कैलाशचंद्र जी
दिल्ली । चुनावी मौसम के आते -जाते, विशेषकर हारते ही एक परिचित-सा शोर फिर गूंजने लगता है- “लोकतंत्र समाप्त”, “EVM में झोल”, “वोट चोरी”, “चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं”। हाल के दिनों में यह रुझान और तेज हुआ है, जहाँ तथाकथित Gen-G को सड़क पर आना चाहिए क्यों नहीं आ रहे। देश खतरे में, संविधान खतरे में, या कुछ संगठित समूह अचानक सड़कों पर दिखाई देने लगते हैं, मानो लोकतंत्र के लिए अंतिम लड़ाई लड़नी हो।
वास्तव में यह भावनात्मक उबाल नहीं, बल्कि एक पूर्व-निर्मित राजनीतिक नैरेटिव है, जो हर उस समय सतह पर लाया जाता है जब जनादेश अनुकूल न हो।
चुनाव आयोग, जो दशकों से देश की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता का आधार रहा है, अचानक से संदिग्ध घोषित कर दिया जाता है। EVM, जिसने बूथ-कैप्चरिंग और बलपूर्वक मतदान जैसी समस्याओं को काफी हद तक समाप्त किया, उसी मशीन को हर बार हार के बाद कटघरे में खड़ा किया जाता है। मज़ेदार बात यह है कि जब इन्हीं मशीनों से जीत मिलती है, तब यह तकनीक ‘लोकतंत्र की विजय’ कहलाती है, और जब परिणाम विपरीत हों तो ‘साजिश’!
इन आरोपों के पीछे एक रणनीति साफ दिखाई देती है।देश में भ्रम निर्माण कर विश्वास-क्षरण की राजनीति। जनता के मन में यह भ्रम पैदा करना कि संस्थाएँ निष्पक्ष नहीं हैं, प्रक्रिया विश्वसनीय नहीं है, और परिणाम स्वीकार करना ‘मूर्खता’ है।
इस रणनीति के साथ अक्सर कुछ और पुराने मुद्दे भी जोड़ दिए जाते हैं —
• “संविधान खतरे में है”
• “फासीवाद आ गया है”
• “असहमति की आवाज दबा दी गई है”
• “युवा पीढ़ी से भविष्य छीन लिया गया है”
इन सबका उद्देश्य सीधा है। समाज को दो ध्रुवों में बाँटना, और प्रत्येक चुनाव को जनादेश के बजाय वैचारिक युद्ध (Ideological warfare) में बदल देना।
लोकतंत्र की असली चुनौती विचारों की विविधता नहीं, सत्ता विहीन जीने की कल्पना न होना है। इसके लिये हार स्वीकार करने की अनिच्छा है। जनमत को हर बार कटघरे में खड़ा करना, संस्थाओं को अविश्वसनीय बताना और युवाओं को भ्रमित कर सड़कों पर उतारना आखिरकार लोकतंत्र को मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर करता है।
देश में वर्तमान आवश्यकता है कि राजनीतिक दलों के नेता, कार्यकर्ता अपनी कमज़ोरियों का आत्ममंथन करें, बजाय इसके कि हर बार जनता के निर्णय को संदिग्ध ठहराएँ।
लोकतंत्र आरोपों पर नहीं, विश्वास और परिपक्वता पर चलता है। और यह जिम्मेदारी सभी की है, न कि सिर्फ मतदाता की। आखिर कब तक ये नेता, पार्टी, दल, चमचे, योजनाकार और सलाहकार एजेंसियों को स्वयं के निकम्मेपन और आलस्य को व्यवस्था और जनता पर मढ़ते रहने का शौक पलता रहेगा? ये सवाल तो इनसे बनता है।



