर्ताओं की वेशभूषा में भी आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया है। कन्वर्जन के षड्यंत्रकारियों ने कोट-पेंट छोड़ कर भगवा कपड़े, माथे पर तिलक और गले में रुद्राक्ष, तुलसी इत्यादि की माला, हाथ में कलावा इत्यादि हिंदुत्व के प्रतीक अपना लिए हैं। परंपरागत भारतीय मालाओं में छोटे क्रॉस डालकर पहने-पहनाए जा रहे हैं। ईसाइयत के प्रति आस्था की व्याख्या वे खड़ी हिंदी में नहीं, बल्कि ब्रज भाषा और जनजातीय भाषाओं में ही उतने ही सधे हुए देशज उच्चारण में करते हैं। कुल मिला कर जिस तरह ‘साई’ अब ‘ओउम् साई राम’ हो गए हैं, उसी तरह जीसस या यीशु का भी विशुद्ध भारतीयकरण कर दिया गया है।
ब्रज में कृष्ण की उपासना के लिए तरह-तरह के लोकगीत आरती के रूप में ब्रजभाषा में वहां की लोकधुनों में गाए जाते हैं। इसी तरह मिशनरी ने ईसा मसीह की प्रार्थनाएं ब्रज भाषा में रच डाली हैं, जो कृष्ण भक्ति के गीतों की लोकधुनों पर ही आधारित हैं। यीशु के कृष्ण सदृश्य चित्रों, आरतियों की सीडी और पुस्तकों का वितरण बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। देखने में वे बिल्कुल भारतीय धार्मिक साहित्य जैसी लगती हैं। यीशु के लिए ‘परमेश्वर’ शब्द का ही प्रयोग मुख्य रूप से हो रहा है। परमेश्वर शब्द भारतीय आध्यात्मिक चिंतन प्रक्रिया में ईश्वर की परम् सत्ता के लिए प्रयुक्त होता है, इसलिए भ्रम की स्थिति बनती है। लोगों को लगता है कि यह कोई बहुत भिन्न राह नहीं है। दोनों राहें साथ-साथ अपनाई जा सकती हैं। कृष्ण भक्ति छोड़नी नहीं है, यीशु भक्ति अपनानी है, जिसके लिए उत्कोच (पैसे, अनाज, दूसरी वस्तुएं, रोजगार, इलाज, स्कूलों में प्रवेश इत्यादि) भी मिल रहा है, तो फिर परेशानी क्या है!
ब्रज की लोकधुनों पर आधारित यीशु के गीतों के वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर वायरल किए जा रहे हैं। चमत्कारी कहानियों पर आधारित वीडियो में यीशु के बाल रूप को कृष्ण के जैसा दिखाया जा रहा है। आम तौर पर भेड़ चराते यीशु की तस्वीरें देखने को मिलती हैं, लेकिन ब्रज क्षेत्र में गोवंश चराते हुए यीशु के चित्र प्रचलित किए जा रहे हैं। कुल मिला कर कृष्ण भक्तों को लालच देकर कन्वर्जन के जाल बुने जा रहे हैं। उन्हें समझाया जा रहा है कि यीशु और कृष्ण की भक्ति में कोई अंतर नहीं है। यदि वे यीशु की पूजा करेंगे, तो उनका परलोक तो सुधरेगा ही, जीवित रहते कई तरह की भौतिक सुविधाएं भी मिलेंगी। कुछ सेटेलाइट धार्मिक टीवी चैनलों पर स्लॉट लेकर और बहुत से यूट्यूब चैनलों के माध्यम से दुष्प्रचार को धार दी जा रही है। लोग झांसे में आ भी रहे हैं। हालांकि विश्व हिंदू परिषद और दूसरे कई संगठन इस दुष्प्रचार की धार कुंद करने में लगे हैं।
शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से सॉफ्ट कन्वर्जन
ईसाई मिशनरी देश भर में बहुत से शिक्षण संस्थान चला रही है। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की गहरी जड़ों की वजह से देश में कॉन्वेंट शिक्षा के प्रति आग्रह बढ़ा है। हालांकि अब नई शिक्षा नीति लाई गई है, लेकिन शिक्षा के पूरी तरह भारतीयकरण में समय लगेगा। मिशनरी द्वारा संचालित स्कूलों में दैनिक प्रार्थनाओं और दूसरी कई नियमित परंपराओं के माध्यम से विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के मन में ईसाइयत के प्रति निष्ठा के बीज बोने का प्रयास किया जाता है। क्रिसमस और दूसरे ईसाई उत्सवों के अवसर पर छात्र-छात्राओं और अभिभावकों को प्रार्थना सभाओं और दूसरे कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए चर्च आने को विवश किया जाता है।
मिशनरी स्कूलों में भारतीय वेशभूषा निषिद्ध है। कोट-पेंट-टाई और स्कर्ट पहनना अनिवार्य है। गले में तुलसी या रुद्राक्ष की माला, जनेऊ, माथे पर तिलक, हाथ पर कलावा या सिर पर चोटी जैसे हिंदू प्रतीक छात्र-छात्राएं धारण नहीं कर सकते। अंग्रेज़ी नव वर्ष के अवसर पर सेंटा क्लॉज के माध्यम से अबोध बच्चों के मन में ईसाइयत के प्रति प्रेम जगाने के प्रयास किए जाते हैं। क्रिसमस पर बहुत से सनातनी परिवार छोटे-छोटे बच्चों को सेंटा की वेशभूषा पहनाने लगे हैं। घरों में क्रिसमस ट्री भी सजाने लगे हैं।
‘जिंगल बेल’ जैसी धुनें बहुत से लोगों की जुबान पर चढ़ चुकी हैं। जन्मदिन और दूसरे शुभ अवसरों पर पूजा-पाठ, कथा, हवन की बजाय केक काटने की परंपरा आम हो चुकी है। विरोध जताने के लिए या किसी मांग के समर्थन में मोमबत्तियां जला कर रैलियां या प्रदर्शन करने की परंपरा भी चर्च की ही देन है। मालाओं में सजावटी क्रॉस पहनना आम होता जा रहा है। इस तरह धर्म बदले बिना ही एक तरह से सॉफ़्ट कन्वर्जन किया जा रहा है। बहुत से सनातनधर्मी अज्ञानतावश या मजबूरी में इसके शिकार हो रहे हैं।
इलाज, सहायता के नाम पर कन्वर्जन
ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई मिशनरी इलाज के नाम पर कन्वर्जन की मुहिम चला रही है। उचित चिकित्सा व्यवस्था नहीं होने और आसपास के शहरी क्षेत्रों में महंगा इलाज होने के कारण अनुसूचित जनजाति और पिछड़े इलाकों के लोग मिशनरी के जाल में फंस जाते हैं। पंजाब में चंगाई सभाओं के माध्यम से ईसाइयत का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। विषम परिस्थितियों में या प्राकृतिक आपदाओं के समय सेवा कार्यों के माध्यम से सहानुभूति जता कर भी कन्वर्जन के लिए विपन्न लोगों को प्रेरित किया जा रहा है।
आयुर्वेद को नीचा दिखाने का षड्यंत्र
कोविड-19 महामारी के दौरान रोजगार दे कर और खाने-पीने की व्यवस्था कर भी कन्वर्जन की कई घटनाओं का पता चला है। इतना ही नहीं, कन्वर्जन के अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत बहुत सुनियोजित तरीके से भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को नीचा दिखाने का हरसंभव प्रयास काफी समय से किया जा रहा है। कोरोना महामारी के काल में आयुर्वेद के प्रति दुष्प्रचार की गति बढ़ी। वह तो संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारतीय योग परंपरा को वैश्विक स्तर पर मान्यता देने के बाद आयुर्वेद का सिक्का पूरी दुनिया में चल निकला है। फिर भी षड्यंत्र जारी हैं।
आईएमए के दुरुपयोग का षड्यंत्र
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन अर्थात आईएमए की आड़ में कन्वर्जन के प्रयासों का भी पता चला है। सोचिए कि षड्यंत्र कितना बहुआयामी है। मई, 2021 के आखिर में दिल्ली की एक कोर्ट ने आइएमए के अध्यक्ष डॉ. जॉनरोज ऑस्टिन जयालाल को समन जारी किया। उन्होंने अपने एक लेख में कोविड-19 महामारी के प्रकोप को कन्वर्जन का सही अवसर मानते हुए बीमारी से जूझ रहे लोगों के ईसाई धर्म में कन्वर्जन के प्रयास तेज करने का सुझाव दिया था। जून की शुरुआत में कोर्ट ने डॉ. जयालाल को बाकायदा निर्देश दिया कि वे धर्म के प्रचार के लिए अपने पद का दुरुपयोग करते हुए आईएमए के मंच का प्रयोग न करें। एक रिपोर्ट के अनुसार अनफोल्डिंग वर्ल्ड के प्रमुख डेविड रीव्स ने अप्रैल में मिशनरी न्यूज नेटवर्क को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘कोरोना वर्ष यानी 2020 में भारत में चर्च प्लांटिंग पार्टनरों ने इतने चर्च बनाए, जितने इससे पहले के 25 वर्षों में नहीं बनाए गए थे।
जाल में फंसने से कैसे बचें?
ईसाई मिशनरी के कन्वर्जन के प्रयासों को नाकाम करना है, तो बहुत से स्तरों पर सावधानियां बरतने की आवश्यकता है। बच्चों में शुरुआत से ही सनातन संस्कार डालें। उन्हें संस्कारों से जुड़ी वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में बताएं। जहां-जहां ईसाइयत को भारतीय जामा पहनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, उन क्षेत्रों में सनातन समाज को साधु-संतों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाना चाहिए। भारतीयता की श्रेष्ठता और महत्ता के प्रति जागरूकता अभियान चलाना बहुत आवश्यक है।
कॉन्वेंट स्कूलों के सॉफ्ट कन्वर्जन के प्रयासों का दृढ़ता पूर्वक विरोध करें। जिस सीमा पर लगे कि बच्चों में कन्वर्जन के बीज रोपे जा रहे हैं, सामाजिक स्तर पर संस्थागत सोच के साथ इसका विरोध होना चाहिए। भागवत कथाओं और दूसरे धार्मिक आयोजनों में बच्चों को नियमित रूप से ले जाना चाहिए, ताकि कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने के बाद भी उनके मन में ईसाइयत के रंग में रंगने का विचार न उभरे। घर में आंगन या बालकनी में तुलसी का पौधा अनिवार्य रूप से रखें। घर के मंदिर में नियमित रूप से पूजा-पाठ करें। बच्चों को भी इसकी आदत डलवाएं।
31 दिसंबर को अंग्रेजी नव वर्ष का अंत होता है, यह बात बच्चों के साथ-साथ युवाओं के मन में भी बैठानी चाहिए। ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के संदेशों में ‘ईयर’ शब्द से पहले ‘इंग्लिश’ जोड़ने की परंपरा विकसित करने का आग्रह बच्चों से करें। पहले चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवरात्रि की शुरुआत से हिंदू नव वर्ष प्रारंभ होता है। उस दिन सपरिवार समारोह पूर्वक उत्सव मनाएं। शुभ अवसरों पर केक काटने की परंपरा से बचें। केक कटे, तो पूजा-पाठ भी हो। बच्चों को क्रॉस या दूसरे धार्मिक चिन्ह धारण करते पाएं, तो उन्हें सजग करें। ऐसी ही छोटी-छोटी सावधानियां बरत कर सॉफ्ट कन्वर्जन से बचा जा सकता है। सनातन संस्कारों की नींव शक्तिशाली होगी, तो बाद में आस्था के भवन पर दूसरा रंग नहीं चढ़ पाएगा। हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रयोग बढ़ाएं। सोशल मीडिया पर रोमन में हिंदी लिखने से बचें।
भारत का संविधान सभी धर्मों के आदर का संदश देता है। धर्मांतरण या मतांतरण या कन्वर्जन एक तरह से राष्ट्रांतरण ही है। कन्वर्जन मात्र आस्था या पूजा पद्धि बदलने का प्रश्न नहीं, इससे कहीं अधिक संवेदनशील मामला है। ईसाई मिशनरी यदि भगवान कृष्ण और दूसरे सनातन देवी-देवताओं से बहुत प्रभावित है, श्रीमद्भागवत और गीता में ईसाइयत का सार निहित है, तो वे ईसाइयत छोड़ कर हिंदुत्व क्यों नहीं अपना लेते?



