पहलगाम का खून: गंगा-जमुनी तहज़ीब की आड़ में भारत की आत्मा पर वार

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22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जो हुआ, वह सिर्फ आतंकवाद नहीं था, बल्कि भारत की आत्मा पर एक सोची-समझी चोट थी।
26 निर्दोष सैलानियों को द रेजिस्टेंस फ्रंट (TRF), जो लश्कर-ए-तैयबा का ही एक नक़ली चेहरा है, ने बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। यह हमला उस वक्त किया गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब दौरे पर थे और अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस भारत यात्रा पर आए हुए थे। इस हमले का मक़सद साफ था—कश्मीर में सामान्य हालात बनने नहीं देने देना।

TRF ने इस क़त्ल-ए-आम का बहाना बताया “जनसांख्यिकीय बदलाव”, लेकिन असल में यह भारत की संप्रभुता और बहुलतावादी (pluralist) सोच को नकारने की एक साज़िश थी। ये जिहादी, जो 1947 के बँटवारे की जहनियत अब भी ढो रहे हैं, आज़ादी, जम्हूरियत और इंसाफ़ के नाम पर देश के अंदर कट्टर सोच को बढ़ा रहे हैं।

भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और सुलह-कुल की परंपराओं को जहां कभी भाईचारे और सांझी विरासत का प्रतीक माना जाता था, अब वही जिहादी ताक़तें उसका इस्तेमाल अपनी मज़हबी नफ़रत को छुपाने के लिए कर रही हैं। सहिष्णुता का मतलब अब इनके लिए सिर्फ़ बहुसंख्यकों की चुप्पी है, जबकि ये नफरत फैलाते हैं, मज़हबी कट्टरता को हवा देते हैं और मासूमों को मारने की योजनाएं बनाते हैं।

दूसरी ओर, मोदी सरकार ने भी कई बार मज़बूत जनादेश के बावजूद वोट बैंक की राजनीति में फ़ैसले कमज़ोर कर दिए। “सबका साथ, सबका विकास” के नाम पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति अपनाई गई।

यह भी अजीब विडंबना है कि आरएसएस और इसके अनेक फ्रंटल मंच जैसे राष्ट्रवादी संगठन अक्सर ऐसे मौकों पर गायब रहते हैं जब हिंदू समाज पर सीधा हमला होता है। कई बार इनके नेता कांग्रेसी भाषा में बोलते दिखते हैं। बड़े बड़े बदलावों की डींग मारने वाले अब खामोश हैं, या कैंडल मार्च के हिस्से हैं। तमाम प्राइवेट जातिगत सेनाएं एक्टिव रहीं, लेकिन अपने कंफर्ट जोन से कोई बाहर नहीं निकलता। सिर्फ गाल बजाओ प्रतियोगिता चल रही है।
भारत की न्यायपालिका भी कई बार उन नीतियों को रोकती दिखी है जो बदलाव ला सकती थीं—चाहे वो आधार हो, सीएए हो, राम मंदिर हो या अनुच्छेद 370। ऐसी ज्यूडिशियल ऐक्टिविज़्म (न्यायिक सक्रियता) ने कट्टरपंथी ताक़तों को कानूनी रास्तों से देश की तरक्की में रोड़े अटकाने का मौका दे दिया।
देश में विकास तो हुआ है—बुलेट ट्रेन, डिजिटल इंडिया, एक्सप्रेसवे—लेकिन फ़िक्री तब्दीली यानी सोच में बदलाव नहीं आया। जिहादी सोच आज भी जिन्दा है, और मीडिया व बुद्धिजीवी वर्ग उसे अलग रंग देने की कोशिश करता है। आतंकवाद को ‘उग्रवाद’, ‘घटना’ जैसे शब्दों से ढकने की परंपरा अब भी जारी है।

भारत को अब यह समझना होगा कि असली ख़तरा सीमा के पार नहीं, बल्कि देश के अंदर ही मौजूद उन गेट्टोज़ या (मिनी पाकिस्तान) से है जहाँ नफरत पनप रही है। भारत को चाहिए कि वह अपनी सियासी हिचकिचाहट को छोड़े और मज़बूती से इस आंतरिक खतरे का मुक़ाबला करे।
सिर्फ कूटनीतिक क़दम—जैसे सिंधु जल संधि को रोकना या वाघा बॉर्डर बंद करना—काफ़ी नहीं होंगे। ज़रूरत है एक वैचारिक इंकलाब की, जहाँ धर्मनिरपेक्षता का मतलब तुष्टीकरण नहीं बल्कि राष्ट्र की एकता और अखंडता हो।

क्या वजह है जो 75 वर्षों बाद भी ये मुल्क बंटा हुआ, बिखरा, दिशाहीन दिखता है। महज विकासवादी प्रोग्राम के संचालन से सोच और प्रतिबद्धता नहीं बदलती। अगर हम वोटों की राजनीति से परे देश हित और आधुनिक ख्यालातों का समागम करें तब ही हम पहलगाम के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे। तभी भारत का भविष्य महफूज़ रह पाएगा।

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