सर्वेश कुमार सिंह-
लखनऊ: नेपाली राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट पार्टी एकीकृत (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के नेता और प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा औली के त्यागपत्र के साथ ही एक दिवास्वप्न का अंत हो गया है। नेपाल की जनता ने गणतंत्र के नाम पर 17 साल तक कम्यूनिस्ट शासन को देखा। लगभग डेढ़ दशक के इस कालखण्ड में नेपाल में 14 बार सरकारों में बदलाव हुआ। यानि नेपाल अस्थिरता के आगोश में समाया रहा। राजनीतिक अस्थिरता ने चार बार श्री औली को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाया। इसी कालखण्ड में मार्क्सवादी नेता और राजशाही के खिलाफ हिंसक आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले पुष्प कमल दहल उर्फ प्रंचण्ड भी 3 बार प्रधानमंत्री रहे। माधव नेपाल ने भी कम्यूनिस्ट नेता के रूप में सरकार का नेतृत्व किया। लेकिन,कोई भी प्रधानमंत्री नेपाल को राजनीतिक स्थिरता और समावेशी विकास के रास्ते पर नहीं चला सका। बल्कि सभी प्रधानमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। परिवारवाद से कोई अछूता नहीं रहा। परिणाम सामने है, नेपाल के युवाओं ने एक झटके में उस दिवास्वपन का अंत कर दिया, जिसके भरोसे ये नेता 2008 में राजाशाही को खत्म करके सत्ता के गलियारों में आ गए थे।
नए परिवेश और सत्ता की चकाचौंध में कामरेड ऐसे समाये कि वे आदर्श और सिद्धान्त जो सर्वहारा के कल्याण, समानता और समाजवाद का नारा देते थे। शुचिता की बात करते थे, वे नारे पानी पर उभरे बुलबुलों की तरह फूट गए। परिणाम सामने है, युवाओं का आक्रोश फूट पड़ा। वे न केवल घरों से निकले बल्कि उन्होंने नेताओं को भी घरों से घसीट कर उनके घरों में आग लगा दी। संसद, सर्वोच्च न्यायालय, प्रशासनिक भवन, प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्रियों के निजी आवास, मंत्रियों के आवास जला दिये।
नेपाल में एक दशक से अधिक तक राजशाही के अंत के लिए आन्दोलन चला। इसका नेतृत्व मार्क्सवादी-माओवादी नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड ने किया था। यह हिंसक आंदोलन था। सेना के साथ माओवादियों ने सीधा टकराव लिया था। वर्ष 2006 में यह आन्दोलन उग्र हो गया था। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों पर हमले हो रहे थे। पुलिस और सेना पर माओवादियों ने आक्रमण किये। लेकिन, अंततः जनआक्रोश में इस आदोलन को बदलने में प्रचण्ड सफल रहे। परिणाम 28 मई 2008 को नेपाल में राजशाही के अंत और गणतांत्रिक शासन की स्थापना हो गई। सत्ता कामरेड पुष्प कमल दहल प्रंचण्ड के हाथों में आ गई। इसी दिन संविधान सभा का गठन भी करने का निर्णय हो गया। संविधान सभा में कम्यूनिस्टों के बहुमत के सामने नेपाली कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेता नतमस्तक रहे। सत्ता के सुख की चाह रखने वाले नेपाली कांग्रेस के नेताओं ने भी एक तरह से कम्यूनिस्टों की अधीनता स्वीकार कर ली और सरकारों में भागीदारी भी की। वर्ष 2015 में नया संविधान स्वीकार कर लिया गया। हालांकि इस संविधान पर कई क्षेत्र के लोगों की अहसहमति थी। मधेशी समुदाय की उपेक्षा और कम प्रतिनिधित्व के आरोप लगे थे।लेकिन संविधान सभा में कम्यूनिस्ट नेताओं के दबाव के आगे इन आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया गया।
नेपाल में लगभग एक दशक तक चले हिंसक माओवादी आंदोलन का समर्थन भारतीय कम्यूनिस्टों ने भी खुले तौर पर किया था। इतना ही नहीं जब नेपाल की सरकार ने माओवादियों पर कड़ाई की और सीधी कार्रवाई शुरु की तो प्रचण्ड ने भारत के कम्यूनिस्टों के सहयोग से नई दिल्ली में शरण ली थी। वे यहां के कम्यूनिस्ट नेताओं के लगातार सम्पर्क में थे। यूपीए सरकार में कम्यूनिस्ट पार्टियों की बात गंभीरता से सुनी और मानी जाती थी। प्रेक्षकों का यह भी मानना है कि नेपाल में 2008 में हुए सत्ता परिवर्तन और हिन्दू राष्ट्र के स्वरूप को समाप्त करने में भारत सरकार के मौन अथवा माओवादियों से सहानुभूति की भी मुख्य भूमिका रही। यदि भारत सरकार ने पडोसी हिन्दू राष्ट्र के प्रति अपनी प्रचलित और पूर्व नीति में परिवर्तन नहीं किया होता तो शायद नेपाल आज भी हिन्दू राष्ट्र होता। भले ही राजशाही ब्रिटेन की तर्ज पर सत्ता शीर्ष पर प्रतीकात्मक स्वरूप में विद्यमान रहती। इस दौर में भारत के प्रमुख कम्यूनिस्ट नेता सीपीएम के स्व. सीताराम येचुरी ने कई बार नेताल यात्राएं कीं। अंततः विश्व का एकमात्र घोषित हिन्दू राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के नाम पर चीन प्रेरित कम्यूनिस्ट तानाशाही के आगोश में समा गया।
नेपाल में सत्ता बदलते ही इन कामरेडों ने भारत विरोध को हवा देनी शुरु कर दी। भारत से मित्रता और बन्धुत्व के भाव को नकारते हुए चीनी लाल सलाम स्वीकार किया। चीन का हस्तक्षेप नेपाल में बढ़ता चला गया। चीनी विस्तारवाद की नीति को अनदेखा करते हुए कम्यूनिस्ट राजनेताओं ने उस पर अपनी निर्भरता बढा ली। परिणाम सामने आने लगा जब आवश्यक वस्तुओं का अभाव होने लगा। भारत से सप्लाई चेन टूटने लगी। भारत विरोध बढ़ने से व्यापारियों और ट्रक ड्राइवरों के सामने कठिनाई आने लगी। चीन ने नेपाल की सीमाओं का अतिक्रमण शुरु कर दिया,लेकिन लाल कालीन की कामना में उन्होंने उसे भी अनदेखा किया।
नेपाल के कम्यूनिस्ट नेताओं ने कभी यह चिंता नहीं की कि सदियों से स्वाभाविक सहयोगी रहे भारत-नेपाल के सम्बन्ध कहीं खराब न हो जाएं। बल्कि उल्टे चार बार के प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा औली ने एक नया मानचित्र जारी कर भारत के कई क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा बता दिया। इसमें उत्तराखण्ड के लिपुलेख, लिम्पियाधुरा और कालापानी को नेपाल का हिस्सा बता दिया। नक्शे के विवाद में भारत और नेपाल के सम्बन्धों में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। भारत सरकार ने नेपाल के विकास खास तौर पर सड़क, यातायात, पुल, स्वास्थ्य आदि के लिए दीर्घकालीन योजनाएं शुरु की थीं। ये योजनाएं कई दशकों से चल रही थीं। नेपाल के युवाओं को भारतीय सेना में भर्ती किया जाता है। नेपाल और भारत के सम्बन्ध रोटी-बेटी के रहे हैं। किसी तरह का भेदभाव नेपाल के साथ भारत में नहीं है और न ही नेपाल की जनता कोई भेदभाव भारतीय समाज के साथ करती है। लेकिन, काल्पनिक विकास के मास्टर कम्यूनिस्टों को ये सम्बन्ध रास नहीं आते थे। हालांकि जन दबाव में उन्हें भी सामाजिक परम्पराओं को निभाना पड़ता था।
भारत में 2014 में मोदी सरकार आने के बाद नेपाल के प्रति फिर से सम्बन्ध सुधारने और कम्यूनिस्ट शासन के बावजूद वहां की जनता के हितों पर फोकस किया गया। मोदी सरकार ने अतीत की कटुता को भुलाते हुए नेपाल के विकास में भारत की प्रतिबद्धता को दोहराया और कई परियोजनाओं को शुरु करने की अनुमति दी। लेकिन, औली सरकार ने हमेशा भारत की तुलना में चीन को तरजीह दी। नेपाल हर मोर्चे पर भारत की बजाय चीन के साथ खड़ा दिखायी दिया। विश्व स्तर पर भी उसने कभी यह संदेश नहीं दिया कि वह भारत का स्वाभाविक सहयोगी पड़ोसी है।
आधुनिक नेपाल को गढ़ने में भारत की अहम भूमिका रही है। नेपाल के 80 और 90 के दशक के अनेक नेताओं को शिक्षा प्रदान करने से लेकर उनके हितों का संरक्षण भारत ने किया है। नेपाली कांग्रेस के नेता गणेश मान सिंह, वीपी कोईराला, गिरिजा प्रसाद कोईराला सभी नेताओं के भारत में नेताओं के साथ बहुत ही मथुर सम्बन्ध रहे। इनमें से कई नेताओं की शिक्षा दीक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई थी। वे भारत को अपना घर मानते थे। इसी कारण जब 1991 में आम चुनाव हुए तो नेपाली कांग्रेस के प्रधानमंत्री बने गिरिजा प्रसाद कोईराला ने सबसे पहले भारत की यात्रा की। लेकिन नेपाली कांग्रेस लम्बे समय तक सत्ता में काबिज नहीं रह सकी। उसके खिलाफ लगातार कम्यूनिस्ट पार्टियां आन्दोलन कर रही थीं। नेपाली कांग्रेस को भारत समर्थक दल घोषित कर दिया गया और इसे नेपाल की अस्मिता और स्वतंत्रता से जोड़कर नेपाली युवाओं को भडकाया गया कि नेपाल को भारत अपने अधीन रखना चाहता है। विमर्श गढा गया कि नेपाली कांग्रेस नेपाल को भारत के अधीन कर देगी। ये सब कुछ चीन की शह पर हो रहा था। चीन नहीं चाहता था कि नेपाल लम्बे समय तक भारत के साथ रहे। उसे इस हिमालयी देश को अपने चंगुल में लाना था। ताकि भारत पर दबाव बनाकर रखा जा सके।
लेकिन तमाम तरह के हथकंडे अपना कर और जनता को भ्रमित करके कम्यूनिस्ट 2008 में नेपाल की सत्ता पर काबिज तो हो गए। लेकिन, वे अपने कारनामों की वजह से स्थायी रूप से टिक न सके। यही वजह रही कि बार-बार सरकार बदलते रहे ताकि जनता को लगे कि कोई परिवर्तन हो गया है। जनता सब कुछ चुपचाप देखती है, लेकिन लम्बे समय तक चुप नहीं रहती। यही नेपाल में हुआ, जब 5 सितम्बर को तत्कालीन प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा औली ने 26 सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे युवाओं में आक्रोश पैदा हो गया। नेपाल में सोशल मीडिया व्यापारिक सुविधाओं का एक संचार माध्यम भी बन चुका है। चूंकि नेपाल का मुख्य आर्थिक स्रोत पर्यटन है और पर्यटन में सोशल मीडिया की मुख्य भूमिका है। इस लिए युवा इस मुद्दे कों लामबंध हो गए। युवाओं ने 8 सितंम्बर को संसद तक मार्च निकाल दिया। इस मार्च के संसद भवन पहुंचने पर पुलिस और आन्दोलनकारियों में हुई भिड़ंत में गोली चलने से 19 युवाओं की मृत्यु हो गी। इससे नेपाल पूरी तरह अशांत हो गया। युवा वेकाबू हो गए। उन्होंने फिर जो कुछ किया वह अभूतपूर्व, अकल्पनीय है। इसी आक्रोश के आगोश में आकर आखिर नेपाल की कम्यूनिस्ट सरकार का पतन हो गया है। नौ सितम्बर को प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा औली ने भी त्यागपत्र दे दिया। फिलहाल नेपाल सेना के नियंत्रण में है। लेकिन,अब कम्यूनिस्ट शासन की विफलता दुनिया भर में नये विमर्श को जन्म देगी कि क्या वामपंथी विचारधारा किसी देश को लम्बे समय तक स्थायी और समावेशी विकास और उन्नति के मार्ग पर ले जा सकती है।