राजीव रंजन प्रसाद
मुकेश चंद्राकर के साथ जो कुछ हुआ वह अकल्पनातीत और अक्षम्य है। लापता होने की सूचना मुझे यूकेश से प्राप्त हुई थी लेकिन तब मैंने यह माना ही नहीं कि इतने जीवट युवक के साथ भी कुछ अनिष्ट हो सकता है। हर समय कुछ नया तलाशने और नए तरह से प्रस्तुत करने के प्रयास में रहने वाले मुकेश को मैं लगभग डेढ दशक से जानता हूँ। उनदिनों बीजापुर तक पहुचना ही असंभव था, सड़के काटी हुई और माओवाद अपने चरम पर हुआ करता था। उन्हीं समयों में मेरी मुकेश से हुई थी। बीजापुर-भोपालपट्टनम से ले कर आंध्र-महाराष्ट्र के छोर तक के बस्तर के भीतरी क्षेत्रों तक पहुचने समझने में मुकेश ने बिलकुल छोटे भाई की तरह मेरा साथ दिया था। उसकी मोटरसाकल की पिछली सीट पर बैठ कर कितनी ही पगडंडियाँ, सड़के, नदी-नाले नापे हैं।
मुकेश में व्यवहारिकता ही अप्रतिम नहीं थी उसकी सभ्यता-सज्जनता का कोई भी कायल हो सकता था। जब वह “भैया” कहता तो इस शब्द के उच्चारण में एक मिठास हुआ करती थी। मैंने उसे धीरे धीरे परिपक्व होते महसूस किया है। केवल समाचार देना उसका उद्देश्य कभी नहीं रहा, तब भी नहीं, जबकि पत्रकारिता के क्षेत्र में उसके आरंभिक कदम थे। वह वर्तमान की सूचना के पीछे का इतिहास तक निचोड़ने के लिए तत्पर रहता था। कई बार उसके फोन मुझे देर रात भी आए कि ‘भैया खबर बनानी है इस क्षेत्र का इतिहास या इस प्रतिमा की बारीकी’ आदि आदि प्रदान कीजिए। उसके पास प्रश्न होते थे और वह उनकी संतुष्टि तक साक्ष्यों की मांग किया करता था। किसी विषय की जड़ खोजने की इसी कोशिश ने मुकेश को आज हमारे बीच नहीं रहने दिया। मैंने बहुत सी कलमें देखी हैं जिनमें विचारधारा का चिरपरिचित एजेंडा होता है, इसलिए उनके शब्द तीखे होते हुए भी बेमानी होते हैं; इसके उलट मुकेश ने जो लिखा वह खरा-खरा कड़ुवा सच था, लाग लपेट नहीं थी और इसीलिए लिखे-कहे शब्दों में जबरन की चीख-पुकार का भाव न होते हुए भी मारक क्षमता थी। सच को उसने पूरी नग्नता से उधेड़ा तभी तो व्यवस्था निहित भ्रष्टाचार ने उसे इस तरह से मार डाला जिसकी कल्पना कर भी सिहरन हो जाती है।
लगातार मुकेश से जुड़े समाचार मेरी निगाह से गुजर रहे हैं, विचलित कर रहे हैं। मेरे शब्द उसे श्रद्धांजलि देना चाहते हैं लेकिन कपकपा रहे हैं, सिहर रहे हैं, सिसक रहे हैं। रुचिर गर्ग जी द्वारा साझा की गई मुकेश की मृत्युपश्चात की तस्वीरों ने मुझे झखझोर कर रखा दिया था। इस तस्वीर को देखने के बाद से न कुछ कहने को रहा न लिखा जाना किसी मायने का है। मुकेश की इस तरह से की गई हत्या, हमारे ऊपर भी लानत है क्योंकि हम ऐसे ही निर्लज्ज तंत्र का हिस्सा हैं। मुकेश के साथ जो हुआ वह परिणाम है लेकिन क्या इसकी बानगी हम लगातार नहीं देख रहे हैं? अभी दशक भर नहीं बीता जब पत्रकार साई रेड्डी की नृशंस हत्या माओवादियों ने की थी या कि अभी केवल कुछ दिन ही हुए हैं जबकि एक झूठे मामले में पत्रकार बापी रे को तेलांगाना पुलिस ने फ़साने की कोशिश की और कई दिन उसे जेल में काटने पड़े…। इसी सब की कड़ी है मुकेश की नृशंस हत्या क्योंकि यदि प्रतिक्रिया क्षीण हो तो आतताई का साहस बढ़ता है। मुकेश तुम सर्वदा मेरी स्मृतियों में रहोगे, अपनी पुस्तकों-आलेखों के माध्यम से मैं यह प्रयास अवश्य करता रहूँगा कि तुम्हारा अमर योगदान दस्तावेजीकृत होता रहे। तुम्हारा जाना मेरी निजी क्षति है।