नेपाल विलय: संस्कृति की पुकार, सत्ता की नकार

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इतिहास कभी-कभी ऐसे मोड़ पर ठिठक कर खड़ा हो जाता है, जहां से दो दिशाएं निकलती हैं। एक दिशा संभावनाओं की उजली धूप में जाती है, दूसरी अधूरे स्वप्नों की छाया में खो जाती है। नेपाल का भारत में विलय वही संभावना थी, जिसे हिमालय की चोटियों ने जन्म दिया, किंतु राजनीति ने उसे अधूरा छोड़ दिया।

राजा वीर विक्रम त्रिभुवन शाह ने जब पंडित नेहरू के सामने नेपाल को भारत में सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा, तो वह केवल राजनीतिक गणित नहीं था। वह उस सांस्कृतिक धारा की पुकार थी, जिसमें मिथिला के जनक से लेकर अयोध्या के राम तक, लुंबिनी के बुद्ध से लेकर पशुपतिनाथ के शिव तक, सदियों से भारत और नेपाल एक ही आस्था की दो धाराओं की भांति बहते रहे हैं। किंतु नेहरू ने उस पुकार को अनसुना कर दिया। इतिहास वहीं से बदल गया।

यह प्रसंग केवल स्मृति में नहीं, बल्कि अनेक आत्मकथाओं में भी दर्ज है। चौधरी चरण सिंह ने जब इसे नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बी.पी. कोइराला के सामने रखा, तो वातावरण बोझिल हो गया। कोइराला मौन हो गए, चंद्रशेखर ने प्रसंग बदलना चाहा। परंतु दशकों बाद पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा ‘द प्रेसिडेंशियल इयर्स’ में इस तथ्य को प्रमाणित किया। उन्होंने तो यहां तक लिखा कि यदि यह प्रस्ताव इंदिरा गांधी के सम्मुख आया होता, तो नेपाल भी सिक्किम की भांति भारत का प्रांत बन गया होता।

यहां प्रश्न केवल विलय का नहीं है, बल्कि उस सांस्कृतिक एकात्मता का है, जो इतिहास की धारा में बार-बार झलकती रही है। रामायण में गंगा के तट पर निषादराज गुह का राम से मिलना केवल मित्रता का प्रसंग नहीं, बल्कि यह प्रमाण है कि सीमाएं और राज्य- सीमाएं बदल सकती हैं, परंतु सांस्कृतिक आत्मीयता शाश्वत रहती है। महाभारत का एकलव्य यह दिखाता है कि जातीय विभाजन से ऊपर उठकर समाज की वास्तविक शक्ति कहां होती है। इसी तरह नेपाल का भारत से जुड़ना केवल भूमि का जुड़ना नहीं होता, बल्कि आत्माओं का संगम होता।

वेदों में कहा गया है कि “संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्” अर्थात साथ चलो, साथ बोलो और साथ सोचो। यह मंत्र केवल आर्यावर्त तक सीमित नहीं रहा, बल्कि हिमालय की गोद तक फैल गया। नेपाल और भारत का रिश्ता इसी वैदिक मंत्र की जीवित अभिव्यक्ति है।

इतिहास ने जब त्रिभुवन शाह की उस पुकार को अस्वीकार किया, तब उसने केवल एक राजनीतिक संभावना नहीं खोई, बल्कि उस वैदिक उद्घोष की गूंज को भी अधूरा छोड़ दिया। आज भी जब हम भारत-नेपाल संबंधों को देखते हैं, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या नेहरू ने एक ऐसा अवसर खो दिया, जहां राजनीति संस्कृति का सेतु बन सकती थी?

यदि नेपाल भारत का अंग बन गया होता, तो वह केवल भूगोल का विस्तार नहीं होता। वह उस एकात्मता का पुनर्जागरण होता, जो राम और सीता की जनकपुरी से जुड़ती है, जो बुद्ध के जन्मस्थल लुंबिनी को भारत की चेतना में पिरोती है, और जो पशुपतिनाथ की आरती को काशी के गंगाघाटों से जोड़ देती है।

इतिहास का यह अधूरा अध्याय आज भी हमें स्मरण कराता है कि राष्ट्र केवल संधियों से नहीं बनते, वे स्मृतियों और संस्कारों से बनते हैं। राजनीति की दृष्टि क्षणभंगुर है, किंतु संस्कृति की दृष्टि शाश्वत है। और जब शाश्वत को क्षणभंगुर पर छोड़ दिया जाता है, तो इतिहास केवल एक लंबी टीस बनकर रह जाता है।

आज प्रश्न यह है कि इतिहास के उस खोए अवसर से हम क्या सीख लेते हैं। क्या हम उस सांस्कृतिक एकात्मता को पुनः अपने भविष्य का आधार बना पाएंगे? हिमालय की चोटियां अब भी यही कहती हैं कि राष्ट्र की आत्मा सीमाओं से नहीं, आत्मीयताओं से बसती है।

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