पटना। बिहार की राजनीति में सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग हमेशा से चुनावी हथियार रहा है। हाल के दिनों में मिथिला की पहचान माने जाने वाले ‘पाग’ को लेकर एक नया विवाद सामने आया है। मिथिला क्षेत्र में पाग सिर्फ एक सिर ढकने वाली वस्तु नहीं, बल्कि सम्मान, गौरव और अस्मिता का प्रतीक है। इसे विशेष अवसरों पर मेहमानों का स्वागत करने या सम्मानित करने के लिए पहनाया जाता है। हर किसी को पाग नहीं पहनाई जाती; यह परंपरा सदियों पुरानी है और मैथिल समाज की सामाजिक गरिमा से जुड़ी हुई है।
इसी पृष्ठभूमि में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का मिथिला पाग पहनना कई लोगों को खटक रहा है। तेजस्वी यादव राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के पुत्र हैं, और कुछ मैथिल कार्यकर्ता उन्हें उस विचारधारा का प्रतिनिधि मानते हैं जिसने मैथिली संस्कृति को नुकसान पहुंचाया। लोग सवाल उठा रहे हैं कि जिस परिवार पर मैथिली भाषा और संस्कृति की उपेक्षा के आरोप हैं, उसके वारिस को पाग पहनाने का हक किसने दिया? क्या यह वोट बैंक की राजनीति है या सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने की कोशिश?
दरअसल, मिथिला आज भारत की सांस्कृतिक धरोहर बन चुका है। मधुबनी पेंटिंग विश्व प्रसिद्ध है, मैथिली साहित्य विद्यापति जैसे कवियों से समृद्ध है, और पुनौरा धाम जैसे प्रोजेक्ट इसे नई ऊंचाई देने वाले हैं। लेकिन स्थानीय नेता चुनावी लाभ के लिए इन प्रतीकों का उपयोग कर रहे हैं। एक तरफ एनडीए इसे विकास से जोड़ रहा है, तो दूसरी तरफ महागठबंधन इसे भावनात्मक मुद्दा बना रहा है। यह बिहार के नेताओं की नई लाचारी है- अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की लड़ाई में वे खुद ही उसे राजनीतिक औजार बना रहे हैं।
मिथिला की जनता अब जागरूक है। वह जानती है कि पाग का सम्मान सिर्फ पहनने से नहीं, बल्कि संस्कृति की रक्षा से होता है। आने वाले समय में पुनौरा धाम बिहार की नई पहचान बनेगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या नेता इसे सच्चे मन से अपनाएंगे या सिर्फ चुनावी स्वार्थ के लिए?



