मोदी के कार्यकाल में आदिवासी समाज

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शंभू शिखर

दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज जिस मुकाम पर हैं, वह न तो उन्हें विरासत में मिला है, न ही किसी की अनुकंपा पर।वे एक साधारण परिवार में जन्मे थे। काफी उतार-चढ़ाव और संघर्षों के बाद वे भारत के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हैं। वे ज़मीन से जुड़े नेता हैं। उन्होंने गरीबी देखी है। बदहाली झेली है। भारतीय समाज को बारीकी से देखा है। समझा है। इसीलिए गरीबों के प्रति उनके मन में करुणा का भाव रहा है। वे बचपन से ही भारतीय समाज की विसंगतियों को महसूस करते थे। उसे समाप्त करने के उपायों पर चिंतन करते थे। दलितों और आदिवासियों के प्रति उनका शुरू से झुकाव रहा है। अपने युवावस्था में वे साइकिल पर सवार होकर दूर-दराज की दलित बस्तियों और आदिवासी गांवों में निकल जाया करते थे। उनकी झोपड़ियों में जाकर उनके परिजनों की तरह घुल-मिल जाया करते थे। उनके जीवन की कठिनाइयों को देखते थे और सोचते थे कि ऊपरवाले ने कभी मौका दिया तो उनके उत्थान के लिए कुछ करेंगे।

संघ का कार्यकर्ता बनने के बाद उन्हें समाज के हर तबके के बीच जाने का और मौका मिला। राजनीति में आने के बाद वे अपनी क्षमता के मुताबिक अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की मदद करते रहे लेकिन असली मौका उन्हें 2014 में मिला जब केंद्र में उनके नेतृत्व में भाजपानीत एनडीए की सरकार बनी। अब वे स्वयं फैसले ले सकते थे। उन्हें ज़मीन पर उतार सकते थे। उन्होंने आदिवासी समाज के विकास और उत्थान को प्राथमिकता में रखा। आदिवासी समाज के जीवन को बेहतर बनाकर उन्हे मुख्यधारा में लाने का संकल्प लिया। उनके उत्थान और कल्याण के काम करना शुरू किया। उनके नेतृत्व में आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने नई-नई योजनाओं का प्रारूप तैयार किया। पीएमओ और कैबिनेट की मंजूरी ली और उनका क्रियान्वयन किया। आदिवासी समाज के सशक्तीकरणके साथ उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया।

पीएम मोदी के 11 वर्षों के कार्यकाल में आदिवासियों के उत्थान के लिए जितने कार्य किए गए उतने आजादी के बाद किसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल मेंनहीं हुए थे। जनजातीय लोगों के विकास के साथ ही उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वायत्तता की सुरक्षा के लिए भी मोदी सरकार के कार्यकाल में कई ठोस कदम उठाए गए। मोदी सरकार की तत्परता के कारण सरकारी योजनाओं का लाभ दूर-दराज के इलाकों में बसे जनजातीय लोगों को मिलने लगा। इसी का परिणाम है कि अब वे देश के अन्य लोगों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे हैं।

बजट में बढ़ोतरी
ऐसा नहीं है कि पूर्व की सरकारों ने आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया। आजाद भारत के संविधान में उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया। आरक्षण का लाभ दिया। लेकिन उनका उद्देश्य आदिवासियों का उत्थान कम और उन्हें वोट बैंक के रूप में बनाए रखना ज्यादा रहा। उनके लिए विकास योजनाएं भी बनीं लेकिन उनके मद में आवंटित राशि का अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता रहा।

मोदी सरकार ने आदिवासियों के उत्थान के प्रति जो भी किया वह पूरी प्रतिबद्धता के साथ किया। लाभार्थियों से सीधा संपर्क साधा। बिचौलियों को रास्ते से हटाया। उनपर अंकुश लगाया। इसीलिए पिछले 11 सालों में केंद्र की ओर से चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं का आदिवासी समाज को भरपूर लाभ मिला। इससे आदिवासी समाज के जीवनस्तर में खासा सुधार आया। मोदी सरकार ने उनके लिए बजटीय आवंटन में निरंतर इजाफा किया। 2025-26 के केंद्रीय बजट में जनजातीय विकास के मदके आवंटन में तीनगुना इजाफा किया गया ।2013-14 के वित्तीय वर्थ में यूपीए सरकार ने आदिवासी कल्याण के मद में 4295.94 करोड़ रुपये का बजट दिया था जो मोदी जी के आने के बाद बढ़ता गया और 2025-26तक बढ़कर 14926करोड़ रुपये हो गया। मतलब करीब चार गुना इजाफा।

मोदी सरकार ने वर्ष 2017-18 के बजट में जनजातीय मंत्रालय के आवंटन में 10 फीसदी की बढ़ोतरी की थी। इस मद में कुल 5329 करोड़ रुपये के बजट का आवंटन किया था, जबकि 2016-17 के वित्तीय वर्ष में 4847 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने सभी मंत्रालयों में अनुसूचित जन-जातियों के कल्‍याण के लिए भी बजट आवंटन में 30 प्रतिशत से अधिक वृद्धि की। इस मद के लिए 24005 करोड़ रुपये की राशि को बढ़ाकर 31920 करोड़ रुपये का बजट आवंटन किया। अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए उच्‍चतर शिक्षा संबंधी नेशनल फेलोशिप और स्‍कॉलरशिप हेतु बजट में 140 प्रतिशत की वृद्धि की। इसके लिए वर्ष 2016-17में यह50 करोड रूपये था।2017-18 के वित्तीय वर्ष नें इसे बढ़ाकर 120 करोड़ रुपये का प्रावधान किया।

आदिवासी समाज की बात करें तो कम ही लोगों को पता होगा कि आज़ादी के बाद 1951की जनगणना तक आदिवासियों की गिनती एक स्वतंत्र समूह के रूप में होती थी। लेकिन इसके बाद उन्हें अलग से गिनना बंद कर दिया गया। 1951 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की संख्या 9,91,11,498 थी, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर12,43,26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.।2 प्रतिशत थी। लेकिन उनकी जनसंख्या वृद्धि की दर अन्य समुदायों से कम थी। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30राज्यों में कुल 705तरह की जनजातियां रहती हैं। संस्कृत के विद्वानों ने आदिवासियों को अत्विका और वनवासी लिखा। महात्मा गांधी ने गिरिजन कह कर पुकारा। भारतीय संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया।

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में संथाली, उरांव, भील, धानुक,, गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, बोडो, कोल, भील, कोली, फनात, सहरिया, कुड़मी महतो, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टाकणकार आदि शामिल हैं। उनका निवास मुख्य रूप से झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि में है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में भी उनकी मौजूदगी है लेकिन वहां उनकी संख्या बहुत कम है।जबकि पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजातीय आबादी बहुसंख्यक हैं। इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में ‘अनुसूचित जनजातियों’ के रूप में मान्यता दी गई है।लेकिन उनकी बड़ी संख्या और मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण का वाहक होने के बावजूद उन्हें वह सम्मान नहीं मिला था जिसके वे हक़दार है। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार उन्हें उनका सम्मान दिलाने का निरंतर प्रयास किया। 2022 में तो आदिवासी समाज की महिला नेत्री द्रौपदी मुर्म को प्रथम आदिवासी महिला राष्ट्रपति के रूप में चुना। उन्हें भारत के प्रथम नागरिक का दर्जा देकर आदिवासी समाज को गौरवान्वित किया।

नरेंद्र मोदी के प्रयास से भव्य आदिवासी महोत्सवों का आयोजन होने लगा जिसमें वे स्वयं मौजूद रहते हैं। 2018 में यह आयोजन मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में हुआ था। उसका उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि “पहले जो खुद को दूर-सुदूर समझता था अब सरकार उसके द्वार पर जा रही है, उसको मुख्यधारा में ला रही है। आदिवासी समाज का हित मेरे लिए व्यक्तिगत रिश्तों और भावनाओं का विषय है। 21 वीं सदी का नया भारत ‘सबका साथ सबका विकास’ के दर्शन पर काम कर रहा है।”

प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि आदिवासी समाज के विकास से ही “सबका साथ, सबका विकास” संभव होगा और इसी कारण केंद्र सरकार बीते कुछ वर्षो ने आदिवासी जनजातीय समाज के लिए मिशन मोड में काम कर रही है ताकि उनके जीवन के सभी आयामों को बेहतर किया जा सके।

इसका फलाफल दिखा भी है। जनजातीय लोगों का जीवन स्तर पहले से अधिक उन्नत हुआ है। शिक्षा के प्रति उनका रूझान बढ़ा है। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक में आदिवासी बच्चों की भागीदारी बढ़ी है। 2004से 2014 के बीच भारत में केवल 90 ‘एकलव्य स्कूल’ खुले थे, जबकि 2014 से 22 तक की अवधि में मोदी सरकार ने 500से ज्यादा ‘एकलव्य स्कूल’ स्वीकृत किए, जिनमें पढ़ाई बखूबी चल रही है। उनमें एक लाख से ज्यादा जनजातीय छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। आदिवासी युवाओं के सामने शिक्षा के दौरान सबसे बड़ी चुनौती भाषा की होती थी लेकिन 2020 की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा में पढ़ाई का विकल्प भी खोल दिया गया है। जिस कारण आदिवासी बच्चे, आदिवासी युवा अपनी मातृभाषा में पढ़ पा रहे हैं।

स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो “आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना” में करीब 91.93 लाख आयुष्मान कार्ड के लाभार्थी जनजातीय वर्ग से हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 68लाख जनजातीय लोग प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण के तहत आवास के लिए पंजीकृत हैं, जिनमें लगभग 63 लाख आवास मंजूर हो चुके हैं। इनमें से भी 47.17लाख आवासों का निर्माण पूरा हो चुका है। इसके अतिरिक्त स्वच्छता मिशन के तहत 2014-2015 से लेकर अभी तक जनजातीय वर्ग के 1.47 करोड़ घरों में शौचालय का निर्माण हुआ है। इसके बाद के तीन वर्षों में 3।5 लाख आदिवासी छात्रों वाले 740 एकलव्य माडल आवासीय विद्यालयों के लिए 38,800 शिक्षकों और सहायक कर्मचारियों की केंद्रीय रूप से भर्ती की मुहीम चली। इसके अलावा अब पांच छात्रवृत्ति योजनाओं के तहत 2500करोड़ रुपये से अधिक के वार्षिक बजट के साथ प्रत्येक वर्ष 30लाख से अधिक छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती है।

आदिवासी समाज के व्यापारिक उत्कर्ष का भी सुनहरा दौर मोदी के कार्यकाल में ही आया। देश के अलग-अलग राज्यों में तीन हजार से अधिक ‘वन धन विकास केंद्र’ स्थापित किए गए हैं। लगभग 90लघु वन उत्पादों पर सरकार एमएसपीदे रही है। 80 लाख से ज्यादा सेल्फ हेल्फ ग्रुप आज अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे हैं जिसमें सवा करोड़ से ज्यादा सदस्य जनजातीय समाज से हैं और इनमें भी बड़ी संख्या महिलाओं की है। मोदी सरकार का जोर जनजातीय शिल्पकला को प्रोत्साहित करने, और युवाओं के कौशल को बढ़ाने पर भी है। देश में नए जनजातीय शोध संस्थान खोले जा रहे हैं। इन प्रयासों से जनजातीय युवाओं के लिए उनके अपने ही क्षेत्र में नए अवसर बन रहे हैं। इसी कारण आज भारत के जनजातीय समाज द्वारा बनाए जाने वाले हस्तशिल्प के लिए नए बाजारों के ध्वार खोले गए।उनकी मांग न केवल भारत में लगातार बढ़ रही है बल्कि विदेशों में भी उनके निर्यात को बल मिला है। आदिवासी उत्पाद ज्यादा से ज्यादा बाजार तक आयें, उनकी पहचान बढ़े, उनकी मांग बढ़े, केंद्र सरकार इस दिशा में भी लगातार काम कर रही है।

बीते 11वर्षों में आदिवासी समाज से जुड़े आदिवासी महोत्सव जैसे कार्यक्रम एक अभियान की तरह चले। आज़ादी के अमृत महोत्सव में आदिवासी महोत्सव के जरिए देश की आदिवासी विरासत की भव्यता को पेश किया गया। भिन्न-भिन्न कलाएं, भिन्न-भिन्न कलाकृतियां! भांति-भांति के स्वाद, तरह-तरह का संगीत, भारत की अनेकता, उसकी भव्यता, कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ खड़ी हो गई। आदिवासी महोत्सव में जनजातीय संस्कृति, शिल्प, खान-पान, वाणिज्य और पारंपरिक कला को प्रदर्शित किया गया। जिससे आदिवासी समुदाय की समृद्धि के द्वार खुले।

आज भारत के पारंपरिक, और ख़ासकर जनजातीय समाज द्वारा बनाए जाने वाले हस्तशिल्प की मांग लगातार बढ़ रही है। पूर्वोत्तर के उत्पाद विदेशों में भी निर्यात हो रहे हैं। बांस से बने उत्पादों की लोकप्रियता में तेजी से वृद्धि हो रही है। आदिवासी उत्पाद ज्यादा से ज्यादा बाज़ार तक आए, इनकी पहचान बढ़े, इनकी डिमांड बढ़े, सरकार इस दिशा में भी लगातार काम कर रही है।

देश के अलग-अलग राज्यों में तीन हजार से ज्यादा वनधन विकास केंद्र स्थापित किए गए हैं। 2014 से पहले ऐसे बहुत कम, लघु वन उत्पाद होते थे, जो एमएसपी के दायरे में आते थे। अब ये संख्या बढ़कर 7 गुना हो गई है। ऐसे करीब 90 लघु वन उत्पाद हैं, जिन पर सरकार एमएसपी प्राइस दे रही है। 50 हजार से ज्यादा वनधन स्वयं सहायता समूहों के जरिए लाखों जनजातीय लोगों को लाभ मिल रहा है। 80 लाख से ज्यादा स्वयं सहायता समूह, सेल्फ़ हेल्प ग्रुप्स, अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे हैं। इन समूहों में सवा करोड़ से ज्यादा आदिवासी सदस्य हैं। इसका भी बड़ा लाभ आदिवासी महिलाओं को मिल रहा है।

सरकार का जोर जनजातीय आर्ट्स को प्रमोट करने हुए, जनजातीय युवाओं के स्किल को बढ़ाने पर भी है। इसी वजह से बजट में पारंपरिक कारीगरों के लिए पीएम-विश्वकर्मा योजना शुरू की गई है। पीएम-विश्वकर्मा योजना के तहत आर्थिक सहायता, स्किल ट्रेनिंग दी जा रही है, कला और हस्तशिल्प की मार्केटिंग के लिए सपोर्ट किया जा रहा है। इसका बहुत बड़ा लाभ आदिवासी समुदाय के युवाओं को भी मिल रहा है। देश में नए जनजातीय शोध संस्थान भी खोले जा रहे हैं। इन प्रयासों से ट्राइबल युवाओं के लिए अपने ही क्षेत्रों में नए अवसर बन रहे हैं।

देश में कई जनजाति अनुसंधान संस्थान थे, लेकिन जनजातीय समाज की विविधताओं को जोड़ने के लिए कोई राष्ट्रीय लिंक नहीं था। पीएम मोदी के विजन के अनुरूप लिंक बनाया गया यह संस्थान इसी लिंक का काम करेगा।

वर्ष 2022 आदिवासी समाज के उत्थान की दृष्टि से मील का पत्थर साबित हुआ। मोदी सरकार ने देश को पहला आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू दिया। आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू ने 25 जुलाई 2022 को भारत के 15वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण किया। वे देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन गईं। वे एनडीए की उम्मीदवार थी, उन्होंने यशवंत सिन्हा के खिलाफ भारी अंतर से जीत हासिल की।

इस तरह नरेंद्र मोदी के 11 वर्षों कार्यकाल मेंआदिवासी समाज को चदुर्दिक विकास का वह उजाला मिला जो देश की मुख्यधारा को प्रज्वलित करता रहा है।

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शंभू शिखर

शंभू शिखर

शंभू शिखर एक प्रसिद्ध हास्य कवि हैं, जिनका जन्म 10 जनवरी को बिहार के मधुबनी जिले में हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। छात्र जीवन में ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करने वाले शंभू ने 50 रुपये की मामूली आय से शुरुआत की। विश्वविद्यालय की विभिन्न प्रतियोगिताओं जैसे कविता पाठ, वाद-विवाद में भाग लेते हुए उन्होंने काव्य लेखन की शुरुआत की। शुरुआत में गजलें लिखीं और एक गजल संग्रह प्रकाशित हुआ। 2005 में 'ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज' जैसे टीवी शो से स्टैंड-अप कॉमेडी में प्रवेश किया, जहां उनकी हास्य प्रतिभा चमकी। धीरे-धीरे वे मंचीय हास्य कविता की ओर मुड़े। उनकी प्रसिद्ध पंक्ति 'चीनी को जमाकर गन्ना बना दूं' ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई। वे बिहार की संस्कृति, सामाजिक व्यंग्य और राजनीति पर कटाक्ष वाली कविताओं के लिए जाने जाते हैं। आज वे अनेक कवि सम्मेलनों में लाखों रुपये फीस लेते हैं। 2022 में उनकी पुस्तक 'चीनी को जमाकर गन्ना बना दूं' प्रकाशित हुई। शंभू शिखर ने बिहारियों के गौरव को अपनी कविताओं में उभारा है, जैसे 'हम धरती पुत्र बिहारी हैं'। वे लग्जरी जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं, जहां आंतरिक समृद्धि मुख्य है। उनके योगदान ने हिंदी हास्य काव्य को नई ऊंचाई दी है।

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