न मेडिकल टूरिज्म बढ़ा आगरा में, न शिक्षा का हब बना, रिवर फ्रंट, क्रूज, हेलीकॉप्टर यात्रा, एम्यूजमेंट park, चिड़िया घर, सिर्फ सपने

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आगरा। नेताओं को छोड़िए, ज्यादातर आगरा के वाशिंदे ये मानने के लिए तैयार हैं कि शहर के प्रति सौतेला व्यवहार हो रहा है। वरना कोई वजह है क्या जो दशकों से लटकी मांगों को पूरा कराने में तीन अदद सांसद, एक दर्जन विधायक, एक महापौर, एक जिला परिषद अध्यक्ष, एक महिला आयोग मुखिया, लगातार असफल हो रहे हैं। मोदी सरकार को सत्ता में आए ग्यारह वर्ष हो गए, यमुना का आज तक उद्धार नहीं हुआ है। दिल्ली में भाजपा सत्ता में आते ही यमुना सफाई में जुट चुकी है। कोई समझाए इतना टाइम क्यों लगता है। क्या सारा लाड़ प्रेम पूर्वी जिलों को ही मिलता रहेगा?
इसे विडंबना ही कहेंगे कि ताजमहल की धरती, भारत की शान और पर्यटन की जीवनरेखा—आगरा आज अपनी ही उपेक्षा का मार्मिक दस्तावेज बन चुका है। यह वह शहर है जो कभी मुगलिया तहजीब की चमक से जगमगाता था, लेकिन आज राजनीतिक उदासीनता, पूर्वाग्रह और खोखले वादों के बोझ तले दम तोड़ रहा है। स्थानीय लोगों का मानना है कि सरकार की नजर में आगरा का महत्व लगातार कम होता जा रहा है, और इसकी वजह शायद उसकी मुगल विरासत से जुड़ी पहचान है।

यमुना नदी, जो कभी शहर की जीवनदायिनी थी, आज एक विषैले नाले में तब्दील हो चुकी है। 175 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा मुगल संग्रहालय अधूरा पड़ा है, सिर्फ नाम बदला है, जबकि ताजमहल की रात्रि दर्शन योजना अब भी “आने वाले कल” का इंतजार कर रही है। हाईकोर्ट बेंच, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, आईटी पार्क—ये सभी योजनाएं फाइलों के पन्नों में दफन हैं। वादे तो बहुत हुए, पर अमल कहीं नजर नहीं आता। सिर्फ मेट्रो का झुनझुना कब तक रिझाएगा?

यह वही शहर है जो दशकों से पर्यटन के जरिए सरकार के खजाने को भरता आया है, लेकिन बदले में उसे मिली हैं टूटी सड़कें, बेरोजगारी और सरकारी उपेक्षा। स्थानीय निवासियों का आरोप है कि यह कोई संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी राजनीतिक अनदेखी है—एक ऐसी साजिश जो आगरा की विरासत को धीरे-धीरे मिटाने पर तुली हुई है। यमुना बैराज, जो ताजमहल की नींव को बचाने और शहर को जल संकट से उबारने में मददगार हो सकता था, सालों से लंबित है। मुगल संग्रहालय, जो आगरा के इतिहास को एक नया आयाम दे सकता था, आज खुद वादाखिलाफी का प्रतीक बन चुका है।
चाहे ताजमहल के चांदनी दर्शन की बात हो या हवाई अड्डे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित करने की योजना—हर परियोजना को “विचाराधीन” के धुंधलके में ढकेल दिया गया है। अखिलेश यादव सरकार के समय शुरू की गई 140 करोड़ की साइकिल ट्रैक योजना आज उपेक्षा का शिकार है—न तो उसकी देखभाल हो रही है, न ही उसका उपयोग, बल्कि दम तोड़ चुकी है। पैसे की बर्बादी का हिसाब कोई तो दे।

उत्तर भारत का अग्रणी औद्योगिक शहर आगरा आज जीरो इंडस्ट्री एरिया बनकर रह गया है। कभी जिस शहर में फैक्ट्रियों की धूम थी, आज वहां सन्नाटा पसरा हुआ है। युवाओं के सामने रोजगार का संकट गहराता जा रहा है, और मौजूदा सरकार ने न तो कोई नई योजना पेश की है, न ही पुरानी परियोजनाओं को पुनर्जीवित किया है।

पर्यटन से आने वाला धन अब भी शहर में प्रवाहित हो रहा है, लेकिन यह पैसा आगरा की प्रगति तक नहीं पहुंच पा रहा। यह सिर्फ एक प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि एक सामूहिक अन्याय है। अब अस्थायी समाधानों से काम नहीं चलेगा। आगरा को फिर से जीवंत बनाने के लिए एक ठोस पुनरुद्धार पैकेज की आवश्यकता है।

सबसे पहले, यमुना नदी की सफाई और बैराज निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। एक NOC लेने में साल भर से ज्यादा हो चुका है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स लगाए जाएं, औद्योगिक कचरे पर सख्त नियंत्रण हो, ताकि ताजमहल और शहर दोनों को नया जीवन मिल सके। दूसरा, मुगल संग्रहालय को शीघ्र पूरा करके जनता के लिए खोला जाए और ताजमहल की रात्रि दर्शन योजना को अमली जामा पहनाया जाए, ताकि पर्यटन को नई गति मिले। तीसरा, हवाई अड्डे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित किया जाए और आगरा में हाईकोर्ट की बेंच स्थापित की जाए, ताकि शहर की प्रशासनिक महत्ता सिर्फ कागजों तक सीमित न रहे। चौथा, उद्योग और प्रौद्योगिकी में निवेश बढ़ाया जाए—पुरानी फैक्ट्रियों को पुनर्जीवित किया जाए, आईटी पार्क स्थापित किए जाएं, और स्थानीय युवाओं को रोजगार के अवसर मिलें।

सबसे महत्वपूर्ण यह कि फंड आवंटन पारदर्शी हो और हर योजना की समयसीमा तय की जाए। चुनावी वादों से ऊपर उठकर ठोस कार्यवाही की जरूरत है। आगरा सिर्फ एक ऐतिहासिक इमारत नहीं, बल्कि एक सांस लेता शहर है, जिसकी धड़कनें अब धीमी पड़ने लगी हैं। उत्तर प्रदेश सरकार को अपनी उदासीनता त्यागनी होगी और पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर इस शहर को फिर से जगमगाना होगा।
दुनिया ताजमहल को देखती है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि वह आगरा के लोगों की पीड़ा को भी समझे।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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