दिल्ली। शादी कर के पहली बार ससुराल गई थी। नई-नई दुल्हन बनी थी। ऑफिस से एक महीने की छुट्टी लेकर आई थी। आसपास इतना कुछ घट रहा था की सोचने तक का समय नहीं था मेरे पास। कभी बहुत अच्छा लगता और कभी बहुत बुरा।
मेरी विदाई मंगलवार को हुई थी। ससुराल में कुछ नियम थे जैसे मंगलवार बेड पर नहीं बैठना था। कमरे में एक बेड लगा था। घर के सभी लोग बारी बारी से आकर कमरे में देख जाते। पति वहीं बेड पर थके सो रहे थें। कमरा बार बार खुल रहा था इसलिए एक कोने पर मेरे लिए एक गद्दा लगा दिया था।
दरवाज़ा खुलते ही मैं सहम जाती कहीं कोई सर से घूँघट गिरते ना देख ले। कोई दुल्हन देखने आता तो मुझे दरवाज़े तक जाना होता। मेरे सर का पल्लू थोड़ा हटा कर मुँह दिखा दिया जाता। मैंने किसी को ठीक से देखा तक नहीं था। बस एक ही बात मन में चल रही थी की कुछ पल सोने को मिल जाता।
रात तक यही चलता रहा। रात में मेरे साथ कोई महिला बिस्तर पर सोयी थी। उस चुभने वाली साड़ी और ढेर सारे पिन के साथ भी मेरी आँख आसानी से लग गई। सुबह उठते ही अनजानी सी सूरत मेरे मुँह के सामने थी। अभी सुबह के 5 ही बजे होंगे। मुझे सभी नहाने के लिए बुला रहे थे। उस घर का बाथरूम आँगन में था। कोई दुल्हन को चलते ना देखे इसलिए मुझे ऐसी जगह नहाने को कहा जा रहा था जहाँ से वह दो-तीन महिलायें मुझे अच्छे से देख सकती थी। घर की सीढ़ियों के नीचे एक बाल्टी में पानी रख दिया गया। एक महिला ऊपर सीढ़ियों पर बैठ गई जिससे कोई ऊपर से नीचे नहीं आ सके।
एक महिला एक चादर टाँग नीचे खड़ी हो गई। वह दोनों मुझे अच्छे से देख सकती थी। इस तरह से नहाना कैसा लग रहा है यह सोचने का या बोलने का विकल्प नहीं था मेरे पास। साड़ी में ना जाने कहाँ कहाँ पिन चुभी थी। सब अटक गई थी। लाख कोशिश किया लेकिन कोई नहीं निकल रहा था। मैंने अब इसका प्रयास छोड़ दिया और पिन को खींच कर अलग कर दिया। साड़ी में छेद हो गया। इसके बाद कुछ निकालने की हिम्मत नहीं हुई। वही कपड़े पहनकर बस जल्दी जल्दी सारा पानी ख़ुद पर उड़ेल दिया।
शैम्पू साबुन तो देखने का मन भी नहीं था बस उन महिलाओं की घूरती आँखों से निकलकर कमरे में अकेले जाना चाहती थी। मुझे साड़ी पहननी उस समय तक नहीं आती थी लेकिन मैंने उस थोड़ी सी जगह पर ही साड़ी में पूरी तरह से ख़ुद को ढक लिया। कोई मेरी कमर तक देखे उतनी जगह भी मैंने नहीं छोड़ी।
कमरे में गई और एक और महिला आ गई मुझे साड़ी पहनाने। उन्होंने मुझे साड़ी पहनायी। फिर पूरा घूँघट कराकर मुझे पूजा के लिए ले जाया गया। सब कह रहे थे बहू तो बड़ी लंबी है, रंग कितना गोरा है। पैर बहुत सुंदर है। हाथ कितने कोमल हैं आदि आदि।
पूजा में पहली बार बैठी थी बहुत ही अच्छा लग रहा था। लगा ज़िन्दगी की नई शुरुवात में छोटे मोटे कष्ट मायने नहीं रखते। पूरी श्रद्धा से मैंने अग्नि देवता को प्रणाम कह कर अपनी पति को स्वीकार किया। नए घर और इसके रीतिरिवाज को समझने को तैयार हो चुकी थी। मैं बहुत अच्छी बहू बनना चाहती थी जहाँ सब मुझसे ख़ुश रहें। मैं अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार थी। मैं पहले भी घर की बड़ी थी इसलिए ज़िम्मेदारी क्या होती है वह कुछ कुछ सीख कर ही आई थी।
मेरी ननद ने कहा की उनके पति अभी देश से बाहर हैं। जब तक वह अपने मायके में हैं तब तक वह मेरे सास ससुर की जिम्मेदारी देखेंगी उसके बाद मुझे ही बड़ी बहू की भूमिका निभानी है। मुझे ही बुढ़ापे में सास ससुर की सेवा करनी है। उस समय यह सोच कर ही अच्छा लग रहा था की मैं उस घर का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा हूँ।