पर्यावरण संरक्षण के लिये आयुर्वेद

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धीप्रज्ञ द्विवेदी

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहाँ स्वास्थ्य और प्रकृति के बीच का संतुलन बिगड़ रहा है, वहीं आयुर्वेद हमें एक नया रास्ता दिखाता है। यह सिर्फ एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है जो हमें प्रकृति से जुड़ना सिखाती है।
आयुर्वेद मानता है कि हमारा शरीर, मन और आत्मा, ये तीनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और प्रकृति का ही हिस्सा हैं। जब तक ये तीनों संतुलित रहते हैं, हम स्वस्थ रहते हैं। इसीलिए, यह सिर्फ बीमारियों का इलाज नहीं करता, बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि हम कैसे अपनी जीवनशैली, खान-पान और दिनचर्या को बेहतर बनाकर बीमारियों से दूर रह सकते हैं। आयुर्वेद की सबसे खास बात यह है कि यह हर व्यक्ति को अलग मानता है। यह समझता है कि हर किसी का शरीर अलग होता है, इसलिए हर किसी के लिए स्वस्थ रहने के नियम भी अलग होते हैं। इस तरह, आयुर्वेद हमें केवल शरीर से ही नहीं, बल्कि मन से भी स्वस्थ रहने की शिक्षा देता है। यह हमें प्रकृति के साथ कदम मिलाकर चलने और एक खुशहाल, संतुलित और सुरक्षित जीवन जीने का तरीका सिखाता है।आयुर्वेद केवल रोगों के उपचार का विज्ञान नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की वह पद्धति है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करती है। यही कारण है कि आज जब स्वास्थ्य संकट और पर्यावरण असंतुलन दोनों ही बड़ी चुनौतियों के रूप में सामने हैं, तब आयुर्वेद की शिक्षाएँ और भी प्रासंगिक हो उठती हैं।

आयुर्वेद स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों की रक्षा के लिए विज्ञान और दर्शन का अद्वितीय संगम है। यह हमें सिखाता है कि स्वस्थ शरीर तभी संभव है जब हम प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन जिएँ। आज की बदलती जीवनशैली और प्रदूषण-युक्त वातावरण में, आयुर्वेद के सिद्धांतों को अपनाना न केवल हमारे व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए, बल्कि संपूर्ण पर्यावरण और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिए भी आवश्यक है।

आज की दुनिया में पर्यावरण संकट सबसे गंभीर चिंताओं में से एक है। बढ़ते प्रदूषण, अव्यवस्थित जीवनशैली और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने न केवल प्रकृति की पवित्रता को नुकसान पहुँचाया है बल्कि मानव स्वास्थ्य को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। ऐसे समय में आयुर्वेद, जो प्रकृति के अनुरूप जीवन जीने की कला और विज्ञान है, हमें एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है। आयुर्वेद केवल चिकित्सा पद्धति ही नहीं, बल्कि जीवनदर्शन है, जिसमें स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण दोनों की समग्र समझ निहित है।

आयुर्वेद और पर्यावरण का अंतःसंबंध

आयुर्वेद का मूल दर्शन ‘पंचमहाभूत’ की प्राचीन अवधारणा पर आधारित है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन पाँच तत्वों से ही न केवल संपूर्ण ब्रह्मांड बल्कि मानव शरीर की भी रचना हुई है। इस गहन समझ के कारण, आयुर्वेद मानता है कि मनुष्य का स्वास्थ्य सीधे तौर पर बाहरी पर्यावरण के संतुलन से जुड़ा हुआ है। जब प्रकृति के इन तत्वों में असंतुलन आता है, तो इसका सीधा प्रभाव हमारे शरीर के भीतर भी दिखाई देता है।

यह अंतर्संबंध आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है, जब पर्यावरण प्रदूषण अपने चरम पर है। उदाहरण के लिए:

जल प्रदूषण: जब जल का तत्व प्रदूषित होता है, तो यह जलजनित रोगों जैसे टाइफाइड और हैजा का कारण बनता है। आयुर्वेद में जल को जीवन का आधार माना गया है और दूषित जल से शरीर के भीतरी दोषों (वात, पित्त, कफ) में असंतुलन पैदा होता है।

वायु प्रदूषण: दूषित वायु सीधे हमारे फेफड़ों और हृदय को प्रभावित करती है, जिससे श्वसन संबंधी बीमारियाँ जैसे अस्थमा और दिल की समस्याएँ बढ़ती हैं। वायु को प्राण का स्रोत माना गया है, और जब यह प्रदूषित होती है, तो शरीर की ऊर्जा प्रणाली बाधित होती है।

भूमि क्षरण: रसायनों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से भूमि की उर्वरता और शुद्धता नष्ट हो जाती है, जिससे उपजाऊ मिट्टी के अभाव में उगाया गया भोजन विषैला हो जाता है। यह भोजन हमारे शरीर को पोषण देने की बजाय, धीमा जहर बन जाता है।

आयुर्वेद का सबसे क्रांतिकारी विचार यही है कि प्रकृति और मनुष्य में कोई विभाजन नहीं है। हम प्रकृति का ही एक सूक्ष्म रूप हैं। इस एकीकृत दृष्टिकोण के आधार पर ही हम पर्यावरण के संरक्षण और शुद्धिकरण के लिए प्रभावी आयुर्वेदिक उपाय अपना सकते हैं। यह हमें केवल एक स्वस्थ जीवन जीने का मार्ग नहीं दिखाता, बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि हमारे ग्रह को कैसे बचाना है। यह दर्शन हमें याद दिलाता है कि हमारा स्वास्थ्य और हमारे ग्रह का स्वास्थ्य एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।

औषधीय पौधों का महत्व

आयुर्वेद औषधियों का निर्माण वनस्पतियों और प्राकृतिक खनिजों से करता है।

यदि औषधीय पौधों के संरक्षण और संवर्धन पर बल दिया जाए, तो यह न केवल स्वास्थ्य के लिए औषधियाँ प्रदान करेगा बल्कि पर्यावरण में हरियाली और ऑक्सीजन संतुलन भी बनाएगा।

तुलसी, नीम, अश्वगंधा, आंवला, गिलोय जैसे पौधे प्रदूषण को शुद्ध करने के साथ-साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाते हैं।

नगर व ग्रामीण क्षेत्रों में औषधीय उद्यान विकसित करने से जैव विविधता का संरक्षण संभव है।

इस प्रकार औषधीय पौधों की खेती पर्यावरण संतुलन और स्वास्थ्य दोनों का सेतु बन सकती है।

पर्यावरण-मित्र जीवनशैली

आयुर्वेद स्वास्थ्य के लिए “दिनचर्या” और “ऋतुचर्या” का महत्व बताता है। यह केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि सामूहिक पर्यावरण संरक्षण को भी प्रभावित करता है।

प्लास्टिक और कृत्रिम पदार्थों के प्रयोग से बचकर मिट्टी और धातु के बर्तनों का उपयोग पर्यावरण के लिए बेहतर है।

स्थानीय और मौसमी आहार ग्रहण करने से न केवल शारीरिक संतुलन बना रहता है बल्कि परिवहन और संरक्षण में ऊर्जा की बर्बादी भी कम होती है।

पंचकर्म जैसी आयुर्वेदिक परंपराएँ शरीर को शुद्ध करती हैं, तो पर्यावरणीय संदर्भ में “शुद्धिकरण” की यही अवधारणा घर और समाज में प्राकृतिक सफाई पद्धतियों को बढ़ावा देती है।

रसायन-मुक्त कृषि और स्वास्थ्य

आयुर्वेद का एक मूलभूत सिद्धांत है: भोजन ही औषधि है। यह मानता है कि हम जो खाते हैं, वह सीधे तौर पर हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। हालाँकि, आज के समय में रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से हमारा भोजन धीरे-धीरे जहरीला होता जा रहा है।

ऐसे में, यदि हम आयुर्वेदिक सिद्धांतों पर आधारित जैविक खेती को अपनाएँ, तो यह न केवल हमारे भोजन को शुद्ध करेगा, बल्कि पर्यावरण को भी रसायन-मुक्त बनाएगा। जैविक खेती मिट्टी, जल और वायु की गुणवत्ता को सुधारने में मदद करती है।

इस पद्धति में, गोबर, गोमूत्र और वनस्पति-आधारित उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। ये प्राकृतिक तत्व मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाते हैं और फसलों को बिना किसी नुकसान के कीटों से बचाते हैं।

इस तरह, कृषि में आयुर्वेदिक दृष्टिकोण अपनाना पर्यावरण की रक्षा और टिकाऊ विकास की दिशा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है। यह हमें एक स्वस्थ, प्राकृतिक और सुरक्षित जीवन जीने का रास्ता दिखाता है।

औषध निर्माण और पर्यावरणीय दृष्टिकोण

आज की दुनिया में, जहाँ आधुनिक फार्मा उद्योग अपनी दक्षता के लिए जाना जाता है, वहीं इसके पीछे का एक स्याह पहलू भी है: पर्यावरण प्रदूषण। इन उद्योगों से निकलने वाला रासायनिक कचरा (chemical waste) नदियों, मिट्टी और हवा को दूषित कर रहा है, जो न केवल प्राकृतिक जीवन बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए भी एक गंभीर खतरा है।

इसके बिल्कुल विपरीत, सदियों पुरानी भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद एक ऐसा मार्ग दिखाती है जो स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों का ख्याल रखता है। आयुर्वेद में औषधियों का निर्माण प्रकृति से प्राप्त वनस्पतियों, खनिजों, धातुओं और पशु-उत्पादों से होता है। यह प्रक्रिया केवल उपचार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पर्यावरण-अनुकूलता (eco-friendliness) को भी प्राथमिकता देती है।

आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण ‘जीरो वेस्ट’ के सिद्धांत पर आधारित है। इसका अर्थ है कि निर्माण प्रक्रिया में कोई हानिकारक रासायनिक कचरा उत्पन्न नहीं होता। उदाहरण के लिए, जड़ी-बूटियों का जो हिस्सा औषधि के लिए उपयोग नहीं होता, उसे खाद के रूप में या अन्य प्राकृतिक तरीकों से फिर से उपयोग में लाया जा सकता है।

इसके अलावा, आयुर्वेदिक ग्रंथों में सतत विकास के सिद्धांतों का भी वर्णन है। इसमें बताया गया है कि वनस्पतियों को किस समय और किस तरह से इकट्ठा करना चाहिए ताकि उनकी संख्या पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े। जड़ी-बूटियों को हमेशा उचित मात्रा में और सही मौसम में ही संकलित करने की सलाह दी जाती है, जिससे प्रकृति का संतुलन बना रहे।

इस तरह, आयुर्वेद का औषध-निर्माण मॉडल एक आदर्श उदाहरण पेश करता है, जहाँ स्वास्थ्य और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं। यह हमें सिखाता है कि हम अपने उपचार के लिए प्रकृति का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इस तरह से कि हम उसे कोई नुकसान न पहुँचाएँ। यह केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन शैली (holistic lifestyle) है जो हमें प्रकृति से जोड़ती है और हमें भविष्य के लिए एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण देने की प्रेरणा देती है।

रोग निवारण और पर्यावरण

आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों का मुख्य ध्यान अक्सर बीमारी होने के बाद उसके उपचार पर होता है। इसके विपरीत, आयुर्वेद एक ऐसा विज्ञान है जो रोगों की रोकथाम को सबसे अधिक प्राथमिकता देता है। यह मानता है कि एक स्वस्थ जीवनशैली और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर हम बीमारियों से बच सकते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल हमारे शरीर को स्वस्थ रखता है, बल्कि पर्यावरण को भी हानि नहीं पहुँचाता।

आज, जब वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं, तब श्वसन रोग (जैसे अस्थमा), त्वचा संबंधी समस्याएँ और मानसिक तनाव जैसी बीमारियाँ आम हो गई हैं। आयुर्वेद हमें इन समस्याओं से निपटने के लिए प्रकृति के सरल और प्रभावी उपाय सुझाता है। तुलसी, नीम और पिप्पली जैसी जड़ी-बूटियाँ, जिनका जिक्र आपने किया, आयुर्वेद में रोगों से बचाव के लिए सदियों से उपयोग हो रही हैं। इन्हें दैनिक जीवन में शामिल करना एक पर्यावरण-अनुकूल तरीका है, क्योंकि ये रासायनिक दवाओं की तरह कोई साइड-इफेक्ट नहीं छोड़तीं और न ही इनके उत्पादन में पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है।

इसके अलावा, आयुर्वेद केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है। यह मानता है कि मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। योग और प्राणायाम इस पद्धति के अभिन्न अंग हैं। ये अभ्यास शरीर और मन को शांत और संतुलित रखते हैं। सबसे खास बात यह है कि योग और प्राणायाम करने के लिए न तो किसी विशेष संसाधन की आवश्यकता होती है और न ही ये किसी भी प्रकार का प्रदूषण उत्पन्न करते हैं। ये हमें हमारे भीतर की शक्ति को पहचानने और तनाव को दूर करने में मदद करते हैं, जिससे हमारा समग्र स्वास्थ्य बेहतर होता है।

इस प्रकार, आयुर्वेद हमें सिखाता है कि हम कैसे अपनी जीवनशैली में बदलाव लाकर, प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करके और मानसिक संतुलन बनाकर बीमारियों से दूर रह सकते हैं। यह एक ऐसा मॉडल है जो व्यक्तिगत स्वास्थ्य और पर्यावरणीय स्थिरता दोनों को एक साथ बढ़ावा देता है, जिससे एक स्वस्थ और स्थायी भविष्य का निर्माण हो सके।

शहरी और ग्रामीण स्तर पर अनुप्रयोग

पर्यावरण सुधार हेतु आयुर्वेद का प्रयोग व्यक्तिगत जीवन तक सीमित न रखकर, सामुदायिक स्तर पर भी किया जा सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में पंचवटी परंपरा (पाँच पवित्र वृक्षों का रोपण) को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

शहरी क्षेत्रों में छतों व उद्यानों में औषधीय पौधों की खेती अपनाई जा सकती है।

विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आयुर्वेदिक जीवनशैली और पौधा-संरक्षण को स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ा जा सकता है।

आयुर्वेद और जलवायु परिवर्तन

आज जब जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है, तब आयुर्वेद हमें एक नया और प्रभावी रास्ता दिखाता है। यह सिर्फ एक चिकित्सा पद्धति नहीं है, बल्कि एक ऐसा दर्शन है जो प्राकृतिक संसाधनों के संयमित उपयोग और संरक्षण पर ज़ोर देता है।

आयुर्वेद के अनुसार, हमारा स्वास्थ्य प्रकृति के संतुलन से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि यह पद्धति औषधीय जंगलों के विस्तार को बढ़ावा देती है। ये जंगल कार्बन सिंक के रूप में काम करते हैं, जो वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों को सोखकर ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में मदद करते हैं।

इसके अलावा, वर्षा जल संरक्षण, प्राकृतिक खाद का उपयोग और वनस्पति संवर्धन जैसे उपाय सीधे तौर पर आयुर्वेदिक जीवनशैली से जुड़े हैं। ये पारंपरिक पद्धतियाँ न केवल पर्यावरण को बचाती हैं, बल्कि टिकाऊ विकास को भी बढ़ावा देती हैं।

आयुर्वेद हमें लो-कार्बन जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करता है। इसमें संतुलित और सादा आहार, सरल जीवन और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर रहना शामिल है। इस तरह, आयुर्वेद हमें सिखाता है कि हम कैसे अपनी जीवनशैली में बदलाव लाकर जलवायु परिवर्तन से लड़ सकते हैं और एक स्वस्थ, हरित भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद का लक्ष्य केवल रोगों का उपचार करना नहीं है, बल्कि जीवन को संतुलित, स्वस्थ और प्रकृति-संगत बनाना है। यदि हम आयुर्वेद को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ तो—

भोजन रसायन-मुक्त और पौष्टिक होगा।

पर्यावरण हरित और स्वस्थ होगा।

औषधियों का संग्रह और उपयोग टिकाऊ पद्धति से होगा।

व्यक्तिगत स्वास्थ्य और सामुदायिक कल्याण दोनों सुनिश्चित होंगे।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आयुर्वेद पर्यावरण सुधार का मार्गदर्शक दर्शन है। आधुनिक समय की चुनौतियों का समाधान तभी संभव है, जब हम प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का संतुलित प्रयोग करें। आयुर्वेद हमें यही शिक्षा देता है कि मनुष्य और प्रकृति का संतुलित सह-अस्तित्व ही पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों की कुंजी है।

(लेखक पर्यावरण में स्नातकोत्तर हैं, पर्यावरण विषयों के जानकार हैं और प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पर्यावरण पढ़ाते हैं। साथ ही साथ पर्यावरण और स्वास्थ्य को लेकर कई सारे आलेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। स्वस्थ भारत न्यास के संस्थापक ट्रस्टी हैं। शोध पत्रिका सभ्यता संवाद के कार्यकारी संपादक हैं।)

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