-शंभू शिखर
दिल्ली : पिछले 11 वर्षों में भारत ने वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली है कि उसे नज़र-अंदाज नहीं किया जा सकता। नरेंद्र मोदी एक ऐसे नेता हैं जिन्हें समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है।वे कब राष्ट्रहित का कौन सा फैसला लेंगे, उनके करीबी लोग भी नहीं जान पाते। फौरी तौर पर उसमें जोखिम का आभास होता है लेकिन उसका फलाफल बाद में सामने आता है।मोदी सरकार की विदेश नीति की बात करें तो बहुत से लोग उसकी आलोचना करते हैं लेकिन उनकेआलोचक भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि 2014 के बाद विश्व पटल पर भारत की धमक बढ़ी है, वैश्विक मामलों में उसकी राय कहीं ज्यादा अहमियत रखती है।
अब वैश्विक स्थितियां बदल चुकी हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ शीतयुद्ध का दौर कबका समाप्त हो चुका है।अभी वैश्वीकरण का दौर चल रहा है। अमेरिका खुदाई फौजदार बनकर पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचाने का प्रयास कर रहा है। इस बदलती हुई विश्व व्यवस्था में भारत की गुट निरपेक्षता की नीति में बदलाव जरूरी हो गया था। मोदी सरकार ने उसे समय-काल-परिस्थिति के मुताबिक नए रूप में ढाला। उन्होंने ना काहू से दोस्ती ना काहू से वैर की नीति अपना रखी है। आज अमेरिका, रूस और चीन के बाद दुनिया की महाशक्तियों में भारत का शुमार होने लगा है। वह वैश्विक मामलों में एक निर्णायक ताकत बन चुका है।
मोदी जी दोस्ती और दुश्मनी में एक मर्यादा का ध्यान रखते हैं लेकिन किसी तरह का प्रतिबंध स्वीकार नहीं करते। चीन और पाकिस्तान भारत के पारंपरिक शत्रु माने जातेहैं लेकिन उनके साथ भी मोदी जी अपना व्यवहार भारतीय संस्कारों के अनुरूप ही रखते हैं। पाकिस्तान में कोई मानवीय संकट खड़ा होने पर मदद करने से भी पीछे नहीं हटते और उसके हुक्मरानों की उदंडता का भी कठोरता से माकूल जवाब देने में संकोच नहीं करते।
आज विदेश नीति की आलोचना खासतौर पर ट्रंप के भारी भरकम टैरिफ के कारण की जा रही है। जबकि स्वयं अमेरिका के अर्थशास्त्री, रक्षा विशेषज्ञ और वैश्विक मामलों के एक्सपर्ट ट्रंप को कोस रहे हैं। उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि दो दशकों की निरंतर कोशिशों के जरिए उन्होंने भारत को अपना मजबूत रणनीतिक साझेदार बनाने का जो प्रयास किया और सफलता पाई, ट्रंप ने अपनी सनक और मूर्खता से उसपर पानी फेर दिया है। ट्रंप की नीतियों के खिलाफ अमेरिका के आमजन भारी संख्या में सड़कों पर उतर चुके हैं। टैरिफ के कारण स्वयं अमेरिकी अर्थव्यवस्था डावांडोल हो रही है। कई ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो चुका है। अगर ट्रंप के पागलपन पर अंकुश नहीं लगा तो अमेरिकाका आर्थिक और सामरिक दबदबा मिट्टी में मिल सकता है। अमेरिका की दो अदालतों ने ट्रंप की टैरिफ नीति को असंवैधानिक करार दिया है। अब अंतिम फैसला अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट का होना है। अगर वहां भी फैसला ट्रंप के खिलाफ आया तो न सिर्फ उनके द्वारा लगाए सारे टैरिफ रद्द हो जाएंगे बल्कि इस मद में वसूली गई सारी राशि वापस लौटानी होगी। ट्रंप स्वयं चौतरफा घिर चुके हैं।
नरेंद्र मोदी की सरकार इस बात को अच्छी तरह जानती है कि भारी-भरकम टैरिफ एक अस्थाई संकट है।कुछ ही समय में इसका निवारण हो जाना है। इसीलिए वे प्रतिकूल दिखती स्थिति को बड़ी होशियारी के साथअनुकूल बनाते जा रहे हैं। उन्होंने ट्रंप के खिलाफ न कोई अपशब्द कहे न अमेरिकी अवाम के खिलाफ कोई चुभने वाला बयान दिया।बस ट्रंप की सनक भरी दादागीरी के खिलाफ पूरी मजबूती से खड़े रहे। इसका असर यह हुआ कि अमेरिका में भारत के प्रति सहानुभूति की लहर दौड़ पड़ी। आम जनता और बौद्धिक जगत में भारत के प्रति समर्थन का भाव बढ़ा जबकि ट्रंप के प्रति आक्रोश उमड़ पड़ा। ट्रंप जो अमेरिका फर्स्ट का नारा उछाल कर वैश्विक नायक बनने चले थे, अपने घर में हीखलनायक बना दिए गए।
अमेरिकी लोग जानते हैं, और मोदी जी को भी पता है कि ट्रंप अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकाने के लिए अमेरिकी हितों की बलि चढ़ाने पर तुले हैं। लगातार संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। न अमेरिकी कांग्रेस की राय लेने की जरूरत समझ रहे हैं, न विशेषज्ञों की आशंकाओं को महत्व दे रहे हैं। उनकी खुन्नस मुख्य रूप से भारत, रूस और चीन जैसे ताकतवर देशों से रही है। खासतौर पर नरेंद्र मोदी से जो पिछले कार्यकाल में उनके सबसे करीबी दोस्त रहे थे। लेकिन दूसरे कार्यकाल के चुनाव के दौराम अमेरिका में मौजूद रहते हुए भी मिलने नहीं आए। जबकि ट्रंप चुनावी मंचोंपर सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा कर चुके थे। मोदी के इस व्यवहार से उनकी जगहंसाई हुई। चुनाव तो वे जीत गए लेकिन उनकी नाराजगी कायम रही।ट्रंप की यह खुन्नस उनके सपथ ग्रहण समारोह से ही दिखने लगी। उन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी को आमंत्रित तक नहीं किया।मोदी के साथ उनकी दूसरी खुन्नस भारत-पाक के बीच युद्धविराम कराने का श्रेय नहीं लेने देने कारण थी। इससे शांति का नोबेल प्राइज पाने की उनकी प्रबल इच्छा पर तुषारपात हो गया,जबकि पाकिस्तान उनके लिए नोबेल प्राइज की अनुशंसा कर उन्हें लिखित रूप से श्रेय दे चुका था। मोदी जी से नाराजगी का तीसरा कारण रूस के साथ संबंधों में बढ़ती प्रगाढ़ता और प्रतिबंध के बावजूदउससे सस्ता तेल खरीदना था।
वे रूस-युक्रेन के बीच मध्यस्थता कर युद्ध समाप्त कराना और 21 वीं सदी का शांतिदूत बनना चाहते थे। लेकिन पुतिन जैसे मंझे हुए नेता के सामने उनकी एक न चली। पुतिन ने युद्धविराम के प्रस्ताव को स्वीकार तो किया लेकिन इसके लिए ऐसी शर्तें रख दीं कि युक्रेन ने उन्हें मानने से साफ मना कर दिया। इस युद्ध में ट्रंप कीदाल नहीं गलनी थी, नहीं गली। अब पूरी दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी हो चुकी है। अब ट्रंप की बात को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है। न अमेरिका के अंदर, न उसके बाहर।
अब जबकि विश्व में युद्ध के कई मोर्चे खुल गए हैं और पूरा आसमान ड्रोन और मिसाइलों से भरता जा रहा है, मोदी जी कहते हैं कि यह युद्ध का नहीं बुद्ध का समय है। दिलचस्प बात यह है कि मोदी जी का संबंध सबके साथ मधुर बना हुआ है। रूस पारंपरिक मित्र है तो युक्रेन का भी भारत पर भरोसा है। इजराइल के साथ भी अच्छे संबंध हैं तो ईरान के साथ भी घनिष्टता है। निःसंदेह आने वाले समय में जब युद्ध समझौते होंगे तो उसमें सबसे बड़ी भूमिका भारत की होगी। सभी पक्ष उसकी बात मानेंगे।
बहरहाल, भारत से अपनी खुन्नस निकालने के लिए ट्रंप ने मनगढ़ंत आरोप लगाकर पहले 25 प्रतिशत, फिर अतिरिक्त 25 प्रतिशत, कुल 50 प्रतिशत टैरिफ मढ़ दिया। यह अपनी शर्तों पर ट्रेड डील पर सहमति बनाने के दबाव का हथियार था। ट्रंप की सनक रूस और चीन के सामने फीकी पड़ती जा रही है।उनसे सीधे पंगा लेने में वे बच रहे हैं। चीन से पंगा लेने में रेयर अर्थ मेटल की आपूर्ति बाधित होने का खतरा है। रूस की सामरिक शक्ति का अंदाजा लगाना मुश्किल है, इसलिए ट्रंप उनपर दबाव बनाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। ब्राजील और भारत पर उन्होंने 50 प्रतिशत का भारी टैरिफ लगाया है। लेकिन उनके सामने कोई भी झुकने को तैयार नहीं हो रहा है। दूसरी तरफ अमेरिकी बाजार में हाहाकार मचाहुआ है। कीमतें बढ़ती जा रही हैं।ट्रंप ने अपने मित्र देशों पर भी टैरिफ लगाया लेकिन उन्हें 10-15 प्रतिशत पर समेट लिया।फिर भी कई आवश्यक वस्तुएं हैं जिनकी आपूर्ति मित्र देशों से संभव नहीं हो पा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि टैरिफ की रकम अंततः अमेरिकी आयातकों और उपभोक्ताओं की जेब से ही जानी हैं। इस नीति से निर्यातक देशों के माल की मांग और खपत में कमी आ सकती है लेकिन उनके लिए वैकल्पिक बाजार भी मौजूद हैं जबकि अमेरिकी जनता की जरूरतों की आपूर्ति पर संकट बढ़ते जाने की आशंका है।
ट्रंप ने भारत पर कृषि व डेयरी उत्पाद, रक्षा सामग्री और तेल की अमेरिका से खरीद पर सहमति के साथ ट्रेड डील करने पर दबाव डाला तो मोदी जी ने इससेसाफ मना कर दिया, और भारतीय उत्पाद के लिए नए बाजारों की तलाश शुरू कर दी। इसमें खासी सफलता भी मिली। बहुत सारे देशों ने भारत के साथ व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई। इससे टैरिफ का झटका लगने की जगह व्यापारिक सौदों के विस्तार का रास्ता खुला।
वैश्विक महाशक्तियों की बात करें तो रूस के साथ लंबे समय से भारत की मित्रता रही है। ब्रिक्स देशों का साझेदार होने के नाते चीन के साथ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने में समस्या नहीं थी। उत्तर कोरिया के साथ भारत के सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। खाड़ी देशों के साथ अच्छी साझेदारी रही है। मोदी जी ने अपने कूटनीतिक प्रयासों के जरिए अमेरिका के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन खड़ा कर लिया है।अमेरिकी दादागीरी को माकूल जवाब देने की व्यूह रचना तैयार कर ली है। यह भी स्पष्ट है कि टैरिफ लगाने के बाद भारत पर उतना नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा जितना स्वयं अमेरिका पर पड़ा। भारत ने तो नए बाजारों की तलाश कर संभावितनुकसान की भरपाई कर ली। कुछ लाभ भी कमा लिया। लेकिन अमेरिका को कई ट्रिलियन डॉलर की चपत लग गई।
ट्रंप चाहते थे कि भारत रूस और चीन के साथ व्यापारिक संबंध तोड़ दे और पूरी तरह अमेरिका की शरण में चला आए। उसके इशारों पर नाचे। उसके कृषि और डेयरी उत्पाद की खरीद करे। डेयरी उत्पाद में मांसाहारी दूध भी शामिल था। अर्थात उन गायों का दूध जिन्हें मांसाहारी खुराक देकर पाला गया है। यह सनातन आस्था के खिलाफ था। जबकि डेयरी और कृषि उत्पादों के मामलों में भारत आत्मनिर्भर है। उसे बाहर से कुछ भी आयात करने की जरूरत नहीं है। इसलिए ट्रंप की डील पर राजी होने का कोई सवाल ही नहीं था। रक्षा हथियारों के मामले में रूस के साथ पुरानी संधि रही है। ऑपरेशन सिंदूर के समय चीन के हथियारों को रूसी सहयोग से बने हथियारों ने पूरी तरह नाकाम कर दिया। इसलिए सामरिक तौर पर रूस पर भरोसे में कोई कमी नहीं आनी थी। जाहिर तौर पर अमेरिका के साथ रक्षा सौदों की कोई विवशता नहीं थी। अन्य विकल्पों की जरूरत ही नहीं थी। जाहिर तौर पर अमेरिका के साथ उसकी शर्तों पर ट्रेड डील करने से मना करना भारत के कूटनीतिक आत्म-सम्मान का प्रतीक बन गया। इसे विदेश नीति की सफलता नहीं तो और क्या कहेंगे।
किसी भी देश की विदेश नीति वैश्विक परिस्थितियों, नेतृत्व की दृष्टि और वैश्विक घटनाक्रम के अनुसार बदलती रही है। पं.जवाहरलाल नेहरू के समयभारत ने तीसरी दुनिया के देशों को संगठित कर गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया। इंदिरा गांधी के समय पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश का निर्माण किया। अटल बिहारी वाजपेयी के समय परमाणु परीक्षण किया और मनमोहन सिंह के समय परमाणु समझौता कर भारतीय विदेश नीति को नए आयाम तक पहुंचाया। सच्चाई यही है कि नरेंद्र मोदी के 11 वर्षों के कार्यकाल मेंभारत कीविदेश नीति ने आक्रामक और बहुआयामी स्वरूप धारण किया है।
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद विदेश नीति में पड़ोसी प्रथम की नीति अपनाई। 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया। नेपाल के साथ संबंध सुधारने की पहल की। डेढ़ दशक बाद नेपाल का दौरा करने वाले पीएम बने। नेपाल के संविधान निर्माण में सहयोग किया। हालांकि बाद में मधेसी आंदोलन और नक्शा विवाद के कारण थोड़ा तनाव बढ़ा। लेकिन परस्पर सांस्कृतिक संबंध कायम हैं।
मोदी जी ने भूटान का भी दौरा किया। उसे हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की सौगात दी। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में सहयोग किया। सांस्कृतिक संबंधों को मजबूती दी।
मोदी के कार्यकाल के दौरान 2015 में बांग्लादेश के साथ सीमा समझौता एक ऐतिहासिक घटना थी जिसके जरिए दशकों पुराना सीमा विवाद समाप्त हुआ।
श्रीलंका,मालद्वीप जैसे देशों के साथ आर्थिक, सामरिक सहयोग बढ़ाए। पाकिस्तान के साथ भी बेहतर संबंध बनाने की कोशिश की। अमेरिका, रूस और चीन जैसी महाशक्तियों के साथ समन्वय बनाए रखा।
आतंकवाद के खिलाफ भारत ने अपने अभियान को ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
आज जबकि दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ी है, भारत ने एक तटस्थ देश की भूमिका बनाए रखी है। निश्चित रूप में आगामी समय की विश्व व्यवस्था के निर्धारण और संचालन में भारत की भूमिका अहम रहने वाली है। इसे मोदी के कार्यकाल में विदेश नीति की सफलता के एक नए अध्याय के रूप में देखा जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।