मुगल सत्ता का स्याह सच धर्मांतरण की जिद और साहिबजादों का बलिदान

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दिल्ली । इतिहास जितनी बार दोहराया जाए हर बार कोई न कोई सबक सिखाता है, कुछ तिथियां इतिहास की ऐसी होती हैं जिन्‍हें आप चाहकर भी भूला नहीं सकते हैं । ऐसा ही दिन आज का है जब सत्ता ने अपने मजहब को हथियार बनाया और छोटे मासूम बच्‍चों तक की हत्‍या करने में देरी नहीं की। मध्यकालीन भारत में इस्‍लामिक मुगल शासन के दौर में गैर मुसलमानों पर अनेक जुल्म ढाए गए। करों दंडों और भय के सहारे जबरन मजहबीकरण (धर्मांतरण) की कोशिशें की गईं। इसी अंधकार में दो नन्हे दीपक साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह ऐसे जले कि अत्याचार की दीवारें भी कांप उठीं। उनका हुतात्‍मा हो जाना आज सिर्फ सिख इतिहास भर नहीं है, यह घटना भारतीय आत्मसम्मान की अमिट गाथा है।

मुगल साम्राज्य में जजिया जैसे कर मंदिरों पर आक्रमण तीर्थों पर प्रतिबंध और विद्रोह कुचलने के लिए प्रलोभन के सहारे धर्मांतरण की नीति अपनाई गई। इसी पृष्ठभूमि में सिख पंथ अन्याय के प्रतिरोध का स्वर बना। गुरु नानक देव जी की करुणा से लेकर गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान तक सिख परंपरा ने धर्म की स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना। कहा जाता है कि गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान कश्मीरी पंडितों की आस्था की रक्षा के लिए था, किंतु यह नैरेटिव भी पूरा सच नहीं है, क्‍योंकि उस वक्‍त तक सिख पंथ कहीं से भी अलग नहीं था, वह पूरी तरह से हिन्‍दू धर्म की एक संत परंपरा आधारित दर्शन धारा थी, उस समय इस संत परंपरा के जितने अनुयायी थे वे सभी हिन्‍दू समाज के अभिन्‍न अंग थे, जिसमे कि स्‍वयं गुरु तेग बहादुर जी भी।

ऐसे में स्‍वभाविक तौर पर इस्‍लामिक अत्‍याचार से त्रस्‍त होकर अनेक हिन्‍दू समाज के लोग गुरु तेग बहादुर जी के पास गए थे और मुगल हिंसा के समाधान के लिए मार्ग प्रशस्‍त करने के लिए निवेदन किया गया था। तब गुरु जी ने स्‍वयं से आगे होकर मुगल सत्‍ता से बात करने का आश्‍वासन दिया, इसके परिणाम में तत्‍कालीन इस्‍लामिक मुगल शासक औरंगजेब ने क्‍या किया! दिल्‍ली में सिख पंथ के नौवें गुरु तेग बहादुर जी की चांदनी चौक दिल्ली में 24 नवंबर 1675 को शीश काटकर बलिदान हुआ। गुरु तेग बहादुर जी ने स्पष्ट कहा था कि वे न तो इस्लाम स्वीकार करेंगे और न ही किसी को जबरन धर्म बदलने देंगे।

गुरु जी से पहले शहीद किए गए उनके तीन प्रमुख अनुयायियों पर भयंकर हिंसा की गई। भाई मती दास जी जोकि गुरु जी के प्रमुख सेवक थे, उन्‍हें मुगलों ने जिंदा आरी से चीर दिया, किंतु भाई मती दास जी ने अंतिम क्षणों में भी जाप और ध्यान नहीं छोड़ा। उनका बलिदान इतिहास के सबसे क्रूर अत्याचारों में गिना जाता है। इसी तरह से भाई सती दास जोकि भाई मती दास के छोटे भाई थे, इस्‍लाम के अनुयायी मुगलों ने उन्‍हें रुई में लपेटकर जिंदा जला दिया गया, क्‍योंकि उन्होंने भी धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया था। उन्‍होंने भी अपने बड़े भाई की तरह ही अत्याचार के बीच भी गुरु और ईश्वर में अडिग आस्था रखी। इन दोनों की तरह ही भाई दयाला जोकि गुरु जी के परम भक्त थे उन्‍हें उबलते पानी में डालकर मार दिया गया, उन्होंने भी अंतिम सांस तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया। आगे गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने धर्म पर अडिग रहने की इस परंपरा को और सुदृढ़ किया और न्याय आत्मसम्मान तथा साहस की शिक्षा अपने शिष्‍यों को दी।

सन् 1704–1705 की सर्दियों में आनंदपुर साहिब की घेराबंदी इसी संघर्ष का निर्णायक अध्याय बनी। मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह जी पर इस्‍लाम कबूल करलेने का दबाव बढ़ाया। ऐसे में संघर्ष स्‍वभाविक था, तब सरसा नदी पार करते समय परिवार बिछुड़ गया। माता गुजरी जी अपने दो नन्हे पोतों साहिबजादा जोरावर सिंह नौ वर्ष और साहिबजादा फतेह सिंह सात वर्ष के साथ अलग हो गईं। वे सरहिंद के सूबेदार नवाब वजीर खान की कैद में पहुंच जाती हैं। यहीं इस्‍लामिक सत्ता का क्रूर हिंसक चेहरा एक बार फिर उजागर होता है जहां नाबालिगों पर भी दमन चक्र चलाया गया।

ठंडे बुर्ज की यातनाएं दी गईं, ताकि मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जा सके और बच्‍चे इस्‍लाम का अपना लें। भय अकेलापन और प्रलोभन के सहारे आस्था को तोड़ने की तमाम कोशिशें हुईं। दरबार में बच्चों को इस्लाम स्वीकार करने पर धन महल और सुरक्षा का लालच दिया गया। किंतु इन दो नन्हे बालकों ने वह दृढ़ता दिखाई जो किसी भी साम्राज्य से बड़ी थी। उनका उत्तर स्पष्ट था कि धर्म बिकाऊ नहीं और सत्य पर समझौता अस्वीकार्य है।

वजीर खान का क्रोध उसी क्षण फूट पड़ा । सबसे क्रूर दंड का आदेश दिया गया। 26 दिसंबर 1705 की वह सुबह भारतीय इतिहास की सबसे करुण और सबसे प्रेरक सुबहों में से एक है। ईंट गारे से उठती दीवार के साथ साहस भी ऊंचा होता गया। न आंसू न भय सिर्फ अपने विश्वास पर विश्‍वास। माता गुजरी जी ने भी गहरे शोक में प्राण त्याग दिए। दोनों नन्‍हें बालकों जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया गया।

साहिबजादों के बलिदान ने यह संदेश दिया कि आस्था किसी भी बल प्रयोग से कहीं ऊपर है। यही कारण है कि यह घटना सिख समुदाय की स्मृतियों के साथ संपूर्ण हिन्‍दू समाज के लिए मुखर चेतना बनी। आज वीर बाल दिवस इसी स्मृति को राष्ट्रीय सम्मान देता है। वर्ष 2022 में 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस घोषित कर भारत ने यह स्वीकार किया कि बच्चों की वीरता भी राष्ट्र की नींव होती है। यह दिवस हमें याद दिलाता है कि आज का भारत जैसा भी, जितना भी शेष है वह इन नन्‍हें बलिदानियों की कसौटी के परिणाम का सुफल है।

कहना होगा कि साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह हर भारतीय की स्‍मृतियों में जो अपने देश से अपार प्रेम करते हैं उनके बीच अमर हैं क्योंकि उन्होंने सिद्ध किया कि वीरता उम्र की मोहताज नहीं होती है। उनकी शहादत हर पीढ़ी को यह प्रश्न पूछने पर विवश करती है कि क्या हम अन्याय के सामने खड़े होने का साहस रखते हैं? जब तक यह प्रश्न जीवित है तब तक भारत अपने संपूर्ण स्‍वर और चेतना के साथ मुखरता से खड़ा हुआ है। दोनों साहिबजादों के श्रीचरणों में शत् शत् नमन…..

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