नट सम्राट बार बार नहीं जन्मते

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सच्चिदानंद जोशी

सन 2015 के अंतिम महीनों की बात है शायद सितम्बर या अक्टूबर रहा होगा। मैं उन दिनों भोपाल में ही पदस्थ था माखनलाल विश्वविद्यालय में।मोबाइल पर काल आया जयंत देशमुख का मुंबई से। “और नंदू इन दिनों क्या कर रहे हो। नाटक वाटक करना है कि नहीं।” मुझे लगा जयंत भाई मुंबई की आपाधापी से तंग आकर कोई नाटक करना चाहते हैं भोपाल में। मनःस्थिति कुछ ठीक नहीं थी और कोई नाटक करने की या रंगयात्री समूह को फिर से जोड़ने की इच्छा नहीं थी। “नहीं यार अभी नाटक वाटक कुछ नहीं। बस ऑफिस और घर।”

” अरे यार नाटक कर नहीं सकते तो लिख ही डालो।” जयंत भाई के स्वर में आग्रह भी था और आदेश भी।
” हां लिखने के बारे सोचूंगा।”
” सोचना नहीं है करना है। मुझे हिंदी में” नट सम्राट ” चाहिए। तुमने कई बार पढ़ा है और मराठी में डायरेक्ट भी किया है। तुम उसका हिंदी कर दो। मैं जानता हूं तुम ही कर सकते हो।”
“नट सम्राट” मराठी के प्रसिद्ध लेखक वि.वा.शिरवाडकर जी की ऐसी अजर अमर कृति है कि उसमें अभिनय करने के लिए बड़े अभिनेता ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और अलग अलग अभिनेताओं द्वारा किए अभिनय को देखने के लिए दर्शक आस लगाए बैठते हैं।श्रीराम लागू, यशवंत दत्त, मोहन जोशी, नाना पाटेकर न जाने कितने अभिनेताओं ने उसके कई हजार प्रदर्शन किए है।हमने इसे दिल्ली की स्पर्धा में खेला था और पुरस्कार पाया था।विजय डिंडोरकर जी ने इसमें मुख्य भूमिका की थी। इतना सब होने के बावजूद उसका हिंदी अनुवाद करने का लॉजिक मेरी समझ से परे था।

” उसका हिंदी अनुवाद है न।और फिर जब तक तय नहीं कि नट सम्राट की केंद्रीय भूमिका कौन करेगा ये नाटक उठाने का अर्थ ही नहीं है। और फिर इस पर तो अब हिंदी में फिल्म भी बन चुकी है।”

मैने अपनी तरफ से भरपूर दलीलें दी लेकिन जयंत भाई लगता है मन बना चुके थे।बोले ” मैं वो सब नहीं जानता। जो अनुवाद है वो मुझे नहीं अच्छा लगा और मुझे मालूम है कि तुम्हे भी अच्छा नहीं लगा। नट सम्राट के रोल के लिए आलोक से पूछूंगा। उसने हां कहा तो ठीक नहीं तो किसी और को देखूंगा। लेकिन पहले आलोक से पूछूंगा और वो मना नहीं करेगा।”
आलोक चटर्जी और जयंत देशमुख की पहले गहरी दोस्ती और फिर अनबन के किस्से भोपाल के रंग जगत में चर्चित थे।दोनों ने रंग मंडल छोड़ने के बाद स्वतंत्र थिएटर शुरू किया। जयंत ने हिंदी में शिवाजी सावंत के कालजई उपन्यास मृत्युंजय जो कि कर्ण के जीवन पर आधारित था का हिंदी में नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया था।इसमें कर्ण की केंद्रीय भूमिका आलोक चटर्जी ने की थी।इस नाटक से भोपाल के सभी बड़े नाम जुड़े थे। कई कलाकारों को इसमें ब्रेक भी मिला था। अपनी अत्यंत विशिष्ट निर्देशकीय शैली और बेहद कसे हुए अभिनय के कारण इस नाटक के दस बारह शो हुए। जो भी शो हुए वे हाउस फुल थे और कई दर्शकों को खाली हाथ लौटना पड़ा। हिंदी नाटक जगत का ब्लॉक बस्टर था मृत्युंजय।
लेकिन फिर किसकी नजर लगी पता नहीं निर्देशक और अभिनेता में तना तनी हो गई। मृत्युंजय कुछ समय के लिए बंद हुआ और आलोक ,जयंत की जुगल जोड़ी बिखर गई। बाद में प्रवीण महुवाले ने यह भूमिका हिंदी और मराठी में की।मराठी हिंदी में दुर्योधन की भूमिका करने का अवसर मुझे भी मिला।बाद में यह नाटक 30 -35 शो के बाद बंद हो गया।
इस पृष्ठ भूमि पर मैने जयंत भाई के आग्रह के बारे में सोचा और हामी भरी। मन में एक लालच था कि चलो इस बहाने दोनों दोस्त एक बार फिर एक साथ काम करेंगे।

नट सम्राट का हिंदी अनुवाद इतना आसान भी नहीं था। विशेषकर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हिंदी का व्यावसायिक नाटक जगत मराठी से एकदम अलग है। बहुत सारी बाते सिर्फ मराठी नाटक पर ही फिट बैठती है।नाटक के पीरियड को तय करना भी जरूरी था।

काफी सोच विचार कर और कड़ी मेहनत करके मैने एक अंक लिखा और जयंत भाई को भेजा।उन्हें वो बहुत पसंद आया। विशेषकर वे प्रसंग जो मैने भाषा के बदलाव के कारण अलग तरीके से लिखे थे।कविताएं भी उन्हें अच्छी लगी।
पहला अंक लिख कर मैं थोड़ा सुस्ताने लगा। उस बीच दिल्ली की नौकरी का भी बुलावा आया। मन भी थोड़ा भटक गया।

इसी उधेड़बुन में एक दिन फोन की घंटी घनघनाई।
जयंत भाई का फोन था “कितना हो गया नंदू।”
” कितना!अरे अभी तो दूसरा अंक शुरू ही नहीं किया है।”

” अरे तो कर न यार। उधर वो आलोक तो पागल हो गया स्क्रिप्ट देख कर। उसने तो डायलॉग याद करना भी शुरू कर दिए।मुझसे कह रहा है कि ब्लॉकिंग और कास्टिंग भी शुरू कर दे।”

” लेकिन जयंत भाई अभी थोड़ा तो समय लगेगा” मुझे दिल्ली भी जाना ।”
” अरे यार नंदू तू समझ नहीं रहा।अब आलोक को रोकना मुश्किल है। ये नाटक उसके दिमाग में बुरी तरह घुस गया है। तू तो जैसे जैसे होते जाए वैसे वैसे पेज भेजते जाना। बाकी मैं और आलोक सम्हाल लेंगे।”

फिर क्या था किसी दिन दो किसी दिन चार ऐसा करके पेज जयंत भाई को भेजते रहे।और अन्ततः जून या जुलाई 2016 में उस नाटक का अनुवाद पूरा किया ।

उसके बाद की कहानी इतिहास है और ज्यादातर लोग जानते है। इस नाटक ने हिंदी नाट्य जगत में इतिहास बना डाला।

वैसे मेरी आलोक चटर्जी से बहुत घनिष्ठ मित्रता नहीं रही।एक शानदार अभिनेता के रूप में मेरे मन में उनके प्रति गहरा सम्मान था। इसलिए जब भी मिलते थे परस्पर स्नेह और सम्मान से मिलते थे।

नट सम्राट की कुछ शो होने के बाद एक दिन रात को फोन आया आलोक का।

मैने जैसे ही ” हेलो” कहा आलोक शुरू हो गए” मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं।आपने एक अभिनेता के रूप में मेरा जीवन सफल कर दिया। मैं सोच ही नहीं सकता कि यदि मैं यह नाटक न करता तो कितना अधूरा रह जाता।” आलोक न जाने कितने देर सिर्फ नाटक के विषय में ही बात करते रहे।बात बात भावुक होते रहे।जयंत भाई को और मुझे बार बार आभार देते रहे।शायद ये कॉल उन्होंने मुंबई के अति भव्य शो के बाद किया था।
वैसे जयंत भाई भी हर दो तीन शो के बीच काल करके नाटक की प्रगति बताते रहते ही थे। फिर रायपुर के शो में प्रत्यक्ष उपस्थित रहने का अवसर मिला।शो के बाद आलोक जिस तरह गले मिले उसका वर्णन करना संभव नहीं है।उसमें प्रेम था, कृतज्ञता थी, प्रसन्नता थी और सबसे बड़ी बात नट सम्राट के प्रमुख पात्र गणपत राव बेलवलकर जी का वात्सल्य था। मेरी भी आंखे सजल हो आई। वापस लौटा तो एक बात का संतोष मन में था वो ये कि हिंदी “नट सम्राट ” नाटक को उसका सुर मिल गया है। साथ ही इस बात की खुशी भी थी कि हिंदी रंग मंच को एक नया ” नट सम्राट ” मिल गया है।

ये लिखते हुए भी उंगलियां कांपती है कि आलोक चटर्जी अब हमारे बीच नहीं हैं।और ये सोचते हुए रूह कांपती है कि अब ” नट सम्राट” नाटक का क्या होगा। नाट्य जगत में आज भी कई श्रेष्ठ अभिनेता हैं और कई होंगे भी ,लेकिन नट सम्राट तो बार बार पैदा नहीं होते।

(सोशल मीडिया से)

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