मोहब्बत के दीवानों को कोर्ट से नई राहत, नया हौसला

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मुंबई : मोहल्ले की उस तंग गली में, हल्के पीले बल्ब की रोशनी तले, अब दो लोग डरकर नहीं मिलते। न उनके हाथ में फर्जी काग़ज़ हैं, न झूठे वादे, सिर्फ़ एक अदालत का आदेश है, जिसने उनके साथ रहने के हक़ को सरकारी शक और सामाजिक पहरेदारी से ऊपर रख दिया है। दरवाज़े के उस पार अब खौफ़ कम है। पहली बार क़ानून उनके साथ खड़ा दिखता है, उनके ख़िलाफ़ नहीं।
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भारत की न्यायपालिका में इन दिनों एक खामोश लेकिन गहरा बदलाव आकार ले रहा है। यह बदलाव अदालतों के ठोस, सोचे-समझे फैसलों के ज़रिये रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उतर रहा है। न्यायपालिका संविधान की रोशनी में समाज के पुराने “नैतिक” समझौतों को नए सिरे से परख रही है, खासकर निजी रिश्तों के मामले में।

इन फैसलों का संदेश सीधा है: जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक घबराहट आमने-सामने हों, वहां संविधान को प्राथमिकता मिलेगी, परंपरा को नहीं। यह वह कानून है जो हमदर्दी, गरिमा और इंसानी अनुभव को उन रूढ़ियों से ऊपर रखता है, जो प्रेम, साथ रहने और साथी चुनने के फैसलों को संदेह की निगाह से देखती रही हैं। अदालतें लगातार याद दिला रही हैं कि संविधान का अनुच्छेद 21, गरिमा के साथ जीने का अधिकार, प्रेम और साझेदारी के चुनाव को भी अपने भीतर समेटे है। न्यायपालिका अब परंपरा की चौकीदारी नहीं, बदलती ज़िंदगियों की संवैधानिक संरक्षक बनती दिख रही है।

सबसे साफ़ बदलाव लिव-इन रिश्तों को लेकर न्यायिक दृष्टिकोण में नज़र आता है। जो संबंध लंबे समय तक समाज की नज़रों में संदिग्ध और कानून के लिए असहज रहे, उन्हें अदालतें अब सामाजिक यथार्थ मानकर सुरक्षा के दायरे में ला रही हैं। सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्ट्स ने माना है कि यदि कोई जोड़ा लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहा है, तो धारा 125 CrPC जैसे भरण-पोषण के प्रावधानों को “सिर्फ़ काग़ज़ी शादी” की संकीर्ण शर्त में नहीं बांधा जा सकता। अदालतों ने स्पष्ट किया है कि धारा 125 कोई तकनीकी कानून नहीं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा का औज़ार है, जिसका उद्देश्य छोड़ी गई या आर्थिक रूप से कमज़ोर महिला और बच्चों की हिफ़ाज़त है। अब सवाल स्टैम्प पेपर का नहीं, बल्कि यह देखने का है कि रिश्ता व्यवहार में शादी जैसा था या नहीं।

न्यायपालिका ने एक और नाज़ुक मोड़ पर संतुलित हस्तक्षेप किया है। जब दो बालिग लोग वर्षों तक आपसी सहमति से साथ रहते हैं और रिश्ता टूट जाता है, तो क्या हर ब्रेकअप आपराधिक मुक़दमे में बदल जाना चाहिए? हालिया फैसलों में अदालतों ने साफ़ कहा है कि “शादी का झूठा वादा” और लंबे समय तक चला सहमति-आधारित रिश्ता एक जैसे नहीं हैं। जहां रिश्ता आपसी सहमति से चला हो, वहां सिर्फ़ अलगाव को आपराधिक आरोपों का हथियार नहीं बनने दिया जा सकता। यह सोच दोहरी सुरक्षा देती है, एक तरफ़ यौन हिंसा के असली मामलों की गंभीरता बनी रहती है, दूसरी तरफ़ भावनात्मक टूटन को आपराधिक बदले में बदल देने की प्रवृत्ति पर रोक लगती है।
अंतर-धार्मिक जोड़ों की सुरक्षा से जुड़े फैसले इस बदलाव की सबसे मानवीय तस्वीर पेश करते हैं। सुप्रीम कोर्ट बार-बार दोहरा चुका है कि बालिग नागरिकों को अपना साथी चुनने का अधिकार संविधान ने दिया है, और राज्य का कर्तव्य उस अधिकार की रक्षा करना है, न कि उस पर शक करना। अनुच्छेद 21 के तहत “अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने” की आज़ादी, धर्म से परे शादी करने या साथ रहने के अधिकार को भी शामिल करती है। कई हाई कोर्ट्स ने धमकियों और हिंसा के डर से जूझ रहे अंतर-धार्मिक जोड़ों को तुरंत पुलिस सुरक्षा देने का आदेश देते हुए साफ़ कहा है कि यह पारिवारिक “इज़्ज़त” का नहीं, संवैधानिक अधिकार का सवाल है। “लव जिहाद” जैसे राजनीतिक नारों और धर्मांतरण-विरोधी कानूनों के शोर के बीच अदालतें यह रेखांकित कर रही हैं कि कोई भी कानून प्रेम और आस्था की निजी पसंद को अपराध घोषित करने का औज़ार नहीं बन सकता।

IPC की धारा 498A को लेकर भी न्यायपालिका ने संतुलन का रास्ता चुना है। एक ओर इसे वैवाहिक हिंसा और दहेज उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के लिए ज़रूरी सुरक्षा कवच माना गया, तो दूसरी ओर इसके दुरुपयोग पर सख़्त चेतावनी भी दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि सामान्य, अस्पष्ट और सामूहिक आरोपों के आधार पर आपराधिक कार्रवाई नहीं चल सकती। क्रूरता साबित करने के लिए ठोस, विशिष्ट घटनाओं और प्रमाणों की ज़रूरत है। दशकों पुराने, सबूतहीन मामलों को ख़ारिज करते हुए अदालतों ने यह भी कहा कि झूठे या बढ़ा-चढ़ाकर लगाए गए आरोप न्याय को उतना ही नुकसान पहुंचाते हैं जितना असली अपराधों पर चुप्पी।

इन तमाम फैसलों के बीच एक बड़ा, लगभग अनकहा संकेत छिपा है। कानून, जो कभी परंपरा और पितृसत्ता का रखवाला लगता था, अब बदलते भारत की जटिल सच्चाइयों को सुनने लगा है। अदालतें “स्थिर सामाजिक व्यवस्था” बचाने से ज़्यादा इस सवाल से जूझ रही हैं कि क्या संविधान का वादा असली ज़िंदगियों, उलझे रिश्तों और असहज चुनावों के साथ न्याय कर रहा है। ऐसे दौर में, जब प्यार, साथ रहना और अलग होना, सब कुछ राजनीति और भीड़-निर्मित नैतिकता तय करने लगी है, न्यायपालिका ने संवैधानिक तर्क, व्यक्तिगत गरिमा और समानता को प्राथमिकता देने का रास्ता चुना है।

अदालत में हथौड़े की आवाज़ आज भी गूंजती है, लेकिन अब वह सिर्फ़ आदेश नहीं लगती, वह एक भरोसे की तरह सुनाई देती है। यह भरोसा कि कम से कम न्यायालयों की चारदीवारी के भीतर, मोहब्बत करने, साथ रहने या अलग हो जाने की अपनी कहानी लिखने का हक़ कानून की भाषा में भी दर्ज हो सकता है, सावधानी के साथ, लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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