गिरीश पंकज
वह न कोई लेखक थे, न कलाकार. न कोई बहुत बड़े व्यवसायी. साधारण व्यक्ति थे. इतने साधारण कि कभी कोई फोटो नहीं खिंचवाई. फेसबुक में अपना कोई अकाउंट भी नहीं खोला. मैंने गूगल खंगाला और निराश हुआ. वहां पुरुषोत्तम गुप्ता की कोई तस्वीर नहीं मिली, क्योंकि वह गूगल में नहीं, कुछ लोगों के दिलों में रहते थे. हृदय के बड़े उदार. प्रभात टॉकीज में कभी बुकिंग क्लर्क हुआ करते थे. 40 साल पहले जब उनकी शादी हुई तो उनके विशेष आग्रह पर बारात में नागपुर गया था. तब नवभारत समाचार पत्र तेलघानी नाका में हुआ करता था. उसके पास ही प्रभात टॉकीज थी, इसलिए कभी-कभार सिनेमा देखने चला जाता था. टॉकीज के प्रबंधक डागा जी अच्छे-से पहचानते थे इसलिए बिना टिकट सिनेमा देखने भी मिल जाता था.
लेकिन मन में अपराधबोध होता कि जब भी आता हूँ,तो फोकट में सिनेमा देखता हूँ. एक बार ठान लिया कि आज तो टिकट कटा कर ही फ़िल्म देखूँगा. वह ठंड का समय था. मैंने अपने चेहरे को मफलर से ढंक लिया और बुकिंग विंडो से बालकनी की एक टिकट ले ली. अपना चेहरा ऊपर करके कुछ आवाज़ भी बदली और खिड़की से हाथ अंदर करके टिकट ले लिया. पुरुषोत्तम गुप्ता मुझे पहचान नहीं पाए. मैंने चुपचाप फ़िल्म देखी फिर घर चला गया. दूसरे दिन देखता क्या हूं कि पुरुषोत्तम गुप्ता प्रेस पहुंच गए और मुझे पैसे वापस करते हुए बोले, “क्या भैया, आपने कल टिकट क्यों कटाया? गेटकीपर बता रहा था कि आपने टिकट कटा कर फ़िल्म देखी.” मैंने कहा, ” यार पुरुषोत्तम, फोकट में सिनेमा देखना अच्छा नहीं लगता इसलिए चुपके से टिकट कटा लिया था.” गुप्ता मुस्कुराकर बोले, “इसलिए आपको यह दंड है कि अपना पैसा वापस लीजिए. डागा जी भी आपसे नाराज हैं.”
गुप्ता की जिद के कारण मुझे पैसे वापस लेने पड़े. मेरे लिए यह घटना अविस्मरणीय बन गई. गुप्ता लंबे समय तक बुकिंग क्लर्क के रूप में काम करते रहे. फिर सहायक मैनेजर बने. बाद में भी हमारी मुलाकातें होती रहीं. वह अखबार के दफ्तर में आते और कभी-कभार कोई खबर भी हमें बताते.
फिर एक दिन वह टाकीज़ से रिटायर हो गए. एक दौर तो ऐसा भी आया जब पुरुषोत्तम अलग किस्म के गुप्त-क्रांतिकारी बन गए. शहर के अनेक भ्रष्ट लोगों के खिलाफ वह राज्यपाल और मुख्यमंत्री को प्रमाणसहित गुमनाम पत्र भेजा करते थे कि इन पर कार्रवाई की जाए. पत्र पर वह कोई काल्पनिक नाम-पता लिख देते. मैं उन्हें समझाता, ऐसा नहीं करना चाहिए. कभी पकड़ में न आ जाओ. लेकिन वह कहते फलाना-फलाना अफसर बहुत भ्रष्ट है. उस पर कार्रवाई होनी चाहिए. पुरुषोत्तम गुप्ता के इस आक्रामक तरीके पर मैंने एक लंबी कहानी भी लिखी थी ‘रामचरण पर एफआईआर’. हालांकि उनके पत्रों के आधार पर कभी किसी भी भ्रष्ट पर कार्रवाई नहीं हुई, न किसी को पता चला कि पत्र कौन भेजता है. बस पुरुषोत्तम को यह संतोष था कि मैंने अपना काम किया. मुझे साधारण से व्यक्ति का यह असाधारण काम अद्भुत प्रतीत हुआ.
कई बार पुरुषोत्तम के घर भी गया. उनके परिवार के साथ आत्मीयता के साथ बैठकें होती रहीं. उनकी माँ भी बहुत सीधीसादी थी. गुप्ता अपने बेटे और बेटी की पढ़ाई पर पूरा ध्यान देते थे. परिणाम यह हुआ कि उनका लड़का योग्य निकला और एक बैंक में प्रबंधक बन गया. बेटी भी चिकित्सा क्षेत्र में चली गई. बेटे की नौकरी राज्य से बाहर लगी. कभी मुंबई, कभी कटनी. पुरुषोत्तम को बेटे के पास जाकर रहना पड़ता. लेकिन जहां भी रहते,समय-समय पर मुझे फोन ज़रूर करते. वे बड़े प्रेमीजीव थे. पुराने लोगों से हमेशा बातचीत किया करते थे. गुप्ता मुझसे बात कर बहुत संतुष्ट होते. कुछ समय पहले बताया कि रायपुर का अपना पुराना घर तोड़कर दूसरी जगह नया घर बना रहा हूँ. गृह प्रवेश में आपको बुलाऊँगा. हालांकि धीरे-धीरे वह अस्वस्थ रहने लगे थे. कमर कुछ झुक सी गई थी. हार्ट का ऑपरेशन हुआ था. काफी कमजोर भी हो गए थे. 29 सितंबर को उनका निधन हो गया. तब मैं शहर से बाहर था. शायद इसीलिए दुःखद सूचना मुझे नहीं मिली. दो दिन पहले उनकी तेरहवीं का कार्ड वाट्सएप पर मिला. पहले मैं चकित हुआ कि पुरुषोत्तम गुप्ता ने किस के निधन का शोक पत्र भेजा दिया. लेकिन जब ध्यान से पढ़ा तो समझ में आया कि अरे! यह तो उन्हीं के निधन की सूचना है! 14 अक्टूबर को उनकी तेरहवीं थी. मन भावुक हो गया. होना ही था. निधन की सूचना जो नहीं मिल सकी वरना अंतिम यात्रा में शामिल होकर अंतिम प्रणाम ज़रूर करने जाता. जिनसे भी मेरा ठीक-ठाक परिचय रहा है, उनके निधन की जानकारी मिली तो शवयात्रा में हमेशा शामिल होता हूँ. आज गुप्ताजी की तेरहवीं में गया और साधारण से दिखने वाले असाधरण व्यक्तित्व को नमन करके उदास मन के साथ लौट आया.